परमात्मा एक है
सत्य-तत्त्व या परमात्मा एक हैं। वे निर्गुण होते हुए ही सगुण, निराकार होते हुए ही साकार, सगुण होते हुए ही निर्गुण तथा साकार होते हुए ही निराकार हैं। उनके सम्बन्धमें कुछ भी कहना नहीं बनता और जो कुछ कहा जाता है सब उन्हींके सम्बन्धमें कहा जाता है। अवश्य ही जो कुछ कहा जाता है, वह अपूर्ण ही होता है। पूर्णका वर्णन किसी भी तरह हो नहीं सकता। परन्तु परमात्मा किसी भी हालतमें अपूर्ण नहीं हैं; उनका आंशिक वर्णन भी पूर्णका ही वर्णन होता है; क्योंकि उनका अंश भी पूर्ण ही है। इन्हीं परमात्माको ऋषियोंने, सन्तोंने, भक्तोंने नाना भावोंसे पूजा और परमात्माने उन सभीकी विभिन्न भावोंसे की हुई पूजाको स्वीकार किया।
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वे परात्पर सच्चिदानन्दघन एक परमेश्वर ही परम तत्त्व हैं। वे गुणातीत हैं परन्तु गुणमय हैं, विश्वातीत हैं परन्तु विश्वमय हैं। सबमें वही व्याप्त हैं और जिनमें वह व्याप्त हैं वे सभी पदार्थ—समस्त चराचरभूत उन्हींमें स्थित हैं। वे ही परात्पर प्रभु विज्ञानानन्दघन ब्रह्मा, महादेव, महाविष्णु, महाशक्ति, अनन्तानन्दमय साकेताधिपति श्रीराम और सौन्दर्यसुधासागर गोलोकाधीश्वर श्रीकृष्ण हैं। ये सभी विभिन्न स्वरूप सत्य और नित्य हैं। परन्तु अनेक दीखते हुए भी वस्तुत: ये हैं सदा-सर्वदा एक ही।
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साधक या भक्त अपनी-अपनी रुचिके अनुसार इनमेंसे या इनसे अतिरिक्त अन्य किसी भी एक लीलास्वरूपकी उपासना आवश्यक समझकर किया करते हैं और उनका ऐसा करना है भी बहुत ही ठीक। भगवान्के अनेकों रूपोंकी उपासना एक साथ नहीं की जा सकती। चंचल मनको शान्त और एकाग्र करनेके लिये एक ही रूपकी उपासना आवश्यक होती है। अनेकों रूपोंकी उपासनासे तो चित्तकी चंचलता और भी बढ़ जाती है। इसीलिये विचारशील दिव्यदृष्टिप्राप्त सद्गुरु साधककी रुचि, उसकी स्थिति, पात्रता, अधिकार और परिणामको देखकर उसे किसी एक ही रूपकी उपासना बताकर साथ ही ऐसा मन्त्र भी दे देते हैं जिसके द्वारा वह अपने उपास्यदेवका भजन कर सके। परन्तु साथ ही यह भी बतला देते हैं कि तुम्हें जिन भगवान्की उपासना बतलायी गयी है, एकमात्र भगवान् ये ही हैं, ये ही भिन्न-भिन्न नाम-रूपोंसे भिन्न-भिन्न देश, काल, पात्रमें पूजित होते हैं। कोई भी स्वरूप तत्त्वत: उनसे भिन्न नहीं है; जब भिन्न ही नहीं, तब छोटे-बड़ेका तो सवाल ही नहीं रह जाता। तुम अपने उपास्यरूपको पूजते रहो, परन्तु दूसरेके उपास्यदेवसे द्वेष न करो, उसे नीचा न समझो; ऐसा करोगे तो तुम अपने ही उपास्यदेवसे द्वेष करोगे और नीचा समझोगे। क्योंकि तुम्हारे उपास्यदेव भगवान् ही तो दूसरे लोगोंके द्वारा दूसरे रूपोंमें पूजित होते हैं। यदि तुम यह मान बैठोगे कि दूसरोंके उपास्यदेव भगवान् कोई दूसरे हैं तो ऐसा करके तुम अपने ही भगवान्की एक सीमा बाँधकर उसे छोटा और अनेकमेंसे एक बना दोगे। फिर वह परात्पर नहीं रहेगा; लोकपालोंकी भाँति एक देवता-विशेष रह जायगा। और ऐसे ‘अल्प’ और ‘सीमाबद्ध’ भगवान्से तुमको असीम भूमाकी प्राप्ति नहीं होगी। तुम अपने ही दोषसे आप परात्पर परमेश्वरके दर्शनसे वंचित रह जाओगे। इसलिये अपने ही इष्टमें अनन्यभाव रखो, परन्तु दूसरेके इष्टोंको अपने ही इष्टका रूपान्तर समझकर उन सभीका सम्मान करो। दूसरे सभी स्वरूपोंको अपने इष्टके ही विभिन्न स्वरूप मानना अनन्यता है। इसके विपरीत करना तो ‘अन्य’ को आश्रय देना है; जो अनन्य भक्तके लिये व्यभिचार है।
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सुना गया है कि कुछ भावुक लोग अनन्यताके नामपर ऐसा प्रचार करते हैं कि रामके भक्त कृष्णका नाम न लें और कृष्णके भक्त रामका नाम न लें। लेंगे तो उन्हें पाप होगा।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥
—इस उपनिषदुक्त मन्त्रका भी पूरा उच्चारण न करें। ‘शिव’ की समझसे ऐसा प्रचार करना ही अनाचार या पाप है। शास्त्र तो कहते हैं—एक ही भगवान्के सब नाम हैं। नामापराधमें शिव-विष्णुके नामोंमें भी भेद मानना एक अपराध माना गया है। ‘शिवस्य हृदयं विष्णुर्विष्णोश्च हृदयं शिव:’ यह शास्त्र-वचन प्रसिद्ध है। जब शिव-विष्णुमें भेद मानना भी अपराध है, तब भक्त विष्णु, हरि, राम, कृष्ण और नारायणमें तत्त्वत: भेद मानकर एक-दूसरेके नाम-जपमें अपराध बतलावें और साधकोंके मनोंमें भगवान्के नित्यसत्य पवित्र और एकके ही अनेक रूप बने हुए स्वरूपों और नामोंमें भेदबुद्धि उत्पन्न करें, इससे बढ़कर भगवदपराध और क्या हो सकता है?
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‘शिव’ सबसे बड़ी नम्रताके साथ—परन्तु साथ ही जोर देकर यह कहता है कि ऐसा मानना छोड़ दो। तुम्हें कोई भड़कावे—सन्देहमें डाले तो उसके वचनोंपर विश्वास न करो। भगवान्को एक ही मानकर श्रद्धा-विश्वासके साथ भगवान्का नाम-कीर्तन करते रहो। तुम्हारा कल्याण ही होगा।