स्वरूपको सँभालो
याद रखो—तुम परमात्माके सनातन अंश हो, परमात्माकी दृष्टिसे तुम सदा परमात्मा ही हो। परमात्मा जिस प्रकार शुद्ध-बुद्ध-नित्यमुक्त हैं। वैसे ही तुम भी शुद्ध-बुद्ध-नित्यमुक्त हो। परमात्माकी ही भाँति तुम भी अनन्त, असीम, अपरिमेय, शाश्वत, ज्ञानमय और आनन्दमय हो; क्योंकि तुम उन्हीं पूर्णके पूर्ण सनातन अंश जो हो।
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अपने इस यथार्थ स्वरूपपर विश्वास करो, इस वास्तविक स्वरूपको पहचानो। तुम सत्यको देख सकते हो, तुम्हारा ज्ञान सत्यमय है, तुम सत्य ही हो। अपने इस सत्यस्वरूपमें स्थित हो जाओ।
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तुम सदा ही बन्धनरहित हो। अज्ञान, अविद्या, माया—ये सब तो तुम्हारी क्रीडा-कल्पना हैं। तुम असीम हो, तुम स्वयं ही अपने अन्दर विविध रूपोंमें विलास करते हो। पर अपने स्वरूपको भूल जानेके कारण तुम अपनेको मायाके बन्धनसे बँधे मान रहे हो। स्वरूपकी सच्ची स्मृति होते ही यह मिथ्या बन्धन टूट जायगा। सपनेसे जाग जानेकी भाँति तुम स्वरूपमें जाग जाओगे। असलमें तो कोई बन्धन है ही नहीं, कभी हुआ ही नहीं; यह तो भ्रम है—इस भ्रमको छोड़ दो, फिर बन्धनकी कल्पना भी नहीं रहेगी। यों तो यह भ्रम भी तुम्हारा विलास ही है। एक अखण्ड, असीम, आत्मस्वरूप तुम-ही-तुम हो।
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तुम नित्य, असीम, सुखस्वरूप हो, दु:ख-शोकका तुम्हारे अन्दर लेश भी नहीं है। तुम शुद्धस्वरूप हो, पाप-प्रपंचका तुम्हारे अन्दर लेश भी नहीं है। तुम अनन्त अखण्ड सत्तास्वरूप हो, मृत्युका—विनाशका तुम्हारे अन्दर लेश भी नहीं है। तुम ज्ञानस्वरूप हो, नित्य चेतन हो, अज्ञानका और जडताका तुम्हारे अन्दर लेश भी नहीं है। अन्दर और बाहर सर्वत्र तुम-ही-तुम हो, फिर इन दु:ख, पाप, विनाश, अज्ञान और जडताको रहनेके लिये स्थान ही कहाँ है? यह तो तुम्हारी ही कल्पना है। स्वरूपत: तुमसे भिन्न अगर कुछ है तो वह केवल तुम ही हो। सर्वत्र तुम्हारा ही प्रसार और विस्तार है।
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जैसे एक ही आकाश—आकाशसे ही उत्पन्न पार्थिव वस्तुओंसे बने हुए नगर, मकान, कमरे, घड़े आदिके भेदसे अलग-अलग छोटे-छोटे भागोंमें विभक्त दीखता है, जैसे एक ही पुरुष स्वप्नमें अपने ही संकल्पसे अपने ही अंदर नाना प्रकारकी सृष्टिरचना करके विभिन्न विचित्र स्वरूपों और घटनाओंको देखता है, वैसे ही एक ही अखण्ड आत्मामें स्थावर-जंगमात्मक समस्त जगत् दीखता है। आत्मा ही अपने संकल्पसे इन सबको रचकर स्वयं ही इन सबको देखता है। वस्तुत: ये दृश्य, दर्शन उस द्रष्टा आत्मासे अभिन्न हैं। वह आत्मा तुम ही हो। तुम जगत्की दृष्टिमें जीव हो, मायाकी नजरसे नित्य शुद्ध-बुद्ध स्वप्रकाश परमात्मासे पृथक् दीखते हो—स्वरूपत: तुम परमात्मासे अभिन्न एक अखण्ड आत्मा ही हो।
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अपने इस स्वरूपमें स्थित होकर देखो—तुम्हारे सिवा और कुछ है ही नहीं। तुम एक, नित्य, सत्य, सनातन, अनादि, अनन्त, अखण्ड, अपार, अव्यय, कूटस्थ, अपरिमेय, अचिन्त्य, सच्चिदानन्दघन हो। बस, ऐसी दृष्टि पाते ही तुम मुक्त हो जाओगे। मुक्त तो हो ही। बन्धनके स्वकल्पित भयसे जो अशान्त हो रहे हो—भ्रमका नाश होनेपर वह अशान्ति दूर हो जायगी और तुम अपने स्वरूपभूत प्रशान्त महासागरमें मिलकर अपने शाश्वत शान्तिस्वरूपका अनुभव करोगे। यह अनुभूति भी तुम्हारे स्वरूपसे अभिन्न ही होगी।