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सदा सन्तुष्ट रहो

जगत‍्की सम्पत्ति जितनी ही बढ़ेगी, उतनी ही अभावकी वृद्धि होगी। जिसके पास दस-बीस रुपये हैं, उसको सौ-पचासकी चाह होती है; परन्तु जिसके पास लाखों हैं, वह करोड़ोंकी चाह करता है। इसलिये सम्पत्ति बढ़ानेकी चाह करना प्रकारान्तरसे अभाव बढ़ानेकी चाह करना है। याद रखो—अधिक पानेसे तुम्हें सुख नहीं होगा, वरन् झंझट, कष्ट, तथा दु:ख बढ़ेंगे ही।

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अभिमानमें भले ही भरे रहो कि मेरे इतने गाँव और इतने महल हैं, परन्तु अपने बैठनेको जगह उतनी ही काममें आवेगी, जितनीमें शरीर रह सकता है। खाओगे भी उतना ही, जितना सदा खाते हो। हाँ, इतना जरूर है कि अधिक सुविधा होनेपर कुछ बढ़िया चीजें खा लोगे; परन्तु मेहनत न करनेके कारण उन्हें पचा न सकोगे, जिससे कुछ समयके बाद उतना खानेयोग्य भी नहीं रह जाओगे।

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यश, कीर्ति और सम्मान आदि अधिक बढ़ेंगे तो यह भय भी सदा जलाया करेगा कि कहीं अयश, अकीर्ति और अपमान न हो जाय। जितना बड़प्पन होगा—उतना ही गिरनेमें अधिक कष्ट होगा, जितने ऊँचे होओगे, नीचे गिरनेपर उतनी ही चोट अधिक लगेगी। इसलिये धन, मान, यश आदिके बढ़ानेकी चिन्ता छोड़कर भगवान‍्की चिन्ता करो जिससे तुम्हारा यथार्थ कल्याण हो।

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खूब समझ लो और इस बातपर विश्वास करो कि धनी, मानी, अधिकारारूढ़ और विषयोंसे अधिक सम्पन्न लोग सुखी नहीं हैं, उनके चित्तमें शान्ति नहीं है। उनकी परिस्थिति और भी भयानक है; क्योंकि उनके अभाव भी उतने ही अधिक बढ़े हुए हैं। यह निश्चय है कि जहाँ अभाव है, वहीं अशान्ति है और जहाँ अशान्ति है, वहीं दु:ख है।

संसारके हानि-लाभकी परवाह न करो। जो काम सामने आ जाय, यदि अन्तरात्मा उस कामको अच्छा बतावे तो अपनी जैसी बुद्धि हो, उसीके अनुसार शुद्धभावसे सबका कल्याण देखकर उसे करो, परन्तु यह कभी न भूलो कि यह सब खेल है। अनन्त महासागरकी लहरें हैं। तुम अपनेको सदा इनसे ऊँचेपर रखो। कार्य करो, परन्तु फँसकर नहीं, उसमें राग-द्वेष करके नहीं। आ गया सो कर लिया। फिर उससे कुछ भी मतलब नहीं। न आता तो भी कोई आवश्यकता नहीं थी।

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अपनेको सदा आनन्दमें डुबाये रखो—दु:खकी कल्पना ही तुम्हें दु:ख देती है। मान लो एक आदमी गाली देता है, तुम समझते हो मुझको गाली देता है इसलिये दु:खी होते हो, उसे बुरा समझते हो, उसपर द्वेष करते हो, उससे बदला लेना चाहते हो। परन्तु सोचो तो सही वह तुम्हें गालियाँ देता है या किसी जडपिण्डको लक्ष्य करके किसी कल्पित नामसे गालियाँ देता है। क्या ‘नाम’ और ‘शरीर’ तुम हो जो गालियाँ सुनकर रोष करते हो? तुम्हें कोई गाली दे ही नहीं सकता। तुम्हारा अपमान कभी हो ही नहीं सकता!

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यदि कोई ऐसी भाषामें गाली दे, जिसे तुम नहीं समझते तो तुम्हें गुस्सा नहीं आता। फिर क्यों नहीं तुम यह समझ लेते कि वह जिस भाषामें गाली देता है, उसका अर्थ दूसरा ही है। तुम उसे गाली ही क्यों समझते हो? गाली समझते हो तभी दु:ख होता है। आशीर्वाद समझो—अपने मनकी किसी अच्छी कल्पनाके अनुसार उसको शुभरूप दे दो तो तुम्हें दु:ख हो ही नहीं।

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सदा शान्त रहो, निर्विकार रहो, सम रहनेकी चेष्टा करो। जगत‍्के खेलसे अपनेको प्रभावित मत होने दो। खेलको खेल ही समझो। तुम सदा सुखी रहोगे। फिर न कुछ बढ़ानेकी इच्छा होगी और न घटनेपर दु:ख होगा।

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जो कुछ है, उसीमें सन्तुष्ट रहो और असली लक्ष्य श्रीपरमात्माको कभी न भूलो। याद रखो—यहाँकी बनने-बिगड़नेकी लीलासे तुम्हारा वास्तवमें कुछ भी नहीं बनता-बिगड़ता। फिर तुम विशेष बनाने जाकर व्यर्थ ही क्यों संकट मोल लेते हो।

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भगवान‍्को याद करो, भगवान‍्में प्रेम करो, भगवान‍्को जीवनका लक्ष्य बनाओ, भगवान‍्की ओर बढ़ो। तुम्हें फुरसत ही नहीं मिलनी चाहिये भगवान‍्के स्मरण, चिन्तन और भगवत्कार्यसे। जगत‍्का जो कुछ आवश्यक काम हो, जिसके किये बिना न चलता हो, उसे भी भगवान‍्का स्मरण करते हुए भगवान‍्का कार्य समझकर ही करो और सदा सभी अवस्थाओंमें सन्तुष्ट रहो। तृप्त रहो।

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