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तुम कौन हो?

सोचो तुम कौन हो! जिस शरीरको तुम ‘मैं’ समझते हो और कभी-कभी कहते भी हो, ‘मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ, मैं बीमार हो गया, मैं स्वस्थ हूँ आदि, वह शरीर ही क्या तुम हो? याद करो—लड़कपनमें यह शरीर कैसा था; जवानीमें इसका क्या स्वरूप था और अब बुढ़ापेमें इसका सारा ही रंग-रूप बदल गया। जिसने लड़कपनमें इसको देखा था, वह तो अब इसे पहचान भी नहीं सकता। कहाँ वह नन्हें-नन्हें कोमल हाथ-पैर, मोहन मुखड़ा, दूध-से दाँत, भौंरोंके रंग-से काले-घुँघराले बाल और कहाँ आजका यह कुबड़ा शरीर, झुर्रियाँ पड़ी हुई चमड़ी, सफेद केश, चिपका मुँह, डरावनी सूरत। वह शरीर तो मर ही गया, उसका एक भी निशान अब नहीं है; ऐसे शरीर ही क्या तुम हो? नहीं, तुम यह नहीं हो, तुम तो वह हो जो इस शरीरको बाल, युवा और वृद्ध तीनों अवस्थाओंमें समानरूपसे जानता है। शरीर बदल गया परन्तु तुम नहीं बदले। शरीर जड है, तुम चेतन हो; शरीर बढ़ता है, तुम नहीं बढ़ते, शरीर क्षय होता है, तुम जैसे-के-तैसे हो; शरीर पैदा होता है और नष्ट हो जाता है, तुम सदा ही रहते हो। फिर तुम क्यों अपनेको शरीर समझते हो और क्यों शरीरके मान-अपमान, सुख-दु:ख और जन्म-मरणमें अपना अपमान, सुख-दु:ख और जन्म-मरण मानते हो; क्यों सचमुच यह तुम्हारी भूल है न? अच्छा बताओ, क्या तुम ‘नाम’ हो? नामकी पुकार सुनते ही सोतेमें बोल उठते हो, नामको कोई गाली देता है तो उसे सुनकर मारे शोकके रो पड़ते हो, मारे क्रोधके जलने लगते हो। जब तुम माँके गर्भमें थे, उस समय बताओ तुम्हारा क्या नाम था? जब तुम जन्मे उस समय क्या तुम्हारा यह नाम था, जिस नामको आज तुम अपना स्वरूप समझते हो; नहीं था! क्या मरनेके बाद जहाँ जाओगे, वहाँ यही नाम रहेगा? नहीं! फिर क्यों यह समझते हो कि मैं ‘रामप्रसाद’ हूँ? यह तो रखा हुआ कल्पित नाम है जो अनित्य है, चाहे जब बदला जा सकता है। फिर इस नामकी निन्दा-स्तुतिमें तुम क्यों अपनी निन्दा-स्तुति समझते हो और क्यों दु:ख-सुखका अनुभव करते हो? यह भी तुम्हारा भ्रम ही है न?

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अच्छा, क्या तुम आँख, कान, नाक, जीभ, चमड़ी, पैर आदि इन्द्रियोंसे अपनेको कोई मानते हो? यदि ऐसा है तो बताओ आँखें फूट जानेसे, नाक कट जानेसे, कान बहरे हो जानेसे या हाथ-पैर टूट जानेसे क्या तुम मर जाते हो? नहीं। तो फिर तुम इन्द्रियाँ कैसे हुए? तुम तो इनको, इनकी चेष्टाओंको और इनकी अच्छी-बुरी हालतको देखने और जाननेवाले हो; फिर इन्द्रियोंको अपना स्वरूप मानना तुम्हारी गलती नहीं तो और क्या है?

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ठीक, तुम अपनेको मन बतलाओगे! पर जरा सोचकर कहो, मनमें जब नाना प्रकारके विचार उठते हैं, तब तुम उनको जानते हो या नहीं? नहीं जानते, तो कहते कैसे हो कि ‘मेरे मनमें अभी यह विचार आया था’ और जानते हो तो यह निश्चय समझो कि जाननेवाला उस जानी हुई वस्तुसे अलग होता है। सुषुप्तिके समय मनका पता नहीं रहता, परन्तु तुम तो वहाँ रहते ही हो; क्योंकि तुम जागकर कहते हो कि मैं सुखसे सोया था। मन जहाँ-तहाँ भटकता है, तुम अपनी जगह अचल बैठे सदा उसकी हर एक चालको देखा करते हो, उसकी प्रत्येक बातको जानते हो, इसलिये तुम मन नहीं हो, तुम तो उसके द्रष्टा हो। फिर अपनेको मन मानना तुम्हारी भ्रान्ति ही तो है।

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तुम बुद्धि भी नहीं हो; मनकी चालकी तरह बुद्धिकी भी प्रत्येक स्थितिको, उसके हर एक कार्यको और विकारको, उसकी नीचता-उच्चताको, अपवित्रता-पवित्रताको और उसके अच्छे-बुरे निर्णयको तुम जानते हो। उसमें ये सब बातें आती-जाती, बढ़ती-घटती रहती हैं, पर तुम सदा उसकी सारी हरकतोंको देखा ही करते हो। इसीसे कहा करते हो, ‘मेरी बुद्धि उस समय बिगड़ गयी थी। सत्संगके प्रभावसे मेरी बुद्धिकी मलिनता जाती रही।’ तब फिर तुम अपनेको बुद्धिका द्रष्टा न मानकर बुद्धि ही कैसे मानते हो? यह तुम्हारा भ्रम ही है!

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तुम अहंकार भी नहीं हो—आत्मामें स्थित होकर तुम यदि अपनेको ‘मैं’ कहते हो तब तो ठीक था परन्तु तुम तो देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदिके समूहमें ‘मैं-बुद्धि’ करके अहंकार करते हो, वस्तुत: इस अहंकारके भी तुम द्रष्टा ही हो। इसीसे कहा करते हो ‘मैंने भूलसे अहंकारके वश ऐसा कह दिया था।’

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इसी प्रकार तुम प्राण भी नहीं हो, प्राणोंकी प्रत्येक चालके द्रष्टा हो, प्राणोंकी प्रत्येक क्रिया और चेष्टामें जीवन देनेवाले हो। प्राण तुम्हारे आश्रित हैं। तुम प्राणोंके आधार हो—जीवन हो। प्राण नहीं हो! क्यों अब समझ गये न, कि तुम न देह हो, न नाम हो, न इन्द्रियाँ हो और न मन, बुद्धि और अहंकार हो और न प्राण हो। तुम शुद्ध, बुद्ध, नित्य, चेतन, आनन्दमय आत्मा हो; देहके नाशमें तुम्हारा नाश नहीं होता और देहके बननेमें तुम नये बनते नहीं। नामका महत्त्व और हीनत्व तुम्हें महान् और हीन नहीं बना सकता। तुम तो सदा निर्विकार हो! तुम्हें न कोई गाली दे सकता है, न तुम्हें मार सकता है और न तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट कर सकता है। तुम अपने स्वरूपमें सदा स्थिर अचल प्रतिष्ठित हो। इस बातको समझो और जगत‍्के द्वन्द्वोंसे अविचल रहो। यह स्वरूप-स्थिति ही तुम्हारी असली स्थिति है। इसको पा लेनेमें ही; पा लेना क्या, अपनी इस नित्य स्वरूप-स्थितिको जान लेनेमें ही तुम्हारी सफलता है। इसे जान लोगे तो तुम महात्मा बन जाओगे, नाम, रूप और इन्द्रिय, मन आदिको आत्मा मानना ही अधमत्व है और आत्माको अपने महत्-स्वरूपमें अविचल देखना ही महात्मापन है।

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यह महात्मापन केवल ऊपर लिखी पंक्तियोंके लिखने-पढ़ने या कहना-सुनना जान लेनेसे ही नहीं प्राप्त होता। रटन्त तो तोता भी करता है। वेदान्तके सभी पढ़नेवाले इन बातोंको पढ़े होते हैं परन्तु इससे क्या होता है? असली जानना तो यह है जब शरीर, मन आदिसे अहंता-ममता सर्वथा हट जाय और सचमुच ही इनके हानि-लाभमें आत्माको कुछ भी हानि-लाभका अनुभव न हो और उसकी स्वरूप-स्थिति नित्य अच्युत रहे।

जगत‍्में लोग कहना सीख लेते हैं और लोगोंको सिखाने लगते हैं, परन्तु स्वयं वैसा करना, वैसा बनना नहीं सीखते। बने हुए कहलाना चाहते हैं, महात्मा बनकर पुजवाना चाहते हैं, परन्तु वस्तुत: महात्मापन स्वीकार नहीं करना चाहते। इसीसे किसी मतविशेषके आग्रही बनकर कोरे उपदेशक रह जाते हैं। सुख-दु:खकी लहरोंमें बहनेवाले, अशान्तचित्त, माया-मोहित साधनहीन प्राणी रह जाते हैं। जिस समय शरीर, मन, वाणीसे सर्वथा पृथक् आत्माका स्वरूप निर्देश करते हुए उपदेश करते हो, उसी समय गहराईसे देखोगे तो पता चलेगा कि तुम्हारी स्थिति मनमें ही है, तुम उन्हींके सुख-दु:ख, मान-अपमानको अपना सुख-दु:ख, मान-अपमान समझकर हर्ष-शोककी मानसिक तरंगोंमें डूबते-उतराते रहते हो। यह दशा शोचनीय है। इससे अपनेको बचाओ, इससे निकलकर ऊपर उठो, बस, यही पुरुषार्थ है, यही साधन है, इसीमें लगे रहो! सच्चे साधक बनो—कहनेमात्रके सिद्ध महात्मा नहीं!

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