गीता गंगा
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वेदान्त-तत्त्व

वेद कहते हैं अनन्त ज्ञानराशिको। इस सम्पूर्ण ज्ञानका जिसमें पर्यवसान होता है, जिसमें ‘अन्त’ होता है उसे वेदान्त कहते हैं। इस ‘अन्त’ का अर्थ विनाश नहीं है। अन्तका अर्थ है सम्पूर्ण ज्ञानराशिका चरम और परम फल। ज्ञानका यह चरम फल ही इसका मूल स्रोत भी है। मतलब यह कि जिससे समस्त ज्ञान निकलता है और जिसमें जाकर मिल जाता है, उसका नाम वेदान्त है। वेदान्त-प्रतिपादित तत्त्व ही यह वेदान्त है। उस तत्त्वका वर्णन वाणीसे नहीं हो सकता, मन वहाँतक नहीं पहुँच सकता, बुद्धि उसका निर्णय नहीं कर सकती। वह अनिर्वचनीय है, अचिन्त्य है।

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ऐसे अनिर्वचनीय वेदान्ततत्त्वके सम्बन्धमें वाणीसे कुछ कहना या लेखनीसे उसका प्रतिपादन करने जाना एक प्रकारसे हास्यास्पद ही है। अत: वह कैसा है, क्या है, इस बातको लेकर परस्पर विवाद करनेमें कोई लाभ नहीं। परन्तु अहंकारवश विवाद हो ही जाता है। वेदान्त-तत्त्वको पानेकी जिनकी इच्छा हो, उनको विवादसे जरूर अलग रहना चाहिये।

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एक ही सत्यको पानेके अनेक मार्ग हैं। विविध दिशाओंसे उस एककी ओर अग्रसर हुआ जा सकता है; जो जिस दिशामें है, वह अपनी दिशासे ही उसकी ओर चलेगा। सब एक दिशासे नहीं चल सकते; क्योंकि सब एक दिशामें हैं ही नहीं। हाँ, सबका लक्ष्य वह एक ही है, इसलिये अन्तमें सब उस एकहीमें पहुँचेंगे; परन्तु दिशाभेदके अनुसार मार्ग तो भिन्न-भिन्न होंगे ही। तुम जिस मार्गसे चलते हो, वह भी ठीक है और दूसरा जिससे चलता है, वह भी ठीक हो सकता है। तुम्हारा और उसका लक्ष्य तो एक ही है। फिर विवाद किस बातका? इसीलिये अपने मार्गपर चलो, सावधानीके साथ अग्रसर होते रहो, दूसरेकी ओर मत ताको। न किसीको गलत समझो और न अपने निर्दिष्ट मार्गको छोड़ो।

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विवाद छोड़कर विचार करो। प्रमाद त्यागकर भजन करो। याद रखो—भगवान‍्का भजन ऐसा कुशल पथ-प्रदर्शक है, जो तुम्हें सदा यथार्थ मार्ग दिखलाता रहेगा। तुम कभी मार्ग भूल नहीं सकोगे।

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भजनके साथ साधनचतुष्टयका अभ्यास जरूर करो। विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति (शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा और समाधान) तथा मुमुक्षुत्व—यही चार प्रधान साधन हैं। इनके साथ जो भजन होगा, वह तुम्हें वेदान्तका तत्त्व बहुत ही शीघ्र प्राप्त करानेवाला होगा।

भजनको शुद्ध बनाये रखनेके लिये इन चारोंकी बड़ी ही आवश्यकता है।

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सत्संगका श्रद्धापूर्वक सेवन करो, भगवान‍्के पवित्र नामोंका जप और कीर्तन करो, संसारकी असारता और क्षणभंगुरतापर विचार करो, विषयोंके दु:खमय और अनित्य स्वरूपको सोचो और आत्माकी नित्यता और सुखरूपताका अनुभव करो।

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आत्मा नित्य है, शुद्ध है, निर्विकार है, अज है, सनातन है, चेतन है और ज्ञानमय है। आत्मा परमात्माका ही स्वरूप है। आत्माको जाननेसे ही परमात्माको जाना जा सकता है और परमात्माको जाननेपर आत्मा और परमात्माका कोई भेद नहीं रह जाता, वह उसमें मिल जाता है। मिलनेका प्रधान साधन है—प्रेम अथवा पराभक्ति और इस प्रेमका प्रादुर्भाव होता है ज्ञानसे। इस ज्ञानके जो साधन परमात्मा श्रीकृष्णने बतलाये हैं, उनका सारांश यह है—

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बुद्धिको विशुद्ध करो, एकान्तमें भजन करो, हलका हितकारी थोड़ा आहार करो; मन, वाणी और शरीरको वशमें रखो; संसारके विषयोंसे भलीभाँति वैराग्य करो, नित्य ध्यान करो, सात्त्विकी धृतिसे अन्त:करणका नियमन करो, शब्दादि विषयोंका त्याग करो, राग-द्वेषको छोड़ो; अहंकार, शरीर, जन और धनके बलका आश्रय, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रहका त्याग करो; ममता किसीमें न रखो, चित्तको शान्त करो; तब तुम ब्रह्मस्वरूप आत्माको जाननेके योग्य बनोगे।

‘फिर ब्रह्ममें तुम्हारी स्थिति होगी, तुम्हारा चित्त प्रसन्न हो जायगा, तुम्हें न किसी वस्तुके नाशसे शोक होगा और न किसी चीजकी चाह रहेगी। तुम सब भूतोंमें समभावको प्राप्त हो जाओगे। ऐसा होनेपर तुम्हारा मुझ परमात्मामें प्रेम होगा—मेरी पराभक्ति मिलेगी। उस भक्तिसे मेरे यथार्थ स्वरूपको तत्त्वसे तुम जान सकोगे और उसे जानते ही तुम उसी क्षण मुझमें प्रवेश कर जाओगे। मैं और तुम दोनों एक हो जायँगे।’ इसीका नाम ‘ज्ञानकी परानिष्ठा’ भी है।

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परमात्माके इस अमूल्य उपदेशपर ध्यान देकर इसके अनुसार साधन करो—तभी वेदान्त-तत्त्वको पा सकोगे। याद रखो—विवाद या झगड़ेसे कुछ भी नहीं होगा। तुम्हारी शब्दोंकी हार-जीत तुम्हें मिथ्या विषाद और हर्षके चक्‍करमें ही डालेगी। उससे लाभ कुछ भी नहीं होगा। लाभ तो साधनसे होगा। इसलिये झूठे झगड़ेको छोड़कर साधनमें लग जाओ—जी-जानसे लग जाओ। मनुष्य-जीवन बहुत थोड़े दिनोंका है, देर न करो। याद रखो—देरमें कहीं मानव-जीवनका अवसान हो गया तो पीछे बहुत पछताना पड़ेगा।

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