वैराग्यके साधन
जबतक विषयोंमें आसक्ति है, तबतक चित्तकी चंचलता नहीं मिट सकती और चित्तकी चंचलता रहते किसी भी बाह्य स्थितिमें कभी शान्ति नहीं मिल सकती। शान्ति चाहते हो तो विषयोंमें वैराग्य करो। याद रखो, परम वैराग्यवान् पुरुष ही परम शान्ति पा सकता है।
यह वैराग्य केवल बाहरी वस्तुओंको हठपूर्वक त्याग देनेमात्रसे ही नहीं होता। जबतक चित्तमें विषयोंका चसका लगा है, तबतक वैराग्य असली नहीं है। असली वैराग्य तो तब समझना चाहिये जब यह चसका (रस) भी नष्ट हो जाय।
वैराग्यकी प्राप्तिके लिये नीचे लिखे साधन करके देखो—ये सभी साधन न सबके कामके हैं और न सभी इन सबको कर ही सकते हैं, अपनी-अपनी स्थितिके अनुसार ही किये जा सकेंगे। करनेवालोंको वैराग्यकी प्राप्तिमें कुछ-न-कुछ लाभ तो होगा ही। जैसी चेष्टा होगी वैसा ही फल होगा।
१—ऐसा विचार करो कि विषयोंमें रमणीयता कहीं नहीं है, इनके सौन्दर्यका आधार सिर्फ हमारे मनकी कल्पना है। जिस स्त्री या पुरुषके रूपपर पुरुष या स्त्री मोहित होते हैं, वह रूप वस्तुत: क्या है? अपनी कल्पनासे ही उन्होंने उसपर सौन्दर्यका आरोप कर लिया है। चमड़ी, हड्डी, केश, नख और शरीरके अन्दर भरे हुए मल, मूत्र, मेद, मज्जा, रक्त, मांस आदिमें कौन-सी चीज असलमें सुन्दर है। मरे हुए मनुष्यका यही ढाँचा भयानक क्यों मालूम होता है? इसीलिये कि वहाँ उसमें रमणीयताकी कल्पना नहीं है।
२—ऐसा विचार करो कि विषयोंमें सुख कहीं नहीं है, भ्रमसे ही तुमने दु:खमें सुखका मिथ्या आरोप कर रखा है। गीतामें भगवान्ने विषयोंको ‘दु:खयोनि’, विषयरूप संसारको ‘असुख’ और ‘दु:खालय’ बतलाया है। भगवान्के वचनोंके साथ ही युक्तियोंसे भी सोचो—विषय दु:खरूप हैं या नहीं। विषयोंके अभावमें दु:ख है, उनके उपार्जनमें दु:ख है, उनकी प्राप्तिमें दु:ख है, परिणाममें दु:ख है, संस्कारमें दु:ख है, विषयसम्बन्धी गुणवृत्तियोंके विरोधमें दु:ख है। अभावका दु:ख प्रत्यक्ष ही है। उपार्जनमें कितना क्लेश होता है, इस बातका पता धनके पीछे पड़े हुए सभी मनुष्योंको है। दिन-रात चिन्ताकी भट्ठीमें जलना पड़ता है।
‘प्राप्ति’ में यद्यपि भ्रमवश कहीं-कहीं सुख-सा दीखता है, परंतु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं होती। कोई विषय ऐसा नहीं जो जलानेवाला न हो; संसारमें प्रत्येक विषय अपूर्ण है, वह अपनी पूर्णताके लिये दूसरी वस्तुकी अपेक्षा रखता है। पुत्र है तो उसे पढ़ाना है। उसका विवाह करना है, उसे सुयोग्य बनाना है, इस तरह नाना प्रकारकी कमी दिखायी पड़ती है जो सदा जलाया करती है। दूसरा कितना बढ़ गया, उसके पास धन अधिक हो गया, उसका सम्मान मुझसे अधिक है, उसके पुत्र हमारे पुत्रोंकी अपेक्षा अधिक योग्य हैं, इस तरह अपनी न्यूनतासे हृदयमें सदा जलन रहती है, और यह न्यूनता विषयोंसे कभी पूरी होती ही नहीं।
जो वस्तु आज है, कल जब वह नष्ट होगी या उसे बलात् छोड़ना पड़ेगा, तब बड़ा दु:ख होगा। संसारमें प्रत्येक विषयका यही हाल है। आज है, कल नष्ट होगा या उसे यहीं छोड़कर हम कहीं और चले जायँगे। यह परिणाम दु:खदायी नहीं तो और क्या है? वस्तुत: विषयमात्र परिणाममें दु:खदायी है ही। इनमें सुखकी प्रतीति तो केवल भ्रमवश भोगकालमें होती है। जैसे दादको खुजलाते समय सुख मालूम होता है, परन्तु परिणाममें जलन होनेपर बड़ा दु:ख होता है, वैसे ही सब विषयोंको समझो।
हाय! हम पहले कैसे सुखी थे; धन, पुत्र और सेवकोंसे घर भरा था, जवानीका मजा था, स्त्री कैसी सुन्दरी और सुशीला थी। जगत् भरमें यश फैला था। अब सब कुछ जाता रहा। हमारे समान दु:खी और कौन होगा? इस तरह प्राप्त विषयोंके संस्कार भी दु:ख देते हैं। अमुक विषय चाहिये, कैसे प्राप्ति हो? एक आदमीने वह उपाय बतलाया, आज उसने कहा, वह तो ठीक नहीं है, यह करो! वह उपाय अच्छा था, उसमें कोई पाप नहीं था, इसमें पाप है, परन्तु क्या करें। काम तो निकालना ही होगा। इस तरह गुणजन्य वृत्तियोंमें विरोध होनेसे चित्त घबरा उठता है। दु:खका पार नहीं रहता। क्या करें, क्या न करें। इसी उधेड़-बुनमें जी जला करता है।
इस प्रकार विषयोंमें दु:ख देकर उनसे मनको हटाओ। मनमें निश्चय करो विषयोंमें न रमणीयता है, न सुख! उनमें दोष और दु:ख-बुद्धि करो। धन-यौवनके गर्व, ऐश-आराम, पद-सम्मान, सजावट-शौकीनी, रूप-रंग, पूजा-प्रतिष्ठा, आदर-सत्कार आदिमें प्रत्यक्ष तापका अनुभव करो; इनसे भय करो, साँप-बिच्छू और प्रेत-पिशाचोंसे भी इन्हें भयानक समझो। किसी भी लोभ, लालच या प्रमादसे दूसरेके हितकी भ्रमपूर्ण भावनासे भी इनमें न फँसो। विषय-सुखको शरीर, शौर्य, शान्ति सबका नाश करनेवाला समझकर उससे चित्तवृत्तिको बार-बार हटाते रहो।
३—विषयोंसे चित्त हटानेके लिये प्रेम और नियमपूर्वक सत्संग और भजन करो; सत्संग और भगवान्के भजनसे चित्त स्थिर और निर्मल होगा। जितना-जितना चित्तरूपी आधार मलदोषसे रहित और स्थिर होगा, उतना-उतना ही उसमें परमानन्दरूप भगवान्की झाँकी स्पष्ट होती जायगी। भगवान्की नित्य अनन्त सुखमय झाँकीके सामने विषयोंका सारा सुखसौन्दर्य अपने-आप ही नष्ट होता जायगा। फिर भगवान्के सिवा अन्य विषयोंमें रस घटता जायगा। वैराग्य क्रमश: अपने-आप चमकेगा और वैराग्यके सुप्रकाशमें भगवान्की झाँकी और भी स्पष्टतर होगी। यों वैराग्यसे भगवान्का प्रकाश और भगवान्के प्रकाशसे वैराग्यकी उज्ज्वलता बढ़ती जायगी। परिणाममें एक परमानन्दमय भगवान्का ही सारे हृदयपर अधिकार हो जायगा, तुम्हारा दु:ख, विषाद और चांचल्य सर्वथा मिट जायगा। तुम भगवान्के परम तत्त्वको पाकर कृतार्थ हो जाओगे। उस परम तत्त्वरूप भगवान्की अखण्ड अनामय और अनन्त-आनन्दसुधारसमयी मुनिमनहारिणी परम मधुर झाँकीका प्रत्यक्ष कर लेनेपर अन्य समस्त रस सूख जायँगे और एकमात्र उसी अनन्त अमृतरससे समस्त विश्वब्रह्माण्ड भर जायगा। फिर कहीं भी अशान्ति और असुखका अस्तित्व नहीं रह जायगा। तुम दिव्यसुखके अनन्त सागरमें निमग्न हो जाओगे। स्वयं आनन्दमय होते हुए ही आनन्दका अनुभव करोगे। एक होते हुए ही अनेकों अनन्त लीलाओंके दर्शन करोगे। उस समय तुम क्या होओगे, इस बातको कोई बता नहीं सकता, न बता सकेगा।
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याद रखो—संसारके विषय कभी पूरे नहीं होंगे। जितना भोगोगे, उतनी ही वासना बढ़ेगी और इन्हीं वासनाओंमें मर जाओगे तो फिर आगे भी वही चरखा तैयार मिलेगा। परन्तु यह मत खयाल करो कि घर छोड़ने, राख रमाने, सिर मुड़वाने, जटा रखाने या भीख माँगनेमें वैराग्य है। न यही निश्चय करो, गृहस्थके सब कर्मोंके करते रहनेसे ही वैराग्य हो जायगा। वैराग्यका आधार तो मन है। मन फँसा है तो राग है और मन यदि छूटा है तो वैराग्य है। घर करो, या घर छोड़ो—यदि मनकी विषयासक्ति नहीं छूटती तो फँसे हो। संयम, वैराग्य और साधनाके लिये घर छोड़ते हो और छोड़ने लायक हो तो छोड़ना भी ठीक है, इसी प्रकार संयम, वैराग्य और साधनाके लिये घरमें रहना चाहो तो वह रहना भी मुक्तिके लिये ही है। कहीं-कहीं छोड़नेमें बँधना होता है और बँधनेमें छोड़ना। खूब सोच-विचारकर काम करो। लक्ष्य रहे वैराग्य-विषयोंकी आसक्तिसे मुक्ति।
वैराग्य होगा तो शान्ति अवश्य ही प्राप्त होगी।
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जीभके स्वादसे चित्तको हटाओ। शरीरका आराम न चाहो और मान-प्रतिष्ठासे तो सदा डरते ही रहो। इनसे घृणा करो। साधककी हैसियतसे द्वेष करो तो भी तुम्हारा कल्याण ही होगा।
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परमात्माको कभी न भूलो। निश्चय करो—वह तुम्हारा परम आत्मीय है, परम स्वजन है; वह ज्ञान, प्रेम, वात्सल्य, कृपा, दया, सुख, आनन्द, मंगल और कल्याणका अटूट खजाना है। उस एकके आश्रयसे ये सभी वस्तुएँ अपने-आप मिल जाती हैं। ऐश्वर्य, अमरत्व, माधुर्य, सत्य, सौन्दर्य—सभीका वह अनन्त सागर है। वह कल्याणमय, सौन्दर्यमय, शिवमय, प्रेममय, ज्ञानमय, मंगलमय और आनन्दमय है। वह निर्गुण, सगुण, निराकार, साकार सब कुछ है। वह तुम्हारा परम पिता, परम पति, परम गुरु, परम सखा, परम सुहृद्, परम ईश्वर, परम धन और परम सम्पत्ति है। वही तुम्हारी प्रियतमा पत्नी और परम स्नेहपात्र सन्तान है। वही माता बनकर तुम्हें स्तनपान कराता है और वही पुत्र बनकर स्तनपान करता है। तुम्हारे वात्सल्यका और तुम्हारी भक्तिका वही एक पात्र है। तुम उसके हो, वह तुम्हारा है। तुम्हारा यह नाता अटूट है। फिर उसे भुलाकर क्यों दूसरेको भजते हो? क्यों सारको त्यागकर असारके लिये भटकते हो? क्यों कारणको छोड़कर कार्यपर मोहित होते हो? क्यों कायाका परित्यागकर छायाके पीछे दौड़ते हो?
याद रखो, उसके बिना ही संसार दु:खमय है। जहाँ उसे पा जाओगे, फिर तमाम जगत् तुम्हें आनन्दमें डूबा हुआ आनन्दमय दीखेगा। और यह विश्वास करो कि तुम उसके अपने हो, वह निरन्तर तुम्हारे साथ है, हर समय तुम्हारी सहायता और रक्षाके लिये हर जगह तैयार है। वह तुम्हारा अपना आत्मा ही है। उसे ऐसा मान और जानकर निर्भय हो जाओ। उसके चरणोंपर अपनेको न्योछावर कर दो।