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तुम क्यों चिन्ता करते हो?

तुम क्यों चिन्ता करते हो? चिन्ता करनेवाले तो वे हैं जिन्होंने माताके गर्भमें तुम्हारी रक्षा की थी और जन्म होनेपर तुम्हारे पीनेके लिये पहलेसे ही माताके स्तनोंमें दूध पैदा कर दिया था। तुम तो बस, एक मनसे उन्हींका चिन्तन करो।

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चित्तसे उनका चिन्तन करो, इन्द्रियोंसे उनकी सेवा करो, जीवनका प्रत्येक कार्य उन्हींकी सेवाके लिये ही करो। परन्तु याद रखो—उनकी सेवाके लिये जो कार्य होते हैं, वे सत्कार ही होते हैं। बुरे कर्मोंसे उनकी सेवा नहीं हो सकती। भगवान‍्की सेवाके लिये किये जानेवाले शुभ कर्मोंका नाम ही सदाचार है।

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यह सदाचार ही मनुष्यका यथार्थ जीवन है। सदाचाररहित मनुष्य तो जीता हुआ ही मुर्देके समान है। बाहर कितनी ही सुन्दरता क्यों न हो, देहको कैसे भी क्यों न सजाया जाय; यदि सदाचार नहीं है तो कुछ भी नहीं है। वरं सदाचारशून्य मनुष्यके देहकी सजावट तो ऐसे ही है, जैसे जहरसे भरे हुए सोनेके कलशकी!

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निरन्तर अपने अन्दर सद‍्गुणोंको भरनेकी चेष्टा करते रहो और सत्कर्मके लिये ही प्रयत्न करो। ये सद‍्गुण और सत्कर्म भी केवल भगवत्-पूजनके लिये ही होने चाहिये। इनके बदलेमें मिलनेवाली लौकिक पूजा-मान-बड़ाईको यदि इनका फल समझ बैठोगे तो याद रखो, गिरते देर नहीं लगेगी। सद‍्गुण और सत्-कर्म सारे शीघ्र ही नष्ट हो जायँगे। दैवी सम्पदाके गुण भगवान‍्के आश्रयपर ही ठहरते हैं, मान-सम्मान या पूजा-प्रतिष्ठाके आधारपर कदापि नहीं।

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जिसके जीवनका लक्ष्य भगवान् होते हैं और जो इस लक्ष्यको दृढ़ताके साथ बनाये रखता है। जगत‍्की विपत्तियाँ उसके मार्गमें रोड़े नहीं अटका सकतीं। भगवत्कृपासे उसका पथ निष्कण्टक हो जाता है।

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कहीं काँटे रहते भी हैं तो भी उसका पैर उनपर टिकते ही वे मखमलके तारोंकी तरह कोमल हो जाते हैं। कोई भी विघ्न उसके सामने आकर विघ्नरूप नहीं रहते; वरन् उलटे उसके सहायक बन जाते हैं।

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जीवनका लक्ष्य निश्चय करते समय भगवत्प्राप्त महापुरुषों और भक्तोंके जीवनचरित्रोंका अध्ययन करो, उससे तुम्हें अपने लक्ष्य स्थिर करनेमें सहायता मिलेगी और लक्ष्यकी ओर चलनेमें बल, अवलम्बन और पाथेय मिलेगा।

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याद रखो—बातोंसे रास्ता नहीं कटता; बहुत ऊँची-ऊँची बातें तो नाटकके पात्र भी किया करते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण, भीष्मपितामह, शंकराचार्य और शुकदेव आदिका अभिनय करनेवाले कहनेमें कौन-सी कमी रखते हैं; परन्तु उससे होता क्या है। जबतक जीवन पवित्र नहीं होता—जीवनमें वे बातें नहीं उतरतीं तबतक वह नाटकमात्र है। इस नाट्यसे यदि कहीं बड़ाई मिल जाय तो उससे अपनी स्थितिको न भूल जाओ। जगत‍्के लोग तुम्हारी बातोंसे मुग्ध होकर धोखा खा सकते हैं; परन्तु अन्दरकी जाननेवाले भगवान‍्को तुम नहीं छल सकते। भगवान् तो तुम्हारे सच्चे और ऊँचे जीवनपर ही रीझेंगे—बातोंपर नहीं!

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जीवनमें कुछ पवित्रता और सचाई आ भी जाय, परन्तु जबतक अपवित्रताका एक भी कण या जरा-सी भी बुराई हृदयमें दिखायी दे तबतक सन्तोष न करो। बुराई और अपवित्रता रहते अपनेको धर्मात्मा, महात्मा या भक्त तो कभी मानो ही मत। दूसरे ऐसा कहें तो हो सके तो उन्हें अपनी सच्ची हालत समझा दो, नहीं तो उनकी उपेक्षा करो। ऐसा न करोगे और अपनेको बड़ा मान बैठोगे तो याद रखो, बहुत बुरी दशा होगी।

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निरन्तर आगे बढ़ते रहो, रुको मत, पर अपनी स्थितिपर अभिमान न करो। जबतक अभिमान, ममता या आसक्तिका जरा भी बीज देख पाओ, तबतक साधनामें विश्रामको जरा भी स्थान मत दो।

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दूसरोंकी निन्दा कभी न करो, न दूसरोंको बुरा समझो। तुम्हें फुरसत नहीं मिलनी चाहिये अपनी व्यवस्था और अवस्थाकी देखभालसे। दूसरोंकी ओर देखे बिना न रहा जाय तो केवल उनके गुणोंको, उनके सत्कर्मोंको और उनके शीलको ही देखो!

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