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साधना

किसी साध्य वस्तुकी प्राप्तिके लिये जो प्रयत्न किया जाता है उसे ‘साधना’ कहते हैं। जगत‍्में सभी जीव सुखकी इच्छा करते हैं, सुख ही सबका साध्य है। सुख भी ऐसा—जो सबसे बढ़कर हो, जिसमें किसी तरहकी जरा भी कमी न हो, जो सदा एक-सा बना रहे, कभी घटे नहीं—कभी हटे नहीं; जो अनन्त हो, असीम हो, नित्य हो और पूर्ण हो। ऐसा सुख विनाशी और परिवर्तनशील संसारकी किसी वस्तुमें हो नहीं सकता। यहाँ अनन्त, असीम, अखण्ड, नित्य और पूर्ण कुछ भी नहीं है। नित्य, सत्य, सनातन, सम, एकरस, अनन्त, असीम, अखण्ड और पूर्ण तो एकमात्र भगवान् ही हैं। इसलिये वही पूर्ण सुखस्वरूप हैं और वही सबके परम साध्य हैं। मनुष्य चाहे समझे नहीं, कहे नहीं, परन्तु वह ‘पूर्ण’ को चाहता है। इसलिये वह चाहता है ‘भगवान्’ को ही। जगत‍्में उसे कहीं भी पूर्णता दीखती नहीं, वह सभी अवस्थाओंमें बड़े-से-बड़ा सम्राट् और इन्द्र बन जानेपर भी अभावका—अपूर्णता ही अनुभव करता है। उसके मनमें कोई कमी खटकती ही रहती है, इसीलिये वह प्रत्येक स्थितिमें अतृप्त और असन्तुष्ट रहता है और किसी दूसरी स्थितिकी खोजमें लगा रहता है। परन्तु वह मोहवश पूर्णतम भगवान‍्की ओर न जाकर दु:ख और अतृप्तिकी उत्पत्ति करनेवाले, अभावभरे भोगोंमें ही सुख मानकर उन्हींकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करता है, इसीसे वह सच्चे सुखसे सदा वंचित रहता। वह करता है अपनी जानमें सुखकी साधना, परन्तु उसे मिलता है दु:ख, असफलता, अशान्ति और अतृप्ति! इसीलिये भोगोंके निमित्त किया जानेवाला प्रयत्न यथार्थमें साधना नहीं है। साधना शब्दकी सार्थकता वस्तुत: वही है, जहाँ वह परमानन्दस्वरूप श्रीभगवान‍्के लिये होती है।

अतएव सबसे पहले यह निश्चय करो कि हमारे साध्य हैं—एकमात्र श्रीभगवान् और साधना है—अपनी स्थिति और शक्तिके अनुसार भगवान‍्की प्राप्तिके लिये किये जानेवाले प्रयत्न।

यह याद रखो कि भगवान् एक हैं; एक ही हैं। एक ही भगवान् लीलाके लिये असंख्यों रूप और असंख्य नामोंसे प्रकाशित और पूजित होते हैं। कोई कैसी भी साधना करे, यदि वह भगवान‍्के लिये है तो अन्तमें उसको वही भगवान् मिलते हैं, जो दूसरोंको दूसरी साधनाओंके द्वारा मिलते हैं। पाते हैं सब एक ही सत्यको, पहुँचते हैं सब एक ही जगह—रास्ते अलग-अलग हैं। रास्ता सबके लिये एक हो भी नहीं सकता। जैसे एक ही श्रीकाशीजीको जानेवाले भिन्न-भिन्न दिशाओंके यात्री अपनी-अपनी दिशाओंसे भिन्न-भिन्न मार्गोंद्वारा जाते हैं और जैसे वे अपनी मानसिक, आर्थिक और शारीरिक शक्तिके अनुसार पैदल, बैलगाड़ीपर, घोड़ोंपर, रेलपर अथवा वायुयानपर सवार होकर जाते हैं, और उसीमें उन्हें सुगमता भी होती है, वैसे ही भिन्न-भिन्न रुचि और संस्कारके मनुष्योंको अपने-अपने अधिकार, शक्ति, रुचि, बुद्धि, संयम, अभ्यास और इच्छा आदिके तारतम्यसे उन्हींके अनुसार विभिन्न साधनाओंके द्वारा तीव्र या मन्द गतिसे भगवत्प्राप्तिके मार्गको तय करना पड़ता है। जो लोग ऐसा मानते हैं कि सबको एक ही साधन करना चाहिये, वे भूलमें हैं। अतएव श्रद्धा और विश्वासके साथ अपने मार्गपर तेजीके साथ चलते रहो। जो लोग नये-नये साधनोंके लिये ललचाकर बार-बार पुराने साधन छोड़ते रहते हैं, वे साधनोंके बदलनेमें ही अपने जीवनका बहुमूल्य समय पूरा कर देते हैं और साध्यतक नहीं पहुँच पाते। साध्यपर दृष्टि रखते हुए अपने मार्गसे जरा भी विचलित न होकर सदा आगे बढ़ते रहो, प्रकाश अपने-आप ही मिलता रहेगा।

अपने साधनमें साध्यके समान ही आदर-बुद्धि रखो। जो पुरुष साधनाकी अवहेलना या तिरस्कार करता है, उसे साध्य कभी प्राप्त नहीं होता। अवश्य ही अपने लिये साधनाका चुनाव करते समय अच्छी तरहसे जाँचकर देख लो, अनुभवी पुरुषोंसे सलाह ले लो या कोई सद‍्गुरु प्राप्त हो सकें तो उनका आदेश प्राप्त कर लो, फिर लग जाओ अनन्यतासे तत्पर होकर उसीमें। साधनामय बन जाओ। अपने मन, इन्द्रियोंको साधनाके साथ घुला-मिलाकर साधना-स्वरूप बना दो।

एक बात जरूर याद रखो—कोई किसी भी राहसे कैसे भी जाय, जैसे उसको राहखर्चकी, रास्तेमें खान-पान आदिकी आवश्यकता होती है, वैसे ही भगवत्प्राप्तिके मार्गमें सद‍्गुणोंकी, सद्विचारोंकी, सत्कर्मोंकी—एक शब्दमें दैवी सम्पत्तिकी* आवश्यकता होती है।

* निर्भयता, अन्त:करणकी पवित्रता, ज्ञानयोगमें दृढ़ स्थिति, उदारता, इन्द्रियोंका दमन, भगवदर्थ कर्म, स्वाध्याय, तप, सरलता, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शान्ति, परनिन्दा, त्याग, प्राणियोंपर दया, लोभहीनता, कोमलता, बुरे कर्मोंमें लज्जा, चपलताका अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, शुद्धता, द्रोहहीनता और निरभिमानता।
(गीता १६। १—३)

इसके बिना साधनाका सफल होना असम्भव नहीं तो असम्भव-सा अवश्य है। इसलिये निरन्तर दैवी सम्पदाके प्राप्त करनेकी कोशिश करते रहो। प्रत्येक क्रियामें सावधान रहो—कहीं अपने साध्यको भूल तो नहीं रहे हो, कहीं अपनी साधनामें प्रमाद तो नहीं हो रहा है, कहीं साध्य और साधनाके विरुद्ध तो कुछ नहीं कर बैठे हो। साधनासे हटानेवाले हजारों प्रलोभन और भय तुम्हारे मार्गमें आयेंगे, तुम्हें लालचमें डालकर और दु:खोंकी बड़ी डरावनी मूर्ति दिखाकर डिगानेकी चेष्टा करेंगे, पर सावधान, कहीं डिगना नहीं। याद रखो—भगवान् निरन्तर तुम्हारे साथ हैं और तुम्हारी सच्ची साधनामें सदा तुम्हारे सहायक हैं। उनकी कृपासे तुम उन्हें अवश्य ही प्राप्त करोगे बेखबर होकर कहीं रास्तेसे ही न लौट पड़ना। याद रहे—सावधानी ही साधना है।

सभी प्रकारके साधकोंके लिये नीचे लिखी बातें जानने और समझनेकी हैं। इनको पढ़कर तुम अपने लिये जितना और जो कुछ ठीक हो उसे ग्रहण करो।

साधनाके विघ्न बहुत-से हैं, उनमें कुछ ये हैं—

आहारदोष, अस्वस्थता, आलस्य, प्रमाद, पुरुषार्थहीनता, अश्रद्धा, कुतर्क, अधैर्य, अनिश्चय, संशय, असंयम, असहिष्णुता, अपवित्रता, प्रसिद्धि, पुजवानेकी इच्छा, मानकी चाह, घृणा, द्वेष, निर्दयता, दुराग्रह, चपलता, जल्दबाजी, परदोषदर्शन, परनिन्दा, परचर्चा, बाहरी वेश-भूषा, विवाद या शास्त्रार्थ, शरीरके आरामकी चाह, विलासिता, दूसरेसे सेवा करानेकी वृत्ति, लोकरंजनमें रुचि, कुसंग, साधनाके प्रतिकूल या साधनाके लिये अनावश्यक साहित्यका अध्ययन, माता-पिता और गुरुजनोंका तिरस्कार, शास्त्र और संतोंके वचनोंमें अविश्वास, भजनमें लापरवाही, सर्वथा कर्मत्याग अथवा बहुधंधीपन, दूसरोंके साधन और लक्ष्यके प्रति लोभ, दूसरेके साध्य, साधन और धर्मसे द्रोह, साधनाका अभिमान, ब्रह्मचर्यका खण्डन, विपत्तिमें घबराकर और सम्पत्तिमें फूलकर कर्तव्यको भूल जाना, किसी मनुष्य, स्थान और वस्तुविशेषमें ममता, आश्रमादिकी स्थापना और लक्ष्यको भूल जाना।

बुरी कमाईका, चोरीके पैसोंका, दूसरेके हकका अन्न न खाओ, खान-पान, परिश्रम-व्यायाम और नियमादिके द्वारा शरीरको नीरोग रखो; आजका काम कलपर, अभीका काम पीछेपर मत छोड़ो, करनेयोग्य कर्मका त्याग और न करनेयोग्य हानिकर कामोंका ग्रहण न करो, हमेशा उद्योगशील और पुरुषार्थी बने रहो, प्रारब्धको दोष लगाकर सत्कर्म और भजनसे चित्तको न हटाओ; भगवान् पर, उनकी दयापर, उनकी महान् शक्तिपर; आत्माके अनन्त बलपर और अपने पुरुषार्थपर श्रद्धा रखो; बेसिर-पैरका व्यर्थ तर्क न करो, धीरज छोड़कर साधनाका त्याग कभी न करो, मनमें निश्चय रखो कि साधनामें सिद्धि मिलेगी ही या सिद्धि प्राप्त करके ही छोड़ेंगे। मनमें किसी सन्देहको न आने दो; संशयात्मा पुरुष गिर जाते हैं। आहार, व्यवहार, शयन, भाषण और चिन्तनमें—सभी बातोंमें संयम करो—आसन-प्राणायामादिसे शरीरका संयम करो, अपना काम अपने हाथसे करो, शरीरसे परिश्रम करो, हिंसा और मैथुनादिसे बचो, सत्य-मधुर-हितकर और परिमित बचनोंसे वाणीका संयम करो—झूठ न बोलो, कड़वी बात न कहो, किसीकी चुगली न करो, शाप न दो, हितकी बात कहो और व्यर्थ चर्चा मत करो—फजूल न बोलो; मनके विषाद, क्रूरता, चंचलता, अपवित्रता और व्यर्थ चिन्तन आदि दोषोंका त्याग करके मनका संयम करो। मनमें कभी शोक-विषाद न करो; किसीका बुरा न चाहो, मनको भगवान‍्के ध्यानमें लगाओ, मनके अन्दर द्वेष, वैर, क्रोध, हिंसा, काम आदि अपवित्र वृत्तियोंको न रहने दो; मनके द्वारा विषयोंका चिन्तन न करके केवल श्रीभगवान‍्का और भगवत्-सम्बन्धी साधनाका चिन्तन करो। बहुत कम बोलो और बहुत कम संसारका चिन्तन करो। इन्द्रियोंको विषयोंसे रोको। जन्म, यज्ञोपवीत, विवाह, कर्णछेदन और श्राद्धादिमें अधिक खर्च न करो, गहने-कपड़ोंमें अधिक धन मत लगाओ। भोजनका संयम रखो—बहुत कीमती चीजें मत खाओ, मांस, मद्य, अंडे आदिका सर्वथा त्याग करो; अपवित्र और जूँठी चीजें न खाओ, ज्यादा मत खाओ, स्वादके लिये रोग पैदा करनेवाली चीजें मत सेवन करो। नशीली चीजें त्याग दो। तम्बाकू, भाँग, बीड़ी आदि छोड़ दो। खर्च सभी बातोंमें कम करो। अधिक खर्च करनेवालेके धनका अभाव होता है और उसे धनकी चाह बनी रहती है। इससे उसका चित्त सदा ही चंचल और पापयुक्त रहता है। उससे साधना नहीं बन सकती। अपनी आवश्यकताओंको जितना घटा सको, घटा दो। देखा-देखी न करो, बहुत शान्ति मिलेगी। संन्यासी हो तो अपने आश्रमके अनुरूप मन-वचन-शरीरका संयम करो। संयमके बिना साधना बहुत कठिन है। सुख-दु:ख, हानि-लाभ, सर्दी-गरमी आदि द्वन्द्वोंको और विपत्तियोंको भगवान‍्की देन समझकर सहन करो। सुख और सम्पत्तिको भी सहन करो। जो सुख-सम्पत्तिको पाकर हर्षके मारे कर्तव्यच्युत हो जाते हैं, वे भी असहिष्णु ही हैं। दु:खमें उद्विग्न मत होओ; सुखमें हर्षित मत होओ। शरीर और मनको पवित्र रखो, प्रसिद्धिसे सदा बचो। साधकके लिये प्रसिद्धि विषके तुल्य त्याज्य है। प्रसिद्धि होनेपर लोगोंकी भीड़ लगेगी; जगत‍्का संग बढ़ेगा, परिग्रह बढ़ेगा, साधन लुट जायगा। उपदेशक मत बनो—अपने-आपको साधक बोलकर प्रसिद्ध न करो, पुजवानेकी और मानकी चाह कभी भूलकर भी न करो, जिस साधकके मनमें पुजवानेकी और मान प्राप्त करनेकी चाह पैदा हो जाती है, वह कुछ ही दिनोंमें भगवत्प्राप्तिका साधक न रहकर भोगोंका साधक बन जाता है। किसी भी जीवसे घृणा न करो, किसीसे द्वेष न करो—किसीके साथ निर्दयता मत करो। ये दोष हैं—पाप हैं और सर्वथा त्याज्य हैं। यों तो अनुराग और दया भी बन्धनकारक हैं, परन्तु उनका उपयोग भगवदर्थ कर्तव्य-बुद्धिसे करना चाहिये, किसी बातपर हठ मत करो; शरीर-मन-वाणीसे चपलता—व्यर्थ कार्य न करो, जल्दबाजीमें किसी कर्मको न कर बैठो और न छोड़ बैठो—किसी व्याख्यानको सुनते ही, पुस्तक पढ़ते ही, बिना सोचे-समझे जोशमें आकर घर-द्वार छोड़कर न निकल भागो। यों भागनेवाले जोश उतरनेपर प्राय: पीछे बहुत पछताया करते हैं। किसी आरम्भ किये हुए कामको जल्दी करके न बिगाड़ो। जो कुछ करो व्यवस्था, धीरता और नियमके साथ श्रद्धा-सत्कारपूर्वक अच्छी तरह करो। न बीचमें अटको और न घबराकर छोड़ो। दूसरेके दोष न देखो, दूसरेकी निन्दा न करो, परचर्चाका सावधानीसे त्याग करो। अपनी वेश-भूषा साधारण रखो; जटा बढ़ाना, मूँड़ मुड़ाना, किसी खास ढंगसे कपड़े पहनना, खास तरहसे चलना—मतलब यह कि लोग कुछ विलक्षणता देखकर तुम्हारी ओर खिंचें, ऐसा पहनावा न पहनो। जैसे साधारण लोग रहते हैं, वैसे ही रहो। किसीसे विवाद या शास्त्रार्थ न करो—तुम्हें अपनी साधनासे जरा भी अवकाश नहीं मिलना चाहिये। शरीरके आरामकी चाह न करो—शरीरके आरामके पीछे पागल रहनेवाले साधना कभी नहीं कर सकते। फैशन और शौकीनीके फेरमें बिलकुल न पड़ो। दूसरेसे सेवा न कराओ; जो सेवा करानेके लिये साधना करते हैं, वे शरीरका आराम और भोग चाहनेवाले हैं। भगवान‍्को चाहनेवाले नहीं हैं। ऐसी चेष्टा करो जिसमें मनुष्यकी अपने आत्मापर श्रद्धा हो—अपने पुरुषार्थपर श्रद्धा हो—वह अपनी सेवा आप करे। किसीकी आत्मश्रद्धाको न डिगाओ, न डिगने दो और न किसीकी श्रद्धाको आत्मासे हटाकर अपनी ओर लगानेकी चेष्टा करो। लोगोंको रिझानेकी चाह और चेष्टा छोड़ दो, जो लोगोंको रिझानेके उद्देश्यसे साधन, भजन, कीर्तन और उपदेशका प्रदर्शन करता है, वह तो नाटकका अभिनयमात्र करता है। वह साधक नहीं है। कुसंगका त्याग करो—बुरे संगसे बुरी वृत्ति होती है और सर्वथा पतन हो जाता है। कुसंगके समान नाशकारी विघ्न बहुत थोड़े हैं। जलवायु (वातावरण), जनसमुदाय, स्थान, काल, कर्म, जन्म, ध्यान, मन्त्र, संस्कार और साहित्य—ये सभी सुसंग या कुसंगका काम देते हैं—भगवत्सम्बन्धी सात्त्विक होनेपर ये सभी सुसंग हैं और विषय-सम्बन्धी राजस-तामस होनेपर कुसंग हैं। सावधानीसे कुसंगका त्याग करो। जिस संगसे भजनमें अरुचि, शरीरके आराम और भोगोंकी चाह, दैवी सम्पत्तिमें अवहेलना होती या बढ़ती हो, उसीको कुसंग समझो और उसका तुरन्त त्याग कर दो। ऐसी पुस्तकें कभी न पढ़ो, जिसमें तुम्हारी साधनासे प्रतिकूल भाव हों या तुम्हारी साधनाके लिये जिन भावोंकी आवश्यकता न हो। सिनेमा, नाटक आदि न देखो; ऐसे चित्र न देखो—ऐसे गाने न सुनो, जिनसे चित्तमें विकार हो और साधनामें शिथिलता आती हो। माता, पिता, गुरुजनोंकी श्रद्धापूर्वक सेवा करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करो। उनके आशीर्वादसे तुम्हारी साधनामें सुविधा होगी। उसका तिरस्कार कभी न करो। महान् वैराग्यकी प्रेरणासे बुद्धभगवान‍्की तरह गृहत्याग करना दूसरी बात है, पर वह आदर्श सबके लिये नहीं है। शास्त्र और सन्तोंकी वाणीपर विश्वास करो—कोई बात तुम्हारी समझमें न आवे तो उसका तिरस्कार न करो, उसे भ्रान्त न समझो, भजनमें कभी चूक मत पड़ने दो। साधकके लिये भजन सर्वशिरोमणि धन है। जी-जानसे इसकी रक्षा करो और सदा इसीमें लगे रहो। कर्मका बिलकुल त्याग करके निकम्मे मत बन जाओ। पूर्ण वैराग्य हुए बिना काम छोड़ बैठनेवालोंसे भजन, साधन तो होता नहीं—उनका समय प्रमाद, आलस्य, व्यर्थ बकवादमें लगता है—वे व्यसनोंके शिकार हो जाते हैं और साधनपथसे गिर जाते हैं। न इतना अधिक काम ही करो कि जिससे आत्मविचारके और भजन-साधनके लिये समय ही न मिले। युक्ताहार-विहारपर ध्यान रखो! दूसरेके साध्य और साधनकी बात सुनकर जी न ललचाओ—न दूसरेके साध्य, साधन और धर्मसे द्रोह ही करो। यह समझो कि तुम्हारे ही इष्टदेव श्रीकृष्ण अन्य लोगोंके द्वारा श्रीराम, श्रीशंकर, श्रीदुर्गा या अन्यान्य नाम-रूपोंसे पूजित होते हैं; और पूजाके विभिन्न प्रकारोंसे सब तुम्हारे ही श्रीकृष्णकी उपासना करते हैं। निराकार, निर्गुण भी श्रीकृष्ण ही हैं। वे ही अचिन्त्य अनिर्वचनीय सच्चिदानन्दघन सर्वशक्तिमान् सर्वोपरि पूर्ण पुरुषोत्तमतत्त्व हैं। इसी प्रकार यदि तुम राम, शिव या निर्गुण ब्रह्मके उपासक हो तो, औरोंके लिये वैसा ही समझो। हैं सब एक ही—परन्तु तुम्हें वे ही इष्ट हैं, जिनकी तुम उपासना करते हो। जिसकी अपने साधन और इष्टमें सर्वोच्च बुद्धि नहीं होती, उसको सर्वोच्च सत्यकी प्राप्ति नहीं होती। ब्रह्मचर्यका पालन करो। ब्रह्मचारी-संन्यासी हो तो अखण्ड ब्रह्मचर्य रखो, गृहस्थ हो तो अपनी विवाहिता पत्नीके प्रति शास्त्रोक्त संयमपूर्ण बर्ताव करो। स्त्री-पुरुष दोनों स्वेच्छासे संयमशील होनेका नियम लें तो बहुत उत्तम है। विपत्ति और सम्पत्तिमें समचित्त रहो। कहीं ममता न करो और अपने लक्ष्यको सदा-सर्वदा याद रखो। प्रत्येक चेष्टा लक्ष्यकी सिद्धिके लिये ही करो। इसीमें कल्याण है।

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