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सन्तकी सेवा

मनुष्य-जीवनका अमोलक समय व्यर्थ बीता जा रहा है। मौतके मुँहमें बैठे हो, जब मौत दबोच डालेगी, फिर तुम कुछ भी नहीं कर सकोगे। जिस धन, मान, परिवार, विद्या, यश, प्रभुत्व आदिके भरोसे आज गर्वमें फूल रहे हो, उनमेंसे कोई भी उस समय तुम्हारी जरा भी मदद नहीं करेंगे, उन्हें हाथसे जाते देखकर तुम रोओगे, उनकी ओर निराश नेत्रोंसे तुम ताकते रह जाओगे! पर हाय! निरुपाय हो जाओगे—न तुम उन्हें अपने किसी काममें बरत सकोगे, न वे ही तुम्हारी सेवा-सहायता करेंगे! उस समय समझोगे, हमने बड़ी गलती की; बड़े सौभाग्यसे, बहुत अरसेके बाद भगवत्कृपासे मिले हुए मनुष्यशरीरको हमने बेकाम खो दिया। पछताओगे—रोओगे, परन्तु ‘अब पछिताये का बनै जब चिड़िया चुग गई खेत!’

इसलिये सावधान हो जाओ। अपने मनुष्यत्वको सँभालो। तुम्हारी मनुष्यता इसीमें है कि तुम भगवान‍्से प्रेम करना सीख लो। सन्तोंकी सीख मानकर उनकी आज्ञाका पालन करो। उनके बतलाये रास्तेपर चलकर उन-जैसे ही बननेका जतन करो। याद रखो—यों करोगे तो तुम्हारा जीवन सफल हो जायगा। तुमपर भगवत्कृपाकी वर्षा होगी। तुम्हारे सारे पाप-सन्ताप जल जायँगे। तुम्हारा हृदय आनन्द और शान्तिके सुधासागरमें डूब जायगा। तुम्हें भगवत्प्रेमकी प्राप्ति होगी। तुम कृतार्थ हो जाओगे।

परन्तु याद रहे, केवल सन्तोंकी बाहरी नकलसे कुछ भी नहीं बनेगा। आजकल लोग या तो सन्तोंकी ओर कोई नजर ही नहीं डालते या उनके मनमें सन्त कोई चीज ही नहीं हैं। और जो कुछ लोग सन्तोंकी ओर आकर्षित होते हैं, उनमें ज्यादातर ऐसे ही होते हैं जो सन्तोंके गुणोंपर, उनके भगवत्प्रेमपर, उनकी ऊँची आध्यात्मिक स्थितिपर नहीं रीझते, इन बातोंको वे प्राय: जानते ही नहीं। वे रीझते हैं सन्तके मान-सम्मानपर, उसकी पूजा-प्रतिष्ठापर, उसके चमत्कारोंपर, उसके बाहरी दिखावेपर और स्वयं भी वैसा ही बननेकी चेष्टा करते हैं। मान-सम्मान, पूजा-प्रतिष्ठा और यश-कीर्तिका मोह उन्हें आ घेरता है और मोहग्रस्त वे इनकी प्राप्तिके लिये अपनेमें चमत्कारोंको लानेकी चेष्टा करते हैं। योगका अभ्यास किये बिना योगविभूतियाँ मिलती नहीं, तब मिथ्या चमत्कारोंका स्वाँग रचते हैं, स्वयं डूबते हैं, सन्तके नाम और वेषपर कलंक लगाते हैं और सेवकोंके मनोंमें अश्रद्धा उत्पन्न करके उन्हें पुण्यपथसे विचलित करते हैं। योग-विभूति तो मिले कैसे? योगके आठ अंगोंमें पहले दो अंग हैं—यम और नियम। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह—यम और शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान नियम—ये दोनों योगरूपी महलकी नींव हैं। जैसे बिना नींवके महल नहीं खड़ा हो सकता, वैसे ही बिना यम-नियमके योगसिद्धि नहीं हो सकती। इसीसे आजकल योगी बहुत मिलते हैं परन्तु सच्चे योगसिद्ध पुरुष प्राय: नहीं मिलते। इसलिये मान-सम्मान आदि पानेके उद्देश्यसे सन्तकी झूठी नकल मत करो। सच्ची नकल करो, उसके आचरणोंका अनुसरण करो, सन्त बननेके लिये। सन्त कहलानेके लिये नहीं।

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सन्तोंकी लीला बड़ी विचित्र है, उनकी महिमा कौन गा सकता है? जो परम तत्त्व अनादि है, एक है, सर्वव्यापी है, सर्वाधार, सर्वनियन्ता और सर्वमय है, जिसके अस्तित्वसे सबका अस्तित्व है, जिसके स्वत:सिद्ध प्रमाणसे सबका प्रमाण है, जिसकी चेतनासे सबमें चेतनत्व है, जिसका आनन्द ही सबमें लहरा रहा है। जो इस अस्तित्व, प्रमाण, चेतना, आनन्द आदिसे पृथक् नहीं है, परन्तु जो स्वयं सत् है, प्रमाणस्वरूप चेतन और आनन्दरूप है। जिसकी ऐसी व्याख्या भी उसके एक ही अंगका वर्णन करती है। जो वर्णनातीत है, कल्पनातीत है, उस परम सत् में जिसकी नित्य अचल अभेद-प्रतिष्ठा है, वही सत् है और ऐसा सत् ही सन्त है।

परन्तु सन्तका स्वरूप-वर्णन करना उसको अपने स्थानसे च्युत करनेकी चेष्टा करना है; अवश्य ही वह कभी च्युत होता नहीं; क्योंकि वह अच्युतमें अचलप्रतिष्ठ है तथापि अपनी बुद्धिसे उसकी माप-तौल करने जाना है लड़कपन ही। हाँ, यदि लड़कपन सरल हृदयका सचमुच लड़कपन ही हो तो इसमें भी बड़ा लाभ है। बुरी नीयतको छोड़कर अन्य किसी भी हेतुसे सन्तका स्मरण-चिन्तन करना लाभदायक ही होता है; क्योंकि सन्तोंका संग अमोघ है।

बस, तुम तो सन्तकी सेवा करो, सन्तकी आज्ञाका पालन करो, सन्तको तौलनेकी चेष्टा छोड़ दो। सन्त तुम्हारी तुलापर तुलनेवाले पदार्थ नहीं हैं। श्रद्धा-भक्ति करके उनकी कृपा प्राप्त करो, तब वे तुम्हें अपना कुछ रहस्य बतलावेंगे। तुम उन्हें बहुत ही थोड़े अंशमें भी जान लोगे तो चकित हो जाओगे। जिन बातोंको तुम असम्भव मानते हो, जो तुम्हारी धारणामें नहीं आतीं, जो तुम्हारी कल्पनासे अतीत हैं, सन्त वैसी एक नहीं, अनेक बातोंका अनुभव करते हैं। उनका प्रत्यक्ष करते हैं। उन्हें काममें लाते हैं। अविश्वासी और अश्रद्धालु अथवा अज्ञानी लोग चाहे इस बातको न मानें परन्तु किसीके मानने न माननेसे सन्तको क्या मतलब! वे क्यों किसीको मनवाने लगे? कहने ही क्यों लगे उनकी है, न कि मोहमें फँसी दुनियाके प्रमाणपत्रसे! कोई भी संसारका प्रमाण-पत्र उनकी अपनी मौजसे मतलब सचाईके लिये प्रमाण नहीं है और कोई भी प्रमाणपत्र उनकी स्थितिको बतला नहीं सकता। जगत‍्के प्रमाणोंका—सर्टिफिकेटोंका आसरा वही देखते हैं जो सन्त नहीं हैं, पर सन्तका बाना धारण कर जगत‍्से पूजा-प्रतिष्ठा चाहते हैं!

सन्त ब्रह्म हैं, ब्रह्मस्थित हैं, ब्रह्मज्ञानी हैं, ब्रह्मपरायण हैं, ब्रह्ममय हैं। सन्त परमात्माके आश्रय हैं, परमात्मा हैं, परमात्माके स्वरूप हैं, परमात्माके प्यारे हैं, परमात्माके पुत्र हैं, परमात्माके शिष्य हैं और परमात्माके आश्रित हैं। सन्त भगवान‍्की दिव्य नित्यलीलामें सहायक हैं, नित्यलीलाके नट हैं, लीलाके साधन हैं, लीलाके यन्त्र हैं, लीला हैं और लीलामयके हृदय हैं। वे सब कुछ हैं। अन्तर्जगत्, कारणजगत् सबमें उनका प्रवेश है; और वे कारणजगत‍्के भी परे हैं। यह याद रहे—यह सन्तकी बात है, सन्त नामधारीकी नहीं। सन्त वही है, जो ऐसा है।

ऐसे सन्तको पानेकी इच्छा करो। भगवान‍्से प्रार्थना करो। भगवान‍्की दयासे ही ऐसे सन्त मिलते हैं। सन्तोंका मिलन सन्तोंकी दृष्टिमें भगवान‍्के मिलनसे भी बढ़कर है। क्योंकि भगवान‍्के रंगमहलकी बातें वे माहली सन्त ही जानते हैं और उन्हींसे भगवान‍्के रहस्यका पता लगता है। इसीलिये सन्तलोग भगवान‍्से प्रार्थना करके भी सन्तका मिलन चाहते हैं और ऐसे सन्तमिलनको तरसनेवाले प्रेमीजनोंकी प्रेमपिपासाको और भी बढ़ानेके लिये—और भी अनन्य बनानेके लिये भगवान् अपने रसज्ञ सन्तोंको उनसे मिला देते हैं। वे परस्पर जब मिलते हैं और जब उनकी घुट-घुटकर छनती है, तब भगवान‍्को भी बड़ा मजा आता है। वे छिप-छिपकर अपनी ही ऐसी बातें—जिनको अपने मुँहसे कह नहीं सकते, परन्तु प्रकट भी करना चाहते हैं—उन प्रेमियोंको करते देखकर और भी खुल जाते हैं। प्रकट होकर, अपना पूरा हृदय खोलकर, सारे व्यवधानोंको मिटाकर उन्हें गले लगा लेते हैं। भगवान् सन्त बन जाते हैं और सन्त भगवान्! यह आनन्द लूटना हो तो बस, भगवान‍्से सन्तमिलनकी प्रार्थना करो!

ऐसे सन्तकी प्राप्तिसे तुम्हारे हृदयमें कल्याणका सागर उमड़ उठेगा। तुम उसमें अवगाहनकर, अनन्त आनन्दमें घुल-मिलकर आनन्द बन जाओगे। आनन्द फिर आनन्दसागर होगा—तुम्हारा हृदय आनन्द और कल्याणका सागर बन जायगा। उसमें जो कोई डुबकी लगायेगा, जो कोई उसमेंसे एक चुल्लू भी पी पायेगा, वही आनन्द और कल्याणरूप हो जायगा।

प्राप्ति तो दूर रही, ऐसे सन्तकी स्मृति ही पाप-ताप और अज्ञान-अहंकारका नाश करनेवाली है।

ऐसे सन्त संसारमें थोड़े हैं, पर वे थोड़े भी बहुत हैं। उनका अस्तित्व ही जगत‍्में मंगल और कल्याण बनाये हुए है। पाखण्डियोंका उन सन्तोंपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता; न पाखण्डी उनमें मिल ही सकते हैं। न पहचाननेवाले लोग काँचको हीरा भले ही समझ लें, परन्तु पहचाननेवालोंसे काँच-हीरेका भेद छिपा नहीं रहता! इतना होनेपर भी सन्तकी पहचान भगवत्कृपाप्राप्त सन्त ही कर सकते हैं। इतर लोग तो दम्भियोंके फन्देमें फँस ही जाते हैं। परन्तु जो सचमुच सन्तोंके आश्रयमें रहना चाहते हैं; उनको छिपे सन्त पथभ्रष्ट होनेसे बचाते भी हैं। सच्चेकी रक्षा भगवान् भी करते हैं। इसलिये सन्तदर्शनके सच्चे अभिलाषी बनो!

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कदाचित् मनसे ही नकली सन्त बन रहे हो तो इस धोखेकी टट्टीको दूर फेंक दो। इसमें तुम्हारा और जगत् का—दोनोंका मंगल होगा। याद रखो—परमात्माको धोखा देनेकी चेष्टा करनेवाला जितना धोखा खाता है, उतना धोखा प्रत्यक्ष पापीको नहीं खाना पड़ता।

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सच्चे सन्तोंके चरणोंमें नमस्कार करो, उनका ध्यान करो, उनकी वाणीको वेदवाक्यसे बढ़कर समझो, उनके चरणरजको अपनी अमूल्य सम्पत्ति समझो, उनकी आज्ञाका प्राणपणसे पालन करो, उनकी इच्छाका अनुसरण करो, उनके इशारेपर उठो-बैठो। देखो, तुम्हारा कितना जल्दी मंगल होता है।

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