सबके साथ आत्मवत् व्यवहार करो
सबपर दया करो, सबके दु:खोंको अपना दु:ख समझो, सबके सुखी होनेमें ही सुखका अनुभव करो, परन्तु ममता और अहंकारसे सदा बचे रहो!
••••
शरीरके किसी भी अंगमें सुख-दु:खकी प्राप्ति होनेपर जैसे उसका समान भावसे अनुभव होता है, वैसे ही प्राणिमात्रके सुख-दु:खकी प्राप्तिमें समता रखो, अपनेको समष्टिमें मिला दो।
••••
अपने इस शरीरमें पर-भावना (दूसरेका है ऐसी भावना) करो और दूसरोंमें आत्मभावना करो, तभी तुम दूसरोंके सुख-दु:खमें सुखी-दु:खी हो सकोगे और तभी तुम उनके लिये अपना सर्वस्व त्याग सकोगे।
••••
जैसे विषयी पुरुष अपनी आत्माके लिये (वह देहको ही आत्मा मानता है इसलिये कहा जा सकता है कि शरीर-सुखके लिये) माता, बन्धु, स्त्री, पुत्र, धर्म और ईश्वरतकका त्याग कर देता है, वैसे ही तुम विश्वरूप ईश्वर और विश्वात्माकी सेवारूप धर्मके लिये आनन्दसे अपने शरीर तथा शरीरसम्बन्धी समस्त सुखोंका सुखपूर्वक त्याग कर दो। विश्वात्माको ही अपनी आत्मा और विश्वको ही अपना देह समझो, परन्तु सावधान! ममता और अहंकार यहाँ भी न आने पावें! तुम जो कुछ करो, सच्चे प्रेमसे करो और वह प्रेम स्वार्थ-प्रेरित न होकर हेतुरहित हो, परमात्मासे प्रेरित हो। परमात्मासे प्रेरित विश्वप्रेम ही तुम्हारा एकमात्र स्वार्थ बन जाय।
••••
सबके साथ आत्मवत् व्यवहार करो, किसीके द्वारा अपना बुरा हो जानेपर भी उसका बुरा मत चाहो। दाँतोंसे कभी जीभ कट जाय या अपने ही दाहिने पैरके जूतेकी ठोकर बायें पैरमें लगकर खून आने लगे तो क्या कोई बदलेमें दाँतोंको और पैरको कुछ भी चोट पहुँचाना चाहता है या उनपर नाराज होता है? यह जानता है कि जीभ और दाँत अथवा दाहिना-बायाँ दोनों पैर मेरे ही हैं। जीभ और बायें पैरको कष्ट हुआ सो तो हुआ ही, अब दाँत और दाहिने पैरको कोई दण्ड देकर कष्ट क्यों पहुँचाया जाय? क्योंकि वस्तुत: कष्ट तो सब मुझको ही होता है चाहे वह किसी भी अंगमें हो; इसी प्रकार तुम जब सबमें अपने ही आत्माको देखोगे, तब किसी भी प्राणीका—जो तुम्हारे साथ बुरा बर्ताव करता है, उसका भी बुरा तुमसे नहीं हो सकेगा। हाँ, जैसे दाँतोंसे एक बार जीभके कटनेपर या दाहिने पैरसे ठोकर लगनेपर, उन्हें कुछ भी बदलेमें कष्ट न देकर फिर ऐसा न हो इसके लिये मनुष्य सावधानीके साथ ऐसा प्रयत्न करता है कि जिसमें पुन: दाँतोंसे जीभको और पैरसे दूसरे पैरको चोट न पहुँचे, इसी प्रकार अपना बुरा करनेवाले दूसरोंको कुछ भी नुकसान न पहुँचानेकी तनिक भी भावना न कर उन्हें शुद्ध व्यवहारके द्वारा सावधान जरूर करते रहो, जिससे पुन: वैसा न होने पावे।
••••
याद रखो—बदला लेनेकी भावना परायेमें ही होती है; अपनेमें नहीं होती। जब तुम सारे विश्वमें आत्मभावना कर लोगे तब तुम्हारे अन्दर बदला लेनेकी भावना रहेगी ही नहीं। हाँ, जब किसी अंगमें कोई रोग होकर उसमें सड़न पैदा हो जाती है और जब उसके द्वारा सारे शरीरमें जहर फैलनेकी सम्भावना होती है तब जैसे उसके अन्दरका दूषित मवाद निकालकर उसे शुद्ध नीरोग और स्वस्थ बनानेके लिये ऑपरेशनकी जरूरत पड़ती है, वैसे ही कभी-कभी तुम्हें भी विश्वकी विशुद्ध हित-कामनासे उसके किसी अंगमें ऑपरेशन करनेकी जरूरत पड़ सकती है। परन्तु इस ऑपरेशनमें तुम्हारा वही भाव हो जो अपने अंगको कटानेमें होता है। अवश्य ही शुद्ध व्यवहार होनेपर वैसी जरूरत भी बहुत कम ही हुआ करती है!