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॥ श्रीहरि:॥

‘शिव’ का निवेदन

मन तरंगोंका समुद्र है। ‘शिव’ के मनमें भी अनेक तरंगें उठती हैं, उन्हींमेंसे कुछ तरंगें लिपिबद्ध भी हो जाती हैं और उन्हीं अक्षराकारमें परिणत तरंगोंका यह एक छोटा-सा संग्रह प्रकाशित हो रहा है। इस संग्रहमें पुनरुक्ति और क्रमभंग दोष दिखायी देंगे, तरंगें ही जो ठहरीं। यह सत्य है कि तरंगोंके पीछे भी एक नियम काम करता है और वहाँ भी एक नियमित क्रमधारा ही चलती है, परन्तु उसे हम अपनी इन आँखोंसे देख नहीं पाते। हमें तो हवाके झोंकोंके साथ-साथ तरंगोंके भी अनेकों क्रमहीन और अनियमित रूप दीख पड़ते हैं। सम्भव है सूक्ष्मदृष्टिसे देखनेवाले पुरुषोंको इस तरंग-संग्रहमें भी किसी नियमका रूप दिखायी दे। ‘शिव’ को इससे कोई मतलब नहीं। ‘शिव’ ने तो प्रकाशकोंके कहनेसे इतना ही किया है कि इधर-उधर बिखरे वाक्योंको एकत्रकर उनपर कुछ शीर्षक बैठा दिये हैं। पाठकोंका इससे कोई लाभ या मनोरंजन होगा या नहीं इस बातको ‘शिव’ नहीं जानता।

यह पहले भागका निवेदन है। इसी निवेदनके साथ यह दूसरा भाग प्रकाशित हो रहा है।

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