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संत-महात्माओंकी सेवा कैसी हो?

महात्माओंकी, साधु-संन्यासियोंकी, गुरुओंकी सेवा-पूजा श्रद्धा-भक्तिपूर्वक करो, परन्तु करो उनके स्वरूपके अनुरूप ही। जो जिस स्थितिमें है, उसकी सेवा-पूजा उसी स्थितिके अनुसार करनी पड़ती है। संन्यासीके सिरपर राजमुकुट और राजाकी कमरमें कौपीन अस्थानीय और अशोभनीय होते हैं। यथायोग्य सेवा-पूजासे ही मर्यादा रहती है और उसीसे दोनों ओर कल्याण है। ऐसी सेवा-पूजा न करो जिससे उनके महत्त्वपूर्ण स्वरूपका अपमान हो, उनके त्यागमय वेषपर कलंक लगे, उनकी साधना-सम्पत्ति नष्ट होनेका डर हो, उच्च स्थितिसे गिरनेकी आशंका हो अथवा उनकी देखा-देखी करनेवाले दूसरे लोगोंके पतनकी सम्भावना हो।

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पितामह भीष्म शरशय्यापर पड़े थे। तमाम शरीरमें बाण बिंधे थे, परन्तु उनके मस्तकमें बाण न लगनेसे सिर नीचे लटक रहा था। भीष्मने तकिया माँगा। लोग दौड़े और नरम-नरम रूईसे भरे कोमल तकिये ला-लाकर उनके सिरके नीचे रखने लगे। भीष्मने उन सबको लौटा दिया, कहा—‘अर्जुनको बुलाओ!’ अर्जुन आये। भीष्मने कहा—‘बेटा! सिर नीचे लटक रहा है, तकलीफ हो रही है, तकिया दो।’ चतुर अर्जुनने तुरन्त तीन बाण मस्तकमें मारकर वीरवर भीष्मकी स्थितिके अनुकूल तकिया दे दिया। पितामहने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया; क्योंकि अर्जुनने जैसी शय्या थी वैसा ही तकिया दिया। उस समय महावीर भीष्मको आराम पहुँचानेकी इच्छासे उन्हें रूईका तकिया देना उन्हें कष्ट पहुँचाना था, उनके स्वरूपका अपमान था, उनके शूरत्वका उपहास था और था उनकी महिमाके प्रति अपना मोह—अज्ञान।

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इसी प्रकार साधु-महात्मा और विरक्त संन्यासियोंको उनके स्वरूप, धर्म, निष्ठा और साधनाके प्रतिकूल उन्हें आराम पहुँचानेके मोहसे भोगपदार्थोंको अर्पण करनेमें उनकी सेवा समझना उनका तिरस्कार करना है, उन्हें कष्ट पहुँचाना है। ‘शिव’ से एक बार एक महात्माने कहा था कि हम गृहस्थोंके घर इसलिये जाना पसंद नहीं करते कि वे अपनी स्थितिके साथ हमारी तुलना करके अपनी दृष्टिसे हमें आराम पहुँचानेकी चेष्टा करते हैं, जो हमारे लिये कष्टदायक होनेके साथ ही हमारे आदर्शके नष्ट करनेमें कारण होती है।

तितिक्षा, तप, त्याग, वैराग्य और ज्ञानमें ही उन आत्माराम महात्माओंके लिये सबसे बड़ा आराम है। आत्मसंतुष्टि ही उनके लिये परम सुख और आत्मतृप्ति ही परम तृप्ति है। ऐसे लोगोंके सामने भोग-सामग्री रखकर उसकी ओर उनका मन खींचनेकी चेष्टा करना उनके स्वरूपको न समझकर उनका उपहास करना है।

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यद्यपि सिद्ध-महात्माओंके लिये भोग और त्याग समान ही हैं, क्योंकि वे तो नित्य अखण्ड समतामें स्थित हैं तथापि संन्यासका आदर्श स्वरूप तो वैराग्य और त्याग ही है। सेवकोंको इस आदर्श स्वरूपकी रक्षामें सहायक होकर उनकी यथार्थ सेवा करनी चाहिये। ऐसा न करनेसे आदर्श नष्ट होगा। दूसरे, साधारण लोग बड़ोंकी ही नकल किया करते हैं। संन्यास-आश्रमी विरक्त महात्मालोग प्रकट या अप्रकटरूपसे स्वच्छन्दतापूर्वक (सेवकोंको प्रसन्न करनेके लिये ही) विषयी पुरुषोंकी भाँति भोग भोगने लगें तो यद्यपि अहंकार और आसक्तिका अभाव होनेसे सिद्ध-महात्माओंकी कोई हानि नहीं होती तथापि त्यागमय संन्यासका आदर्श तो बिगड़ता ही है। इसका परिणाम यह होगा कि अपरिपक्व स्थितिके सरल साधक विरक्त महात्माओंका अनुकरण कर अपने साधनपथमें भोगासक्तिका एक प्रबल प्रतिबन्धक खड़ा कर लेंगे, जिससे उनकी प्रगति रुक जायगी और भोगासक्त ढोंगी लोगोंको तो अपने स्वार्थसाधनका सुअवसर ही मिल जायगा। वे तो उन महात्माओंका नाम ले-लेकर अपने दोषोंका समर्थन करने लगेंगे। जिसका परिणाम उनका और उनके संगी-साथी सभीका अकल्याण होगा।

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लड़ाईके मैदानमें रणोन्मत्तता उत्पन्न करनेवाले जुझाऊ बाजोंकी जगह सितारका सुर निकाला जाय या मुरलीकी मधुर तान छेड़ी जाय, सोहनी या विहागका राग अलापा जाय, नाना प्रकारके शरीरसुखके पदार्थोंको उपस्थित करके चित्तको विचलित किया जाय अथवा घरवालोंकी दुर्दशाका चित्र खींचकर उनमें ममता जाग्रत् की जाय तो इससे जैसे रणबाँकुरे वीरका भी युद्धसे विमुख होना सम्भव है, वैसे ही त्यागके मार्गपर चलनेवाले त्यागी साधकोंके सामने उन्हें आराम पहुँचानेके खयालसे बार-बार भोगमय प्रपंचकी चर्चा करना और भोग-आरामकी चीजें दे-देकर उनके चित्तको लुभाना, उन्हें त्यागके पवित्र पथसे गिरानेमें सहायक होता है।

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‘शिव’ को ऐसे कई साधकोंका पता है, जो पहले बड़े त्यागी थे; परन्तु शिष्यों और सेवकोंने मोहवश उनके त्यागके आदर्शको नष्टकर उन्हें अपूज्य बना दिया। जिन महानुभावोंको किसी दिन कुछ भी संग्रह रखना अखरता था, वे ही एक दिन शरीरके आरामके लिये तुच्छ भोग-सामग्रियोंके संग्रहके लिये चिन्तित हो गये! यहाँतक हुआ, आदत यहाँतक बिगड़ी कि अब भोग-सामग्री न मिलनेपर उनके चित्तमें क्षोभ होने लगा और वे शिष्यों और सेवकोंसे उनके लिये ताकीद करने लगे। शिष्य और सेवक भी तभीतक श्रद्धापूर्वक देते हैं, जबतक लेनेसे नफरत की जाती है! जो नि:स्पृही पुरुष लेनेसे मुँह मोड़े रहते हैं, उन्हींको देनेके लिये दुनिया पीछे-पीछे फिरा करती है। जहाँ हाथ फैलाया, वहीं देनेवालोंकी भी पीठ दिखायी देती है। फिर तो याचना करनी पड़ती है, अपना दु:ख सुनाकर, अपना भाव बताकर दाताके मनमें दया उत्पन्न करनी पड़ती है। श्रद्धासे दया आती है, परंतु दया भी अधिक दिन नहीं ठहर पाती। अतएव फिर यदि कुछ दिया जाता है तो वह अश्रद्धासे भार समझकर, आफत मानकर, मनमें दु:ख पाकर, जो सर्वथा राजस दान होता है, इसके बाद तो वह तामसिकतामें परिणत हो जाता है जिससे सेव्य और सेवक—दाता और गृहीता दोनोंकी अधोगति होती है—‘अधो गच्छन्ति तामसा:’।

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‘शिव’ यह नहीं कहता कि सेवा न करो, सेवा अवश्य करो, भक्तिपूर्वक करो, योग्य अवसर प्राप्त होनेपर सर्वस्व अर्पण करनेके लिये भी तैयार रहो। उत्तम-से-उत्तम वस्तुको उनकी एक जबानपर लुटा दो। परंतु अपने अज्ञानसे, मोहसे, सच्चे साधुओंको आराम पहुँचानेके नामपर उन्हें तंग न करो, उन्हें कष्ट न पहुँचाओ, उनके आदर्शको नष्ट करनेका प्रयास न करो। उनमें त्यागका जो परम आकर्षण है, जिससे खिंचकर सहस्रों नर-नारी उनकी सेवामें आते हैं और अपने कल्याणका पथ प्राप्त करते हैं, उस त्यागके आकर्षणको नष्ट न करो।

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इसी प्रकार तुम्हारा कोई भी सम्बन्धी, भाई, पुत्र, मित्र यदि संयमका आदर्श ग्रहण करे तो मोहवश उसे आराम पहुँचानेकी चेष्टासे संयमके पवित्र पथसे लौटाकर भोगके नरकप्रद पथपर मत लाओ। भोगमें आरम्भमें सुख दीखता है; परंतु उसका परिणाम बहुत ही भयानक है और त्याग यद्यपि पहले भीषण लगता है परंतु उसका फल बहुत ही मीठा है। असली भोग—सच्चे सुखका भोग, दिव्य जीवनका भोग तो इस त्यागसे ही मिलता है, इन्द्रियोंके तुच्छ विषयभोगोंके त्यागसे वह दुर्लभ भोग मिलता है, वह परमानन्द मिलता है, जिसमें कहीं कोई विकार, अभाव, अपूर्णता या विनाश नहीं है। जो नित्य है, सत्य है, सनातन है, ध्रुव है, अपरिणामी है, अनन्त है, असीम है, अकल है, अनिर्देश्य है, अनिर्वचनीय है। यह भोग प्राप्त होनेपर फिर भोग और भगवान‍्में भेद नहीं रहता। वस्तुत: ये एक ही वस्तुके दो नाम हैं।

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