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सुख-शान्तिके भण्डार भगवान् हैं

संसारमें जो कुछ भी ऐश्वर्य, माधुर्य, सौन्दर्य, शक्ति, श्री, शौर्य, सुख, तेज, सम्पत्ति, स्नेह, प्रेम, अनुराग, भक्ति, ज्ञान, विज्ञान, रस, तत्त्व, गुण, माहात्म्य आदि देखते हो, सब वहींसे आता है जहाँ इनका अटूट भण्डार है। अनादिकालसे अबतक इस भण्डारमेंसे लगातार इन सारी वस्तुओंका वितरण हो रहा है और अनन्त कालतक होता रहेगा; परन्तु इस महान् वितरणसे उस भण्डारका एक तिलभर स्थान भी खाली न होगा। वह सदा पूर्ण, अनन्त और असीम ही रहेगा। जानते हो वह भण्डार कहाँ है और उसका क्या स्वरूप है? नहीं जानते; जानते होते तो भला उस अनन्त भण्डारको छोड़कर क्षुद्र और तुच्छ-सी चीजोंपर क्यों मरे फिरते?

वह भण्डार हैं भगवान्, और वे सभी जगह हैं; उनका महत्त्व और उनका तत्त्व जाननेकी चेष्टा करो; जरा-सी भी उनके महत्त्वकी झाँकी हो जायगी, उनके तत्त्वका ज्ञान हो जायगा, तो फिर तुम्हें दूसरी कोई चीज सुहायेगी ही नहीं। उनके सौन्दर्य-माधुर्यकी जरा-सी छाया भी कहीं दीख जायगी तो फिर जगत‍्का सारा सौन्दर्य-माधुर्य चित्तसे सदाके लिये हट जायगा।

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तुम जो उनका चिन्तन छोड़कर विषय-चिन्तन करते हो, एकमात्र उन्हें ही पानेकी कामना न रखकर विषयोंकी कामना करते हो, उन्हींके बलपर सर्वथा निर्भर न रहकर जगत‍्के जड-बलका आश्रय ग्रहण करना चाहते हो, उनके कृपाकणसे ही अपनेको परम धनी न मानकर दुनियाकी दिखावटी और क्षण-क्षणमें नाश होनेवाली धन-सम्पत्तिका मोह करते हो; उनके दासत्वका महान् पद पानेकी अनन्त कीर्तिका तिरस्कार कर दीवानी दुनियामें नाम कमाना चाहते हो और उनके नित्य-सान्निध्यमें रहनेपर भी अपनेको असहाय समझते हो, इससे यही सिद्ध होता है कि तुमने उनका महत्त्व और प्रभाव कुछ भी नहीं जाना!

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विश्वास करो और समझो कि वे सच्चिदानन्दघन हैं, नित्य हैं। परम पवित्र हैं, सब ईश्वरोंके ईश्वर हैं—परम प्रभु हैं; सबमें, सब जगह, सर्वदा और सर्वथा व्याप्त हैं, सारा उन्हींका पसारा है, वे तुम्हारे अपने हैं, तुम उनके निजजन हो, परम आत्मीय हो, वे नित्य तुम्हारे साथ—सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते—सदा ही रहते हैं, एक क्षणके लिये भी तुमसे अलग नहीं होते! उन्हें जानो, देखो और पहचानो! तुम्हारे सारे अभाव मिट जायँगे। तुम्हारे सब दु:खोंका सदाके लिये नाश हो जायगा। तुम्हें परम शान्ति मिल जायगी! फिर जगत‍्की कोई भी स्थिति—मृत्यु भी तुम्हें डरा न सकेगी! तुम नित्य निर्भर और सर्वथा निरामय हो जाओ।

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उन परम प्रियतम सच्चिदानन्दघन प्रभुको जानने, देखने और पहचाननेका सबसे पहला साधन है परम श्रद्धा। जिन अनुभवी महात्माओंने भगवान‍्को जाना, देखा और पहचाना है, उनके वचनोंपर श्रद्धा करो। शास्त्रोंने भगवान‍्को जानने, देखने और पहचाननेके जो साधन बतलाये हैं उनपर श्रद्धा करो। ज्यों-ज्यों तुम्हारी श्रद्धा बढ़ेगी, त्यों-ही-त्यों तुम्हें भगवान‍्का प्रकाश समीप आता हुआ दिखायी देगा। तुम अपने अन्दर एक प्रकारके आनन्द और शान्तिका अनुभव करोगे, जिससे साधन और भजनमें तुम्हारा मन अधिकाधिक लगता जायगा। और ज्यों-ज्यों भजन बढ़ेगा, त्यों-ही-त्यों तुम भगवान‍्को कुछ-कुछ जानने, देखने और पहचानने लगोगे। साधनकी जननी श्रद्धा है। श्रद्धा है तो सब कुछ है, श्रद्धा नहीं तो कुछ भी नहीं, क्योंकि श्रद्धाहीनको वस्तुका अस्तित्व ही स्वीकार नहीं होता तब वह उसे पावे तो कैसे?

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याद रखो, श्रद्धासे सच्चा भजन होता है और भजन होनेसे ही सच्ची श्रद्धा भी होती है। सत्संगके द्वारा श्रद्धा बढ़ाओ और साथ ही भजन करके श्रद्धाको उज्ज्वल, निर्मल, सात्त्विक और अनन्य बना लो। फिर जो भजन होगा, वह भगवान‍्को तुरन्त प्राप्त करनेवाला होगा। भजनमें बड़ी शक्ति है। भजनकी सीधी विधि है भगवान‍्को निरन्तर याद रखना और उन्हें याद रखते हुए उनकी सेवाके भावसे ही संसारके आवश्यक कार्य करना। उनका स्मरण हृदयमें सदा अखण्डरूपसे बना रहना चाहिये। अखण्ड स्मरण होने लगे तो समझो तुमपर भगवान‍्की बड़ी भारी कृपा है; अब तुम उस कृपाके बलसे निहाल होनेवाले हो। जबतक अखण्ड स्मरण न हो तबतक बार-बार अभ्यासके द्वारा स्मरणकी चेष्टा करो। नाम-जपका नियम कर लो और मनको और जगहोंमें जानेसे रोकनेकी सतत चेष्टा करते हुए उसे भगवान‍्में लगाते रहो। अभ्यास करते-करते भगवान‍्की कृपासे मन भगवान‍्में लग ही जायगा।

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मन तभीतक भगवान‍्में नहीं लग रहा है, जबतक कि उसे आनन्द नहीं आता; जिस दिन जरा भी आनन्द आ जायगा, उस दिनसे तो फिर यह वहाँसे हटाये भी नहीं हटना चाहेगा; क्योंकि उस आनन्दके एक कणके साथ भी जगत‍्के बड़े-से-बड़े आनन्दकी तुलना नहीं हो सकती। वह आनन्द अत्यन्त विलक्षण होता है।

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भजनमें श्रद्धा करो। यह विश्वास करो कि भजनसे ही सब कुछ होगा। भजनके बिना न संसारके क्लेश मिटेंगे, न विषयोंसे वैराग्य होगा, न भगवान‍्का प्रभाव और महत्त्व समझमें आवेगा और न परम श्रद्धा ही होगी। भगवान‍्की प्राप्ति तो भजनके बिना असम्भव ही है। और सच्ची बात यह है कि जबतक भगवान‍्की प्राप्ति नहीं होती, तबतक क्लेशोंका पूर्णरूपसे नाश हो भी नहीं सकता।

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भगवान‍्की प्राप्तिके इस कार्यमें जरा देर न करो। ऐसा मत सोचो कि ‘अमुक काम हो जायगा, इस प्रकारकी स्थिति हो जायगी, तब भगवान‍्का भजन करूँगा’ यह तो मनका धोखा है। सम्भव है तुम्हारी वैसी स्थिति हो ही नहीं, तुम पहले ही मर जाओ। अथवा यदि स्थिति हो जाय तो फिर किसी दूसरी स्थितिकी कल्पना कर लो। इससे अभी जिस स्थितिमें हो, इसी स्थितिमें भगवान‍्की प्राप्तिके लिये भजनमें लग जाओ। मनुष्य-जीवनका सबसे ऊँचा ध्येय एकमात्र यही है।

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एक बात और है, जबतक तुम भजनके लिये किसी संसारी स्थितिकी प्रतीक्षा करते हो, तबतक तुम वास्तवमें भजन करना चाहते ही नहीं। यदि भजन करना चाहते तो भजनसे बढ़कर ऐसी कौन-सी स्थिति है जिसके लिये तुम भजनको रोककर पहले उसे पाना चाहते। संसारके धन-जन, मान-सम्मान, पद-गौरव सभी विनाशी हैं। वे किसीके सदा रहते नहीं और जिन्हें ये सब प्राप्त हैं, वे क्या सुखी हैं? उन्हें क्या शान्ति मिल गयी है? उनके जीवनका उद्देश्य क्या सफल हो रहा है? वे क्या इन्हें प्राप्त करके भजनमें लग गये हैं? बल्कि इसके विपरीत अनुभव तो यह कहता है कि ज्यों-ज्यों सांसारिक संग्रह बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों क्लेश, कामना, द्वेष, अशान्ति, अज्ञान, असावधानी और विषयासक्ति बढ़ती है। और विषयासक्त पुरुष कभी सुख-शान्तिके भण्डार परमात्माके मार्गपर नहीं चलना चाहता।

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विषय-सुखमें फँसे हुए मनुष्यको तो एक प्रकारसे पागल या मूढ़ समझना चाहिये जो काल्पनिक और विनाशी सुखके मोहमें सच्चे सुखसे वंचित रह जाता है। सच्चा सुख तो भगवान‍्में है, जो भगवान‍्का स्वरूप ही है। उसको छोड़कर क्षणस्थायी, परिवर्तनशील दु:खभरे भोगोंमें सुख चाहना तो मतिभ्रम ही है। बुद्धिमेंसे इस भीषण भ्रमको निकालना पड़ेगा। विषय-सुखके भ्रमसे ही विषयोंमें आसक्ति हो रही है। इस विषयासक्तिके कारण ही मनुष्य दूसरोंमें दोषारोपण करता है, जान-बूझकर झूठ बोलता है, परपीडा और हिंसा करता है, परस्त्रियोंमें पापबुद्धि करता है, दम्भ और पाखण्ड रचता है एवं नाना प्रकारके नये-नये तरीके निकालकर अपनी पापवासनाको सार्थक करना चाहता है।

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इस विषयासक्तिका सर्वथा नाश तो तब होगा, जब तुम अखिल ऐश्वर्य, सौन्दर्य और माधुर्यके समुद्र भगवान‍्को जानकर उनमें आसक्त हो जाओगे। तबतक शास्त्र और सन्तोंकी वाणीपर श्रद्धा करके, विषयोंकी नश्वरता और क्षणभंगुरता प्रत्यक्ष देखकर विषयी और विषयप्राप्त पुरुषोंकी मानसिक दुर्दशापर विचार करके चित्तको विषयोंसे हटाते रहो और सर्वसुखरूप श्रीभगवान‍्में लगाते रहो। भगवान‍्के रहस्य और प्रभावकी बातोंको, उनकी लीलाओंको, उनके गुणोंको श्रद्धापूर्वक सत्पुरुषोंसे सुनो, उनके नामका जप करो और यह चेष्टा सच्चे मनसे करते रहो कि जिसमें एक क्षणभरके लिये भी मनसे उनका विस्मरण न हो। प्रत्येक क्षण उनकी मधुर याद बनी ही रहे। जब भूलो, तब पश्चात्ताप करो। याद आनेपर फिर न भूलनेकी कोशिश करो। भगवान‍्के स्मरणको ही परम धन और परम लाभ समझो। सच्ची बात भी यही है— भगवान‍्का स्मरण ही जीवनका एकमात्र परम धन है।

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पहलेके दोषों और पापोंके लिये चिन्ता न करो, उससे कोई लाभ नहीं; जो होना था सो हो चुका। न चुपचाप बैठे भविष्यके लिये ही शोक करो। जहाँतक बने, वर्तमानको सुधारो। फिर भूत और भविष्य दोनों ही अपने-आप सुधर जायँगे। वर्तमानमें प्रयत्न करके भगवत्कृपासे यदि तुम भगवान‍्को पा गये तो पूर्वके समस्त कर्म जल जायँगे और भविष्य तो परम कल्याणमय हो ही गया। वास्तवमें तब तुम भूत, भविष्य, वर्तमान—इस कालभेदको लाँघकर इसके आगे उस स्थितिमें पहुँच जाओगे जहाँ कालभेद और देशभेद नहीं। जहाँ केवल आनन्द और ज्ञान-ही-ज्ञान है।

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यह होगा, वर्तमानपर ध्यान रखनेसे ही। तुम्हारे हाथमें वर्तमान ही है। इसका एक-एक क्षण भगवान‍्में लगाओ। बुद्धिको, मनको, इन्द्रियोंको—सब ओरसे बटोरकर सर्वतोभावसे भगवान‍्की सेवामें लगा दो। याद रखो—जीवनका काल बहुत थोड़ा है; यदि यह बीत गया तो फिर पछतानेसे कुछ भी नहीं होगा; क्योंकि भगवान‍्की प्राप्तिका अधिकार इस मानव-जीवनमें ही है। यदि नष्ट हो गया तो एक बहुत अच्छा सुअवसर तुमने हाथसे खो दिया। अतएव न भूतकालके कार्योंके लिये पश्चात्ताप या चिन्ता करो, न भविष्यकी किसी स्थितिकी बाट देखो, बल्कि सब ओरसे चित्त हटाकर किसी ओर भी न ताककर जीवनके इस परम उद्देश्यकी सिद्धिके साधनमें वैसे ही लग जाओ, जैसे अत्यन्त भूखा आदमी सामने भोजन पाकर सबसे पहले खानेमें लग जाता है।

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सब इन्द्रियोंको भगवत्सेवामें लगा दो। धन, जन, पूजा-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, आराम-भोग आदि समस्त कामनाओंको चित्तसे निकालकर चित्तको निर्मल करके उसमेंसे हिंसा, द्वेष, वैर, काम, क्रोध, ईर्ष्या, अभिमान आदि दोषोंको निकालकर तत्परताके साथ सारी इन्द्रियोंको इन्द्रियोंके एकमात्र स्वामी हृषीकेशभगवान‍्की सेवामें लगा दो।

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इन्द्रियोंको तो भगवान‍्से प्रतिकूल कार्योंसे हटाये ही रखो, मनमें भी कोई प्रतिकूल भावना न आने दो। तुम्हारे सब कार्य भगवान‍्के अनुकूल ही हों और हों केवल उनकी सेवा-पूजाके लिये ही।

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मनमें बुरे भावोंका उदय पुराने कर्म-संस्कारवश भी होता है और वर्तमानके कर्मोंके फलस्वरूप भी। अधिक प्रभाव वर्तमान कालके नवीन कर्मोंके संचितका ही होता है। इसलिये किसी भी इन्द्रियसे ऐसा कोई कार्य न करो, जिसका बुरा असर मनपर पड़े और मनपर अंकित बुरे दृश्य तुम्हें आगे चलकर दुर्गतिकी ओर ढकेल दें।

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याद रखो, मनको साथ लेकर इन्द्रियाँ जो कुछ भी कार्य करती हैं, उनके चित्र मनपर वैसे ही हूबहू अंकित हो जाते हैं, जैसे बोलनेवाले सिनेमाके फिल्ममें समस्त दृश्य और स्वरकम्पनके अनुसार सब प्रकारके स्वर। और जैसे मशीनपर चढ़ते ही बिजलीके प्रकाशसे वे सारे दृश्य सामने आ जाते हैं और स्वर सुनायी देने लगते हैं और देखने-सुननेवालोंके चित्तको आकर्षित करते हैं, वैसे ही तुम्हारे मनपर अंकित सब घटनाएँ स्मृतिपथमें उदय होकर तुम्हें वैसा ही उनके लिये प्रेरणा करती हैं और अपने अनुकूल वायुमण्डल पाकर तो बाध्य भी करती हैं।

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अतएव किसी भी इन्द्रियसे बुरा कार्य जरा भी न करो। इन्द्रियाँ संयत होनेसे मनका संयम बहुत आसानीसे हो जाता है। मनका संयम होनेके बाद तो इन्द्रियोंका संयम स्वयमेव हो जाता है; परन्तु मनका संयम इन्द्रियोंके निगृहीत हुए बिना होना बहुत ही कठिन है। और सच बात तो यह है कि मनका असंयम ही सारी बुराइयोंकी जड़ है और मनका संयम ही समस्त सिद्धियोंकी लीलाभूमि है। मनके संयमके लिये इन्द्रियोंको बुरे विषयोंसे हटाकर—पहले-पहल जबरदस्ती भी—भगवत्सम्बन्धी विषयोंमें लगाना चाहिये।

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मनके संयमका असली अर्थ मनका पूर्णरूपसे भगवान‍्में लग जाना है, शून्य हो जाना नहीं। इसीलिये सारी साधना है। भगवान‍्का महत्त्व, प्रभाव और तत्त्व जाननेके बाद तो बुद्धि अपने-आप ही उधर खिंच जाती है और बुद्धि यदि एकाग्र और निश्चयात्मिका हो जाती है तो फिर मनका तदाकार होना सहज है। और यहाँ तो भगवान् वस्तुत: एक ऐसे परम अर्थ हैं जो ऐश्वर्य, सौन्दर्य, माधुर्य आदिमें सर्वथा अनुपम हैं। उनकी ओर एक बार लगनेमें ही कठिनाई है। एक बार लग जानेपर तो फिर वहाँसे हटना ही कठिन हो जायगा।

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