Hindu text bookगीता गंगा
होम > भगवान् की पूजा के पुष्प > सच्चिदानन्द

सच्चिदानन्द

निश्चय करो—मानो सत्, चित् और आनन्दका महान् समुद्र उमड़ा चला आ रहा है और तुम उसमें डूब गये हो। इतने गहरे डूबे हो कि तुम भी सत्, चित्, आनन्दरूप ही बन गये हो। सत्, चित्, आनन्दको छोड़कर और कुछ भी नहीं रहा। अब कल्पनाको छोड़ दो और इसी स्थितिमें, जबतक कोई दूसरी स्फुरणा न हो तबतक मस्त बने रहो। जब दूसरी स्फुरणा हो, तब उसे महासमुद्रकी एक लहर समझकर पुन: उसीमें मिला दो।

निश्चय करो—जो कुछ भी पदार्थ तुम्हें मनसे या इन्द्रियोंसे दिखलायी पड़ते हैं सब कल्पित हैं, बिना हुए ही कल्पनाकी दृष्टिसे दीखते हैं। वस्तुत: कुछ भी नहीं है। इसके बाद निश्चय करो कि स्थूल शरीर नहीं है, फिर निश्चय करो कि इन्द्रियाँ नहीं हैं। तदनन्तर मन-बुद्धिका भी निश्चयके द्वारा अभाव कर दो। जब इतना हो जाय तब इस निश्चय करनेवाली वृत्तिको भी छोड़ दो। जिस चित्तवृत्तिकी सहायतासे सबका अभाव किया, उस चित्तवृत्तिका भी अभाव कर दो। परन्तु याद रखो—जबतक किसी भी वृत्तिका त्याग किया जाता है, तबतक कोई-न-कोई वृत्ति रहती ही है, यह शेष रही हुई वृत्ति भी जब अपने-आप शान्त हो जाय, तब वह वास्तविक सबके त्यागकी स्थिति होती है। यही परमात्माका स्वरूप है। सबके सर्वथा मिट जानेपर जो बच रहता है, जिसको मिटानेवाला कोई नहीं रहता। वही सत्-स्वरूप है।

••••

जैसे एक ही महान् विराट् आकाशमें असंख्य नगर, गाँव, घर, कोठरियाँ बने हुए हैं और उन सबके अन्दर भी वही आकाश अविच्छिन्नरूपसे व्याप्त है, इसी प्रकार एक ही परमात्मसत्तामें अनन्त-कोटि ब्रह्माण्ड बसे हुए हैं और सब ब्रह्माण्डोंमें वही एक परमात्मसत्ता व्याप्त है। ऐसा समझकर यह निश्चय करो कि जैसे कोठरीके अन्दरवाला आकाश महान् विराट् आकाशसे भिन्न नहीं है, वैसे ही तुम भी परमात्मासे भिन्न नहीं हो। जैसे परमात्माकी दृष्टिसे सब कुछ परमात्मामें ही है, इसी प्रकार तुम भी व्यष्टिमेंसे अपने अहंकारको निकालकर सर्वाधार और सर्वव्यापी परमात्मामें स्थिर करके देखो—समस्त संसार तुम्हारे ही अन्दर बसा है और तुम सबमें समानरूपसे व्याप्त हो। ऐसा निश्चय हो जानेपर देखोगे कि तुम्हारा यह शरीर भी तुम्हारी ही विराट् सत्ताके किसी एक क्षुद्र अंशमें स्थित है और इस क्षुद्र अंशमें स्थित क्षुद्रतम शरीरके अन्दर भी तुम ही हो। वस्तुत: शरीर भी तुमसे भिन्न नहीं। क्योंकि जैसे आकाशमें बने हुए घरमें दीवालोंके अन्दर आकाश व्याप्त है और दीवाल भी आकाशमें आकाशसे पैदा होनेवाले चार भूतोंके सहित आकाशसे ही बनी है वैसे ही तुम्हारे अन्दर बने हुए इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमें तुम्हीं व्याप्त हो और यह ब्रह्माण्ड भी तुम्हारी सत्तासे क्रियाशील बनी हुई और तुम्हारे ही संकल्पसे पैदा हुई प्रकृतिके साथ तुम्हारी सत्तासे बना है। इस प्रकार निश्चय करो—सब कुछ आत्मा समझकर आत्ममय बन जाओ।

••••

जैसे स्वप्नमें स्वप्नके दृश्य, उनको देखनेवाला और देखना—तीनों तुमसे भिन्न और कुछ भी नहीं है, तुम्हीं देखनेवाले हो, तुम्हीं दीखनेवाली चीजें हो और तुम्हीं दर्शन हो। इसी प्रकार समस्त ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्डके द्रष्टा और ब्रह्माण्डका दर्शन सब एक परमात्मा ही है और उस परमात्मासे तुम सर्वथा अभिन्न हो। ऐसा निश्चय करके अपनेको परमात्ममय बना लो।

••••

निश्चय करो—तुम आनन्दमय हो, तुम्हारे आनन्दमें कभी कमी हो ही नहीं सकती। किसीकी ताकत नहीं जो तुम्हारे आनन्दमें बाधा दे सके और तुम्हारे आनन्दको मिटा सके। निश्चय करो—तुम्हारी अखण्ड सत्ता है, किसीकी शक्ति नहीं जो तुम्हारी सत्ताको हिला सके। मौत तुम्हें मार नहीं सकती। क्योंकि मौत भी तुम्हारी ही सत्तासे सत्तावान् है। तुम्हारी सत्ता अखण्ड, अनन्त है, अमर है, सनातन है, देहके नाशसे तुम्हारा कभी नाश नहीं होता। निश्चय करो—तुम चेतन हो, नित्य चेतन हो। तुम्हारी चेतनतामें कोई विघ्न उपस्थित नहीं कर सकता। तुम्हारी ही चेतनासे सबमें चेतना है। तुम्हारी यह चेतना अखण्ड और असीम है। निश्चय करो—तुम स्वतन्त्र हो। मायाका कोई भी कार्य तुम्हें बाँध नहीं सकता। कोई भी किसी भी कालमें तुम्हें परतन्त्र नहीं कर सकता। जेलकी काली कोठरीमें भी तुम सदा स्वतन्त्र हो। कोई भी दीवाल तुम्हारी स्वतन्त्रतामें—तुम्हारी मुक्तिमें बाधा नहीं डाल सकती। निश्चय करो—तुम स्वामी हो—बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ, शरीर सब तुम्हारे गुलाम हैं। तुम इन्हें वशमें कर सकते हो। तुमपर इनका कोई बल नहीं चल सकता। अपने बलको, अपने स्वरूपको भूल रहे हो, इसीसे अपनेको इन मन और इन्द्रियों आदिके वशमें मान रहे हो। अपने स्वरूपको सँभालो—बलको याद करो। फिर देखोगे तुम्हीं सबके स्वामी हो—सब तुम्हारे अनुचर हैं, आज्ञावाही चाकर हैं। इस प्रकार अपनेको आनन्दरूप, सत्तारूप, चेतनरूप, स्वतन्त्र और प्रभु समझो। वस्तुत: तुम्हारा आत्मस्वरूप ऐसा ही है। शरीर और मनसे कोई भी प्रभु, स्वतन्त्र, चेतन, सत् और आनन्दरूप नहीं है, उनसे ऐसा मानना तो अज्ञान और अहंकार है। और आत्मासे ऐसा न मानना अज्ञान है, आत्मस्वरूपकी उपलब्धि तो तब समझी जाती है कि ऐसी स्थिति हो जाय, मानने-न-माननेका प्रश्न ही न रह जाय। वस्तुत: तुम ऐसे ही हो।

अगला लेख  > दुनियाका सुधार और उद्धार