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संत-महात्माकी कृपाका फल

महात्मा पुरुषोंकी सेवा या संगति करके यह इच्छा न करो कि मेरा अमुक सांसारिक काम सफल हो जाय और यदि कोई काम सफल हो भी जाय तो यह मत मानो कि यह महात्माकी कृपासे सफल हुआ है। सच्चे महात्माकी कृपाका फल बहुत ही ऊँचा और अविनाशी नित्य-सत्य वस्तुकी प्राप्ति होता है। अनित्य और विनाशी वस्तुओंकी ओर महात्माओंका लक्ष्य ही नहीं जाता।

यह बात नहीं कि महात्माकी कृपासे सांसारिक लाभ नहीं हो सकता, परंतु महात्माकी कृपाको सांसारिक कार्यके लिये उपयोग करनेकी चेष्टा करना पारसके मोल कूड़ा खरीदने-जैसा है। बल्कि यह इससे भी नीची श्रेणीका काम है। यह तो महात्माकी कृपाके महत्त्वको घटाना है।

बुरे आचरणों और मानसिक दुष्ट भावनाओंका विनाश तथा दैवी सम्पत्तिकी प्राप्ति महात्माओंके संगसे होनी ही चाहिये और उनकी कृपाका आश्रय करनेपर तो उस नित्य सत्य आनन्दमय स्थितिकी प्राप्ति हो जाती है जिसको ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ कहते हैं और जिसके पानेके बाद कुछ पाना शेष नहीं रह जाता।

सच्चे महात्मा पुरुषोंका संग करनेवाले पुरुषोंमें तथा उनके अनुयायियोंमें शुद्ध आचरणका होना उतना ही आवश्यक है जितना सूर्यके सामने रहनेपर प्रकाश और गरमीका! ऐसी बात नहीं हो तो यह समझ लो कि या तो सच्चे महात्माका अभाव है या तुम उसके संगी अथवा अनुयायी नहीं हो।

संगी वह है जो महात्माके आचरणोंका संग करता है और अनुयायी वह है जो उनके कहे अनुसार चलता है। ये दोनों बातें वस्तुत: होनेपर भी आचरणोंमें सुधार न हो तो समझो कि महात्माके महात्मापनमें ही कुछ कमी है।

परंतु इसमें भ्रम रह जाता है। बहुत लोग अपनेको संगी और अनुयायी तो मान लेते हैं, परंतु महात्माकी आज्ञाका पालन तथा उनके शुद्ध आचरणोंका अनुगमन नहीं करना चाहते। ऐसे सिर्फ बातोंके संगी और अनुयायी तो वंचित ही रहते हैं।

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बने हुए महात्माओंकी भी कमी नहीं है। महात्मा वही हैं जो भगवान‍्से नित्य युक्त हैं। जिनके अहंकार, ममत्व, आसक्ति और आकांक्षा सब कुछ भगवान‍्के अर्पण हो चुके हैं। जो समता, शान्ति, सन्तुष्टि, तृप्ति, अहिंसा, उदारता, सरलता, गम्भीरता, क्षमा, सहिष्णुता, सत्य और संयमके मूर्तिमान् स्वरूप होते हैं। जिनका हृदय विषाद, शोक, भय, उद्वेग, चांचल्य, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, दर्प, अभिमान, दम्भ आदि दोषोंसे सर्वथा रहित होता है। जो हर्ष-विषाद, मान-अपमान, निन्दा-स्तुति, मित्र-शत्रु और प्रिय-अप्रियकी सीमाको लाँघे हुए रहते हैं, जिनका कहलानेवाला तन, मन, धन सब कुछ पर-हितमें लगा रहता है, जो सम्पूर्ण ‘पर’ को ‘स्व’ में विलीनकर उस ‘स्व’ को भी परमात्मामें विलीन कर चुकते हैं।

सच बात तो यह है कि ऐसे महात्माका संग तो दूर रहा, श्रद्धायुक्त चित्तसे उनके स्पर्श, दर्शन, चिन्तन, गुण-कीर्तन, नाम या गुण-श्रवणसे ही अन्त:करण पवित्र हो जाता है। उनकी चरणधूलिके स्पर्शसे ही चित्तका मल नष्ट हो जाता है। अतएव महात्मा पुरुषोंमें सच्ची श्रद्धा करो, उनका यथार्थ संग करो, उनके सच्चे अनुयायी बनो। फिर तुम भी यथार्थ महात्मा बन जाओगे।

परंतु महात्मा कहलानेकी अभिलाषा कभी न करो; महात्माके चरणोंका अनुसरण करो, महात्माओंके योग्य आचरण करो, महात्मा बनो; यह आकांक्षा कदापि मनमें न उदय होने दो कि लोग मुझे महात्मा मानें या जानें। लोगोंके जानने या माननेका कुछ भी मूल्य नहीं है। असली मूल्य तुम्हारे उत्तम आचरणोंका है। तुम्हारी श्रेष्ठ स्थितिका है।

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तुम्हारे अन्दर दोष हैं तो उन्हें छिपानेका प्रयत्न न करो, प्रकट होते हैं तो हो जाने दो। हाँ, सद‍्गुणोंको छिपानेका जरूर यत्न करो, उनके प्रकट होनेमें सकुचाओ। अपने मुँहसे अपने गुणोंको बखान करनेको तो मरणके समान ही समझो।

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दूसरेके द्वारा भी अपनी तारीफ सुननेकी इच्छा न करो, उसको विषभरी मिठाई समझो। मनुष्यको बड़ाई बहुत प्यारी लगती है, परंतु जहाँ वह बड़ाईके चक्‍करमें पड़ जाता है, वहाँ फिर चौरासीके चक्रसे छूटनेकी आशा चली जाती है। बड़ाई सुननेवाला सदा बड़ाई सुननेका ही अभ्यासी हो जाता है, वह अपनी सच्ची आलोचना भी बरदाश्त नहीं कर सकता। परिणाममें उसे बड़ाईके लिये ही जीवन लगा देना पड़ता है। संसारमें बड़ाई प्राय: उसीकी होती है जो संसारके काँटेपर भारी उतरता है। संसारी काँटेके बाट आजकल अधिकांशमें वही हैं, जिनसे मनुष्य केवल प्रकृतिका ही उपासक बनता है। चेतनसे जड होना चाहता है। सुनो तो साहस करके निन्दा सुनो, निन्दासे घबराओ नहीं। अवश्य ही शास्त्र और आत्माकी ध्वनिके विपरीत कोई निन्दनीय काम तुम कभी न करो। महात्मा पुरुष तो निन्दा-स्तुतिके परे होते हैं, वे समबुद्धि होते हैं। परंतु महात्माओंका पदानुसरण करनेवालोंको पहले निन्दासे प्रेम और स्तुतिसे भय करना पड़ता है। तभी वे आगे चलकर महात्माका पद प्राप्त कर सकते हैं।

परंतु निन्दाके योग्य पापकर्म कभी न करो, पापकर्म करनेवाला महात्मा नहीं बन सकता। सत्कर्म करो। महात्मा पुरुषोंको खोजकर उनके आज्ञानुसार चलो! महात्मा न मिलें तो कम-से-कम उन लोगोंसे तो सदा बचते रहो जो पर-स्त्री, पराये धन और पर-निन्दाके प्रेमी हैं। उन लोगोंका संग भी यथासाध्य छोड़ दो जो विषयी हैं, विलासी हैं, भगवान‍्का भजन छोड़कर जगत‍्की चर्चामें लगे रहते हैं, तर्क और वाद-विवादमें समय बिताते हैं, इन्द्रियोंको तथा शरीरको सुख पहुँचानेके लिये सदा यत्न करते रहते हैं, स्वादिष्ट भोजनके लिये लालायित रहते हैं और मान-सम्मान चाहते हैं।

परन्तु किसीपर दोषारोपण न करो, न अपनेको शुद्धाचारी या त्यागी मानकर अभिमान करो, न किसीसे द्वेष करो। जहाँतक हो अपना समय भजनमें, सत्पुरुषोंकी संगतिमें, भगवान‍्की ओर लगानेवाले ग्रन्थोंके अध्ययनमें, सदाचारी साधु-महात्माओंके जीवनका अनुसरण करनेमें, अभिमान छोड़कर सच्चे भावसे गरीबोंकी सेवा करनेमें और अहंकारसे बचकर अपने वर्णाश्रमधर्मके पालनमें लगाओ।

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सावधानीके साथ स्त्री-चर्चा, धन-चर्चा और मान-चर्चासे बचे रहो। कम बोलो, सत्य बोलो, नम्रतासे बोलो और हितकारी वचन बोलो। ऐसा कोई काम न करो, ऐसी कोई बात किसीसे न कहो, जिसके कारण तुम्हें आगे चलकर झूठ बोलनेकी जरूरत दिखायी दे। बिना समझे ऐसी कोई बात मुँहसे मत निकालो जिसके कारण तुम्हें नीचा देखना पड़े। याद रखो—जो दूसरोंको नीचा दिखाना चाहता है, उसे कभी-न-कभी नीचा देखना ही पड़ता है।

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सबका सम्मान करो, सबके साथ प्रेम और नम्रतासे व्यवहार करो, अपना दु:ख सुनानेकी इच्छा कम रखो, दूसरेका दु:ख सुनो और तुम्हारा दु:ख बढ़नेसे यदि उसका दु:ख मिट सकता हो तो साहस करके उसका दु:ख मिटानेकी चेष्टा करो। भगवान् सत्य हैं, सर्वसाक्षी हैं, तुम्हारा दु:ख एक बार बढ़ता हुआ चाहे दिखायी देगा, परन्तु परिणाममें तुम्हें बड़ा सुख मिलेगा। ऐसे आचरणोंसे सचमुच तुम महात्मा बन जाओगे।

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