योगका अर्थ
योगका यथार्थ अर्थ समझो। वह अर्थ है—‘श्रीभगवान्के साथ युक्त हो जाना,’ ‘भगवान्को यथार्थमें पा लेना’ या ‘भगवत्प्रेमरूप अथवा भगवद्रूप हो जाना’। यही जीवका परम ध्येय है। जबतक जीव इस स्थितिमें नहीं पहुँच जायगा, तबतक न उसको तृप्ति होगी, न शान्ति मिलेगी, न भटकना बन्द होगा और न किसी पूर्ण, नित्य, सनातन, आनन्दरूप तत्त्वके संयोगकी अतृप्त और प्रच्छन्न आकांक्षाकी ही पूर्ति होगी। इस पूर्णके संयोगका नाम ही योग है अथवा इसको पानेके लिये जो जीवका विविधरूप सावधान प्रयत्न है, उसका नाम भी योग है। यह पूर्णकी प्राप्तिका प्रयत्न जिस क्रियाके साथ जुड़ता है, वही योग बन जाता है। कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, ध्यानयोग, सांख्ययोग, राजयोग, मन्त्रयोग, लययोग, हठयोग आदि इसीके नाम हैं; परन्तु यह याद रखो कि जो कर्म, ज्ञान, भक्ति, ध्यान, सांख्य, मन्त्र, लय या हठकी क्रिया भगवन्मुखी नहीं है, वह योग नहीं है, कुयोग है और उससे प्राय: पतन ही होता है।
अतएव इन सब योगोंमेंसे, जिसमें तुम्हारी रुचि हो, उसीको भगवत्प्राप्तिका मार्ग मानकर सादर ग्रहण करो। ये सब योग भिन्न-भिन्न भी हैं और इनका परस्पर मेल भी है। यों तो किसी भी योगमें ऐसी बात नहीं है कि वह दूसरेकी बिलकुल अपेक्षा न रखता हो, परन्तु प्रधानता-गौणताका अन्तर तो है ही। कुछ योगोंका सुन्दर समन्वय भी है। गीतामें ऐसा ही समन्वय प्राप्त होता है। केवल शरीर, केवल वाणी, केवल मन, केवल बुद्धि आदिसे जैसे कोई काम ठीक नहीं होता, इसी प्रकार योगोंके विषयमें भी समझो।
हाँ, इतना जरूर ध्यान रहे कि जिन योगोंमें मनका संयोग होनेपर भी (जैसे नेति, धौति आदि षट्कर्म; बन्ध, मुद्रा, प्राणायाम, कुण्डलिनी-जागरण आदि) शारीरिक क्रियाओंकी प्रधानता है अथवा मन्त्र-तन्त्रादिसे सम्बन्धित देवविशेषकी पूजा-पद्धति मुख्य है, उनमें अज्ञान, अविधि, अव्यवस्था, अनियमितता होनेसे लाभ तो होता ही नहीं, उलटी हानि होती है। भाँति-भाँतिके कष्टसाध्य या असाध्य शारीरिक और मानसिक रोग हो जाते हैं। अतएव ऐसे योगोंकी अपेक्षा भक्तियोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग आदि उत्तम हैं, ये अपेक्षाकृत बहुत ही निरापद हैं। इनमें भी अनुभवशून्य लोगोंकी देखा-देखी अविधि करनेसे हानि हो सकती है; अतएव शान्त, शीलवान्, शास्त्रज्ञ एवं अनुभवी गुरुकी—पथप्रदर्शककी सभी योगोंमें अत्यन्त आवश्यकता है।
परन्तु अध्यात्ममार्गका पथप्रदर्शक या गुरु सहज ही नहीं मिलता। भगवत्कृपासे ही अनेक जन्मार्जित पुण्य-पुंजके फलस्वरूप अनुभवी और दयालु सद्गुरु मिलते हैं। हर किसीको गुरु बना लेनेमें तो बहुत ही खतरा है। आजकल देशमें गुरु बननेवालोंकी भरमार है। यथार्थ वस्तुस्थिति यह है कि आज अनेकों लुच्चे-लफंगे, काम और लोभके गुलाम साधु, योगी, ज्ञानी और महात्मा बने फिरते हैं। इन्हींके कारण सच्चे साधुओंकी भी अनजान लोगोंमें कद्र नहीं रही। दूधका जला छाछको भी फूँक-फूँककर पीता है, यह प्रसिद्ध कहावत चरितार्थ हो रही है। ऐसा होना अस्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि आज साधुवेशमें फिरनेवाले लोगोंमें व्यसनी, कामी, क्रोधी, लम्पट, दुराचारी मनुष्य या पेशेवर धन कमानेवाले लोग बहुत हो गये हैं। लोगोंको ठगनेके लिये बड़ी-बड़ी बातें बनानेवाले और चालाकीसे भोले-भाले लोगोंको झूठी सिद्धिका चमत्कार दिखानेवाले अथवा कहीं एकाध मामूली सिद्धिके द्वारा लोगोंमें अपनेको परम सिद्ध साबित करनेवाले लोगोंकी आज कमी नहीं है। आज हठयोगमें अपनेको सिद्ध माननेवाले लोग रोगी, ज्ञानयोगमें सिद्ध माननेवाले कामी, क्रोधी या मानी, लययोगमें सिद्ध माननेवाले शरीरकी नाडियोंसे और आभ्यन्तरिक अवयवोंसे अनभिज्ञ, भक्तियोगमें अपनेको परम भक्त बतानेवाले विषयी और मन्त्रयोगमें अपनेको सिद्ध प्रसिद्ध करनेवाले सर्वथा असफल पाये जाते हैं और इसपर भी अपनी मान-प्रतिष्ठा जमाने या कायम रखनेके लिये सिद्धाईका दावा करते देखे जाते हैं। ऐसे लोगोंसे साधकको सदा सावधान ही रहना चाहिये।
इसका यह तात्पर्य नहीं कि आज सच्चे सिद्धिप्राप्त पुरुष हैं ही नहीं। हैं, अवश्य हैं; परन्तु लोगोंके सामने अपनेको सिद्ध-प्रसिद्ध करके जान-बूझकर आसक्ति और स्वार्थवश कामिनी-कांचन या मान-सम्मान चाहनेवाले लोगोंमें तो कदाचित् ही कोई सच्चे सिद्ध होंगे। सिद्धिप्राप्त पुरुषोंसे हमारा मतलब पातंजलोक्त अष्टसिद्धियाँ या अन्यान्य प्रकारकी सिद्धियोंको प्राप्त पुरुषोंसे नहीं है। किसी भी मार्गसे शेष सीमातक पहुँचकर जो भगवान्को प्राप्त कर चुके हैं, उन्हीं महापुरुषोंसे हमारा अभिप्राय है। ऐसे महापुरुष यौगिक सिद्धियोंकी और चमत्कारोंकी कोई परवा नहीं करते। वास्तवमें सिद्धियाँ परमार्थके मार्गमें बाधक ही होती हैं। जिसकी चित्तवृत्ति भगवान्की ओर नहीं लगी है और जिसमें थोड़ी भी विषयासक्ति बची है, ऐसा पुरुष यदि किसी साधनसे सिद्धियाँ पा जायगा तो इससे उसका अभिमान बढ़ जायगा, विषयोंकी प्राप्ति और उनके भोगमें सिद्धियोंका प्रयोग होगा; जिनसे भोगोंमें बाधा पहुँचानेकी आशंका या सम्भावना होगी, चाहे वह भ्रमवश ही हो, उनको वैरी समझा जायगा और उनके विनाशमें सिद्धियोंका उपयोग किया जायगा। परिणाममें वह साधक रावण और हिरण्यकशिपु आदिकी भाँति असुर और धीरे-धीरे राक्षस बन जायगा। अवश्य ही सिद्धियोंको पानेपर भी उनमें न रमकर, उन्हें तुच्छ मानकर लाँघ जानेवाला पुरुष भगवान्को पा सकता है। परन्तु ऐसा होना है बड़ा ही कठिन। अतएव परमार्थके साधकगण ब्रह्मलोकतकका भोग और ब्रह्मातककी सामर्थ्य प्रदान करनेवाली सिद्धियोंसे भी अलग ही रहना चाहते हैं।
सच्ची सिद्धि तो अन्त:करणकी वह शुद्ध स्थिति है, जिसमें भगवान्के सिवा दूसरेको स्थान ही नहीं रह जाता। ऐसी शुद्ध-अन्त:करणरूप सिद्धिको प्राप्त करके और फिर उसके द्वारा साधन करके जो भगवान्को प्राप्त कर लेते हैं, वे ही परम सिद्ध हैं। यह परम सिद्धि प्राप्त होती है अन्त:करणकी सम्यक् प्रकारसे शुद्धि होनेपर ही, फिर चाहे वह शुद्धि किसी भी योगरूप उपायसे हुई हो। ऐसे परम सिद्ध महात्मा भी मिल सकते हैं; परन्तु उन्हें प्राप्त करनेके लिये हृदयमें लगन होनी चाहिये। सच्चे सत्संगके लिये जब हृदयमें छटपटाहट पैदा हो जायगी, जब संत-मिलनके लिये प्राण व्याकुल हो उठेंगे, जब योग-जिज्ञासारूपी अग्नि प्रबल और प्रचण्ड होकर हृदयमें छिपे हुए चोरोंको भस्मीभूत कर देगी और अपने प्रखर प्रकाशसे विषय-अभिलाषारूपी तमका नाश कर देगी और सारे प्रपंचको जलाती हुई दौड़ेगी भगवान्की ओर, तब भगवान् स्वयं व्याकुल होकर उसे बुझानेके लिये संतरूपी मेघ बनकर अमृत-वर्षा करेंगे।
एक महानुभाव ढोंगी नहीं हैं, उनके मनमें कामिनी-कांचन या मानका लोभ भी नहीं है, अच्छे शास्त्रज्ञ भी हैं, परन्तु साधन करके परम तत्त्वको पहचाने और पाये हुए नहीं हैं। योगग्रन्थोंके पण्डित हैं, परन्तु साधक या सिद्ध योगी नहीं हैं। ऐसे पुरुषका संग करनेसे शास्त्रज्ञान तो हो सकता है। ग्रन्थीय विद्याप्राप्तिके लिये ऐसे सज्जनको अवश्य गुरु बनाना चाहिये और इसकी आवश्यकता भी है। क्योंकि ग्रन्थीय विद्या क्रियात्मिका विद्यामें बहुत सहायक होती है। परन्तु ऐसे गुरुसे पढ़कर साधना करना—क्रियात्मक योग साधना विपद्से शून्य नहीं है। इससे हानिकी बड़ी सम्भावना है। जब वैद्यक और इंजीनियरी आदिमें भी केवल पुस्तकज्ञानसे काम नहीं चलता, अनुभवी गुरुकी आवश्यकता होती है, तब योग-सरीखा साधन केवल पुस्तकज्ञानके आधारपर करना तो बहुत ही भयकी बात है।
अनुभवी गुरुसे जानकर भी यदि साधक उनकी बतायी हुई प्रत्येक बातको नहीं मानता तो उसे भी सफलता नहीं हो सकती। बल्कि किसी-किसी प्रसंगमें तो उलटा नुकसान हो जाता है। अतएव यदि योगसाधना करनी हो तो पहले चित्तमें दृढ़ निश्चय करो फिर गुरुको खोजो और भगवत्कृपासे गुरु मिल जायँ तब उनकी एक-एक छोटी-से-छोटी बातको भी महत्त्वपूर्ण और परम-आवश्यक समझकर श्रद्धापूर्वक उनका अनुसरण करो।
एक बात और है; सभी साधनोंका लक्ष्य मोक्ष या भगवत्प्राप्ति है। सारे ही योगोंकी गति उस एक ही परम योगकी ओर है। फिर ऐसा योग क्यों न साधना चाहिये, जिसमें रुकने या गिरनेका डर न हो, मार्गमें कष्ट भी न हो, जो सरल, सहज हो और इसी जीवनमें लक्ष्यतक पहुँच जानेका निश्चय हो, ऐसा योग है शरणागति-योग! भगवान्का अनन्य आश्रय लेकर श्रद्धा-विश्वासपूर्वक भगवान्का सतत स्मरण करते हुए अपने जीवनके भगवत्-अनुकूल सभी कर्मोंके द्वारा उन्हींकी पूजा करना और जीवनको उनके समर्पण कर निश्चिन्त हो जाना, यही शरणागति योग है। और सभी योगोंमें विघ्न हैं, परन्तु यह सर्वथा निर्विघ्न है। अतएव इसीको परम साधन समझकर इसीमें लग जाओ।