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अपना भाव सुधारे, अपने भावकी ही महत्ता है

प्रवचन—दिनांक २७-४-१९४५, प्रात:काल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम

कल समताके विषयमें कहा था, समता कसौटी है। जितनी अधिक समता है, उतनी ही परमात्मासे निकटता है। समता परमात्माका स्वरूप है। मेरे मनमें एक बहुत मूल्यवान् बात आयी है, वह यदि समझमें आ जाय तो बड़ा भारी लाभ है।

यह समय बड़ा मूल्यवान् है। लाख रुपयेमें भी एक दिनका समय नहीं मिल सकता, न रुदन करनेपर, न सिर पटकके मरनेपर ही मिल सकता है। मनुष्यका समय बड़ा मूल्यवान् है। एक क्षण न घट सकता है न बढ़ सकता है, इसलिये इसकी सावधानीसे रक्षा करनी चाहिये।

पाया परमपद हाथसे जात गई सो गई अब राख रही सो।

यह मनुष्य-शरीर सागर किनारेकी नौका है, किनारे आकर नौका डूब जाय तो बड़ी लज्जाकी बात है। इसलिये समयका सदुपयोगकर साधन बढ़ायें। एक-एक मिनट भी लाख रुपयेमें नहीं मिलता है। व्यर्थ समय न बितायें। न व्यर्थ बोलें, न व्यर्थ क्रिया करें। यदि समय व्यर्थ बीत जाय तो पुत्रशोक-जैसा शोक मनावें। जो समय बीत गया, वह किसी प्रकार लौटकर आनेवाला नहीं है। भगवद्विषयको छोड़कर किसी भी काममें समय गया, वह व्यर्थ गया। यदि व्यर्थ गया तो रोओ, पहले रो लोगे तो अन्तमें रोना नहीं पड़ेगा।

रुपयोंसे भी मनुष्यका समय मूल्यवान् है। रुपया किसी काम नहीं आयेगा। संसारमें जितने पदार्थ हैं कोई काम नहीं आयेंगे। शरीरसे भी कोई लाभ नहीं होगा, यह भी यहीं रह जायगा, इसलिये जल्दीसे जल्दी मनुष्य-शरीरसे एवं रुपयोंसे ऊँचा-से-ऊँचा काम बना लेना चाहिये। आपका भीतरका भाव सुधर जायगा तो बाहरकी क्रिया-व्यवहारका स्वत: ही सुधार हो जायगा। यदि सुधार नहीं करोगे तो बड़ी भारी हानि होगी और पछताना पड़ेगा।

सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ॥
(रामचरितमानस ७। ४३)

वह आगे जाकर सिर धुन-धुनकर पश्चात्ताप करेगा और काल, कर्म एवं ईश्वरको मिथ्या दोष लगायेगा।

ईश्वरने हमको भाव सुधारनेके लिये मौका दिया है। ईश्वर मदद करते हैं, हर एक प्रकारसे मौका देते हैं। यह मनुष्य-शरीर दिया, उन्हींकी कृपासे मनुष्य बने। अपने स्वरूपकी ओर खयाल करें तो बड़ी भारी दुर्दशा होनी चाहिये थी।

कबहुँक करि करुना नर देही।
देत ईस बिनु हेतु सनेही॥

चौरासी लाख योनियोंमें यह जीव घूमता-फिरता है, परमात्मा कभी दया कर मनुष्य शरीर देते हैं।

आकर चारि लच्छ चौरासी।
जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी॥

जीवको अविनाशी कहा है। जीव मरता नहीं है, अपितु भ्रमण करके क्लेश उठाता है। भ्रमण करना परमात्माके शरण होनेपर बन्द होता है, किन्तु बड़ी भारी मूर्खता है जिसके कारण भ्रमण करता रहता है—

फिरत सदा माया कर प्रेरा।
काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥

बिना शरण हुए ही भगवान् की दया है, इसीलिये उनका नाम सुहृद् है। भगवान् बिना ही कारण दया और प्रेम करते हैं सुहृदं सर्वभूतानां। भगवान् की बड़ी भारी दया है कि मनुष्य-शरीर मिला। भगवान् को दोष लगाना झूठा है और कालको भी दोष नहीं दिया जा सकता।

कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥

कलियुगका दोष नहीं है क्योंकि भगवान् का विमल यश गाते-गाते लोग कलियुगमें भी भवसागरसे पार हो जाते हैं। हँसते-हँसते भगवान् के परमधाममें जाते हैं। अपने भाग्यका भी दोष नहीं है।

बड़ें भाग मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥

हमलोग यदि अपने भाग्यकी ओर देखें तो हर समय हँसना, नाचना, गाना चाहिये। हमें मनुष्य-जीवन मिल गया जिसके लिये देवता लोग भी आकांक्षा करते हैं। स्थान देखो—क्या गंगा किनारा, शान्ति, वैराग्यमय ऐसा देश कहीं और देखा सुना है? विचार करके देखो। चारों ओर दृष्टि डालिये स्वाभाविक ही शान्ति, वैराग्य और उपरति होती है, सामने गंगा हर समय दीखती है। एक ओर गंगा दूसरी ओर पहाड़, जंगल हैं। मायाका कटक किसी प्रकार यहाँ आ ही नहीं सकता। यहाँसे दूर ही रहता है।

वटवृक्षकी छायामें कहीं भी बैठो, स्वत: ही ध्यान लग जाता है। ऐसा स्थान कोसोंमें मिलना नहीं है। रेणुकाका आसन है, ऐसा तो कोई बिछौना हो ही नहीं सकता। गंगाकी बालू स्पर्शसे ही पवित्र करती है। नेत्रोंको हर समय गंगाका दर्शन, कानोंको ध्वनि भी हर समय गंगाकी ही सुनायी पड़ती है। गंगाकी गन्ध भी कितनी मधुर है, पाँचों इन्द्रियाँ गंगामय हैं। गंगाकी ध्वनि जैसे वेदोंकी ध्वनि हो या भगवान् की वंशी ध्वनि हो या दूरसे भगवान् का कीर्तन सुनायी देता है। नेत्रोंसे दर्शन करके, जिह्वाद्वारा पान करके, नासिकाद्वारा गंध लेकर, रेणुका और गंगाका स्पर्श करके पाँचों इन्द्रियाँ गंगामय हैं। फिर भगवच्चर्चा, यह देश जहाँ ऋषियोंने कितने कालतक तपस्या की है। ऐसा मौका पाकर भी पश्चात्ताप करना पड़े तो इससे बढ़कर मूर्खता क्या होगी? सावधान नहीं हुए, नहीं चेते तो पछताना ही पड़ेगा।

जातिसे नीच और पापीका भी उद्धार हो जाता है। कितने समयमें? क्षिप्रं अर्थात् थोड़े समयमें इस मनुष्य-शरीरसे भगवान् के भजनद्वारा अतिशय पापीका भी उद्धार शीघ्र होता है, अन्य किसी शरीरसे नहीं। ऐसे मौकेको पाकर हाथसे जाने न दें। क्या करें? भगवान् कहते हैं भजस्व मां, मेरा भजन कर।

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
(गीता ९। ३४)

मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो, मुझको प्रणाम कर।

मन्मना—मनको मेरेमें लगा दे—मनको संसारमें लगाये हैं।

मद्भक्तो—मेरा भक्त बन—रुपयोंके दास हो रहे हैं।

मद्याजी—मेरी पूजा कर—रुपयोंके लिये नीचोंकी गुलामी, पूजा करते हैं, खुशामद करते हैं।

मां नमस्कुरु—मेरेको नमस्कार कर—नमस्कार भी रुपयोंके लिये उन्हीं नीचोंको करते हैं। कुत्ते-जैसा जीवन हो रहा है, कुत्ते-जैसी खुशामद करते हैं। यदि इन बातोंको छोड़कर भगवान्-जैसा कहते हैं वैसा करें तो इन्द्रकी तो बात ही क्या है? भगवान् भी आपको चरणोंकी धूलको मस्तकपर धारण करें।

मन्मना भवसे भगवान् के स्वरूपका ध्यान, मद्भक्त:से भगवान् के नामका जप, मद्याजीसे पूजा और मां नमस्कुरुसे नमस्कार—ये चार बातें बतलायी।

ऐसे मौकेको खोवें नहीं, इन बातोंको सोच-समझकर अपना काम जल्दीसे बना लेना चाहिये। क्या करें? आचरण सुधारें। आचरण कैसे सुधारें? भावको सुधारें। भाव कैसे सुधारें? ईश्वर, महात्मा और शास्त्रकी दयासे तथा तुम्हारी दया भी इसमें है। तुम्हारी दया भी तुम्हारे ऊपर होनी चाहिये। अर्थात् तत्परतासे साधनमें लगना ही तुम्हारे ऊपर तुम्हारी दया है। ईश्वरकी दया है, महात्माकी दया है, शास्त्रोंका स्वाध्याय है। अपनी दयासे भावका सुधार होता है। अन्य सबकी दया है, केवल तुम्हारी दया तुम्हारे ऊपर होनी चाहिये।

भाव ही प्रधान है, भाव ही सुधारना चाहिये। भाव ही मूल्यवान् वस्तु है। हर समय उच्चकोटिका भाव रहना चाहिये, फिर देखो भगवान् के पास वायुकी तरह दौड़कर पहुँच जाओगे।

एक तो यह भाव कि यहाँ माया और मायाका कटक आ ही नहीं सकते—यह दृढ़ निश्चय एवं ईश्वरकी कृपा है तो फिर और क्या चाहिये। फिर यह सत्संग भगवच्चर्चा हमें मिल रही है। मायाका कटक, काम, क्रोध, लोभ आदि किसी समय आक्रमण करें तो भगवन्नामका उच्चारण करो फिर यह टिक नहीं सकते। जैसे पुलिसके नामसे चोर-डाकू नहीं टिक सकते। भगवान् के नामका बिगुल बजाओ फिर देखो भाग जाते हैं कि नहीं। आपका निश्चय, भाव जोरदार होना चाहिये और यह भाव भी रखे कि हमारे मन, बुद्धि, इन्द्रियोंमें, रोम-रोममें शान्ति-आनन्द एवं ज्ञानकी दीप्ति छायी हुई है। ज्ञान एवं प्रकाशकी बड़ी भारी दीप्ति हो रही है। उससे बड़ी भारी शान्ति, प्रसन्नता, आनन्द प्राप्त हो रहा है। हर समय शान्ति, प्रसन्नतामें डूबा रहे, जैसे इनकी बाढ़ आ गयी हो।

प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।
(गीता २। ६५)

यदि यह बात आप समझकर धारण कर लें तो चिन्ता, भय, शोक आदि आपके पास आ ही नहीं सकते। वह बात क्या है? यह जो कुछ हो रहा है भगवान् अनेकों रूपोंमें होकर लीला कर रहे हैं। जैसे भगवान् श्रीकृष्णने ग्वालबाल बछड़ेका रूप धारण करके लीला की थी, जैसे त्रेतायुगमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजी अनेक रूपमें होकर सबसे मिले थे।

भगवान् ही अनेक रूपोंमें लीला कर रहे हैं। भगवान् को हर समय अपने पास देखें। भगवान् की दिव्य लीला हो रही है। हम भी उसमें शामिल होकर लीला कर रहे हैं, इस प्रकार मनका भाव बना लो। भाव इस प्रकारका करनेके बाद पाप ठहर नहीं सकते। केवल भाव बनाना चाहिये, असली वस्तु भाव ही है। हर समय ईश्वरके भावसे भावित होते रहो। और कोई बात सुने ही नहीं, और कोई बात विचारे ही नहीं। भगवच्चर्चा सुने, विचारे—मनन करे। नेत्रोंसे हर वस्तुमें भगवान् को देखे, पत्ते-पत्तेमें, जर्रे-जर्रेमें भगवान् का स्वरूप देखे, जैसे गोपियाँ, प्रह्लाद आदि देखा करते थे।

कोई भी भाव हो भगवान् से सम्बन्ध जोड़ लें, किसी भी भावसे उनका चिन्तन करें, चिन्तन भगवान् का होना चाहिये।

वाणीद्वारा कथन, कानोंद्वारा सुनना, मनद्वारा मनन सब भगवन्मय हो, सारी इन्द्रियाँ भगवान् में लगा दो। भाव सुधारो क्रियाका सुधार स्वत: ही हो जायगा। भावका सुधार ही अन्त:करणका सुधार है। अन्त:करणका सुधार होनेमें क्रिया स्वत: ही सुधर जाती है और क्रियाका सुधार करनेसे अन्त:करणका सुधार देरसे होता है, कठिनतासे होता है।

कर्मयोगी निष्कामभावसे ही लाभ उठाते हैं। भगवान् के भक्त भावसे ही लाभ उठाते हैं, ज्ञानी भी भावसे ही लाभ उठाते हैं। यह संसार है यह भाव हटाओ। यह भिन्नता है। इसको हटाकर यह भाव लाओ, यह जो कुछ है भगवान् है, जो कुछ है वासुदेव ही है।

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता ७। १९)

बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है, अर्थात् वासुदेवके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं। इस प्रकार मेरेको भजता है। वह महात्मा अति दुर्लभ है।

यह मनुष्यका जन्म ही अन्तिम जन्म है। सब प्रकारसे देख लो, यह मनुष्य-जन्म अन्तिम जन्म है। बहुत जन्मोंके साधनोंका फल है। चौरासी लाख योनियोंके बाद मनुष्य-जन्म मिलता है। इसमें साधन करके अपना काम बना ले तो फिर जन्म नहीं होता, अत: यह अन्तका जन्म हुआ। सब प्रकारसे मनुष्य-जन्म अन्तका जन्म है, इससे लाभ उठाना चाहिये। अन्यथा फिर यह मनुष्य-शरीर मिलनेका नहीं है। यथार्थभाव लावे, पहले तो मान्यता बनावे। माने कि जो कुछ है भगवान् का स्वरूप है, फिर जब अनुभव होगा, तब यह आड़ टूट जायगी। जैसे घड़ेकी आड़ टूटनेपर आकाश ही रहता है। वैसे ही यह आड़ है, अनुभव होनेपर आड़ टूट जाती है। फिर देखो कितनी शान्ति, आनन्दकी प्राप्ति होती है।

फल एक ही है। वही आनन्द, वही शान्ति, वही अमृत, वही परमरस, परमपद सबका एक ही फल है। कोई भी साधन करो भाव ही प्रधान है। भाव पवित्र हो तो सारी क्रिया पवित्र होगी। निष्कामभाव होनेपर और कोई भाव न हो, परवा नहीं है, सारी क्रिया पवित्र है। जिसका फल पवित्र, भाव पवित्र हो, निष्काम भाव हो, क्रिया स्वत: ही पवित्र होगी। भाव बना लो।

अयुक्त: कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥
(गीता ५। १२)

सकामी पुरुष फलमें आसक्त हुआ कामनाके द्वारा बँधता है। इसलिये निष्काम कर्मयोग उत्तम है।

जैसे कर्मोंमें भाव प्रधान है, वैसे ही भक्तिमें भी भाव प्रधान है। प्रेमभाव, दास्यभाव, चाहे जो भाव हो, भगवान् करायें, वैसे करे। उनकी आज्ञाका पालन करे या सारी क्रियाको लीलामय देखे। हम भी शामिल होकर लीला कर रहे हैं। सारी क्रिया प्रेमभावसे हो, फिर भगवान् छिप नहीं सकते।

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना॥

प्रेममय हो जाय, फिर भगवान् छिपे नहीं रह सकते, प्रेमको बढ़ावें और फिर देखें आप प्रेममय हो जायँगे।

नारायण नारायण नारायण।

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