व्यक्तित्वका प्रचार मत करो
सावधान! कहीं धर्म, सदाचार, ईश्वरभक्ति और ज्ञान-वैराग्यके प्रचारके नामपर अपने व्यक्तित्वका प्रचार मत करने लगना। ऐसा होना बहुत ही सहज है। आरम्भमें शुद्ध भावनाके कारण प्रचारके विषयकी ही प्रधानता रहती है, परन्तु आगे चलकर ज्यों-ज्यों प्रचारका क्षेत्र बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों प्रचारके विषयकी गौणता और अपने व्यक्तित्वकी मुख्यता हो जाया करती है। भगवान्, धर्म और ज्ञान-वैराग्य आदिके स्थानपर प्रचारककी पूजा-प्रतिष्ठा होने लगती है और वह भी इसीमें रम जाता है। इसीसे नये-नये दलोंकी या सम्प्रदायोंकी सृष्टि होती है।
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अवश्य ही जिस पुरुषके द्वारा लोगोंको लाभ होता है अथवा किसी हेतुसे भी होनेकी आशा या सम्भावना होती है, उसके व्यक्तित्वकी प्रतिष्ठा होती है और उसका प्रचार भी होता है। तथापि उसको तो सावधान रहना ही चाहिये। नहीं तो परिणाम यह होगा कि जिस विषयका प्रचार करनेके लिये उसने कार्यक्षेत्रमें पैर रखा था, उस विषयके प्रचारमें वह स्वयं ही बाधक हो जायगा और अपने व्यक्तित्वकी प्रतिष्ठाके लिये लोकरंजनका अभिलाषी होकर अपने मूल उद्देश्यसे गिर जायगा।
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शुद्ध भाव दीखनेपर भी प्रचारक अपने मनमें मोहवश लोकरंजनकी आवश्यकताका अनुभव किया करता है। वह सोचता है कि भगवत्-भक्ति आदिका प्रचार तभी होगा, जब लोग मेरी ओर आकर्षित होकर मेरी बात सुनेंगे और लोगोंको अपनी ओर आकर्षित करनेके लिये मुझे अपने रहन-सहनमें, कथनी-करनीमें, बोल-चालमें, व्यवहारमें, भाषामें, स्वरमें और भावभंगी आदिमें कुछ विशेषता लानी चाहिये। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भगवद्भक्तोंके बाहर-भीतरके सभी आचरणोंमें साधारण लोगोंकी अपेक्षा ऐसी कुछ विलक्षणता अवश्य होनी चाहिये, जिससे उनके आदर्शके अनुसार अन्यान्य लोग अपना चरित्र निर्माण कर सकें और भगवद्भक्तिका यथार्थ प्रचार हो। बुरे आचरणवाला भक्त लोगोंके सामने बुरा आदर्श रखनेवाला होनेके कारण भगवद्भक्तिका प्रचार नहीं कर सकता। वस्तुत:वह भगवद्भक्त ही नहीं है; क्योंकि सच्चे भक्तमें बुरे आचरणोंका अभाव ही होता है। परन्तु शुद्ध आचरणोंकी विलक्षणता स्वाभाविक होनी चाहिये लोगोंको दिखानेके लिये नहीं। जहाँ दिखानेकी भावना है, वहीं मनमें मोहवश गुप्तरूपसे व्यक्तित्वकी प्रतिष्ठाका मनोरथ छिपा है जो भगवद्भक्तिके प्रचारके लिये लोकरंजनकी आवश्यकताका अनुभव करानेमें प्रधान हेतु होता है।
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लोकरंजनकी इच्छावाला मनुष्य शुद्धाचारी ही हो, ऐसी बात नहीं है। उसको तो अपने बाहरी दिखावेपर अधिक ध्यान रखना पड़ता है, इसीसे वह सुन्दर स्वरमें गाना, मधुर भाषामें व्याख्यान देना, नाचना, लोगोंको हँसाने-रुलानेके उद्देश्यसे विभिन्न प्रकारके स्वरोंमें बोलना, भाव बताना, मुखाकृति करना, ध्यानस्थकी भाँति बैठना आदि न मालूम कितनी बातें करता है। उसका ध्यान रहता है कि मेरे गायनसे, मेरे भाषणसे, मेरे व्याख्यानसे, मेरे सत्संगसे और मेरी ध्यानस्थ मूर्तिसे लोगोंका मेरी ओर खिंचाव हुआ या नहीं। गान, नृत्य, भावप्रदर्शन आदि चीजें कलाकी दृष्टिसे बहुत उपादेय हैं और किसी सीमातक प्रचारकी दृष्टिसे भी इनकी उपयोगिता है, परन्तु जहाँ और जितने अंशमें इनका उपयोग केवल लोकरंजनके लिये होता है, वहाँ उतने अंशमें इस लोकरंजनके पीछे, किसी भी हेतुसे हो, अपने व्यक्तित्वके प्रचारकी वासना छिपी रहती है। तुम यदि साधक पुरुष हो अथवा अपना पारमार्थिक कल्याण चाहते हो तो ऐसी वासनाको मनमें कहीं किसी कोनेमें भी मत रहने दो। भगवान्की भक्ति और सदाचारका प्रचार भगवत्सेवाके लिये ही करो।
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सच्ची बात तो यह है कि भगवद्भक्ति, ज्ञान और वैराग्य तो प्रचारकी चीज ही नहीं हैं। योग्य अधिकारीके द्वारा ही योग्य अधिकारीको इनका उपदेश होता है और तभी अच्छा फल भी होता है।