सिद्धान्तको लेकर मत लड़ो
अभिमानवश यह मत कहो कि भगवान् ऐसे ही हैं और शास्त्रका तत्त्व यही है। याद रखो—भगवान्का यथार्थ ज्ञान पुस्तकें पढ़नेसे, तर्कयुक्तियोंकी प्रबलतासे या केवल दर्शनोंकी मीमांसासे नहीं हो सकता। इनसे बुद्धिकी प्रखरता तो बढ़ती है; परन्तु आगे चलकर वही बुद्धि ऐसे तर्कजालमें फँसा देती है कि फिर बाध्य होकर अभिमान और राग-द्वेषादिका प्रभाव स्वीकार करना पड़ता है और जीवन ही जंजाल बन जाता है।
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भगवान् सारी गीता कह जानेके बाद अठारहवें अध्यायके अन्तिम भागमें अपने यथार्थ ज्ञानकी प्राप्तिके उपाय बतलाते हैं। गीता तो सुना ही दी थी, फिर आवश्यकता क्या थी उपाय बतलानेकी? उपाय बतलानेका यही तात्पर्य है कि केवल पढ़नेसे काम नहीं होता, पढ़-सुनकर वैसा करना पड़ेगा, तब भगवान्की ‘परा भक्ति’ मिलेगी और परा भक्ति मिलनेपर भगवत्कृपासे भगवान्का यथार्थ ज्ञान होगा।
वे उपाय ये हैं—
सारी पाप-तापकी, छल-छिद्रकी, दम्भ-दर्पकी और ऐसे ही अन्यान्य दोषोंकी भावनाको मिटाकर बुद्धिको परम शुद्ध करो; एकान्तमें रहकर वृत्तियोंको संयत करो; परिमित और शुद्ध आहार करके शरीरका शोधन करो; मन, वाणी और शरीरपर अपना अधिकार स्थापन करो; दृढ़ वैराग्य धारण करो; नित्य भगवान्का ध्यान करो; विशुद्ध धारणासे अन्त:करणका नियमन करो; शब्दादि सब विषयोंका त्याग करो; राग-द्वेषकी जड़ काटो; अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रहका त्याग करो। सब जगहसे ममताको हटा लो और ऐसा करके चित्तको सर्वथा शान्त कर लो, तब ब्रह्मकी प्राप्तिके योग्य होओगे। इसके बाद ब्रह्मभूत-अवस्था, अखण्ड प्रसन्नता, शोक और आकांक्षासे रहित सम-स्थिति और सब भूतोंमें सम एकात्मभावके प्राप्त होनेपर, तब भगवान्की ‘परा भक्ति’ प्राप्त होगी। उस परा भक्तिसे भगवान्के तत्त्वका—अर्थात् भगवान् कैसे हैं, क्या हैं—यह ज्ञान होगा और तदनन्तर, ऐसा यथार्थ ज्ञान होते ही तुम भगवान्में प्रवेश कर जाओगे।
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सोचो, जिनको भगवान्का ऐसा ज्ञान हो गया, वे तो भगवान्में प्रवेश कर गये। जिनको ज्ञान नहीं हुआ, वे भगवान्को जानते नहीं। ऐसी अवस्थामें यह कहना कि ‘मैं भगवान्का तत्त्व जानता हूँ’—अहम्मन्यता ही तो है।
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लड़ना छोड़ो—यह मत कहो कि ‘भगवान् निर्गुण ही हैं, निराकार ही हैं, सगुण ही हैं, साकार ही हैं।’ वे सब कुछ हैं; उनकी वे ही जानें।
तुम पहले यह सोचो कि ऊपर बतलाये हुए उपायोंमेंसे तुमने कौन-कौन-सा उपाय पूरा साध लिया है। जब रास्ते ही नहीं चले, तब लक्ष्य-स्थानका रूप-रंग बतलाना कैसा? राह चलो, साधन करो। चलकर वहाँ पहुँच जाओ, फिर आप ही जान जाओगे, वहाँका रूप-रंग कैसा है।
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चलना तो शुरू ही नहीं किया और लड़ने लगे नक्शा देखकर! इससे बताओ क्या लाभ होगा? नक्शेमें ही रह जाओगे, असली स्वरूप तो सामने आवेगा नहीं। इसलिये विचार करो और अकड़ छोड़कर साधन करो; याद रखो—साधनकी पूर्णता होनेपर ही साध्यका स्वरूप सामने आता है।
भगवान्को जाननेके जो उपाय ऊपर बतलाये गये हैं, वे न हो सकें तो श्रद्धाके साथ भगवान्के शरणागत हो जाओ। कहोगे ‘हम तो भगवान्को जानते ही नहीं फिर किस भगवान्की शरण हो जायँ। इसीलिये तो भगवान्ने अर्जुनसे कहा—‘तुम एकमात्र मेरी शरणमें आ जाओ।’ बस, भगवान्की इस बातको मानकर अर्जुनको उपदेश देनेवाले सौन्दर्य-माधुर्यके अनन्त समुद्र, परम प्रिय, परम गुरु, परम ईश्वर पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णकी शरण हो जाओ। उनके इन शब्दोंको स्मरण रखो—‘मुझमें मन लगाओ, मेरे भक्त बन जाओ, मेरी पूजा करो, मुझे नमस्कार करो, मैं शपथ करके कहता हूँ तुम मुझको ही प्राप्त होओगे—याद रखो—तुम मुझे बड़े प्यारे हो!’
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और क्या चाहिये? बस, यदुकुलभूषण नन्दनन्दन आनन्दकन्द भगवान् मुकुन्दकी शरण हो जाओ, उनके कृपा-कटाक्षमात्रसे अपने-आप ही तुम सारे साधनोंसे सम्पन्न हो जाओगे; तुम्हें ‘परा भक्ति’ प्राप्त हो जायगी और तब तुम उन्हें यथार्थरूपमें जान सकोगे।
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गीतामें उन्होंने जो दिव्य वचन कहे हैं, उनके अनुसार अपनेको योग्य बनानेकी चेष्टा करते रहो, दैवीसम्पत्ति और भक्तोंके गुणोंका अर्जन करो। करो उन्हींकी कृपाके भरोसे और मन, वाणी, शरीरसे बारम्बार अपनेको एकमात्र उन्हींके चरणोंमें अर्पण करते रहो। जिस क्षण तुम्हारे समर्पणका भाव यथार्थ समर्पणके स्वरूपमें परिणत हो जायगा, उसी क्षण वे तुम्हें अपनी शरणमें ले लेंगे—बस, उसी क्षण तुम निहाल हो जाओगे।
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इसीलिये तर्कजालमें मत पड़ो, सिद्धान्तको लेकर मत लड़ो, साध्यतत्त्वकी मीमांसा करनेमें जीवन न लगाओ। जिनको पाण्डित्यका अभिमान है, उन्हें लड़ने दो, तुम बीचमें मत पड़ो। तुम तो बस, श्रीकृष्णको ही साध्यतत्त्व मानकर उनका आश्रय ले लो। गीतामें भगवान्ने इसीको सर्वोत्तम उपाय बतलाया है। गीता पढ़कर तुमने यदि ऐसा कर लिया तो निश्चय समझो—गीताका परम और चरम तत्त्व तुम अवश्य ही जान जाओगे। नहीं तो झगड़ते रहो और नाक रगड़ते रहो, न तत्त्व ही प्रकाशित होगा और न दु:खोंसे ही छूटोगे।