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मन, इन्द्रियोंके संयमकी आवश्यकता

प्रवचन-तिथि—ज्येष्ठ शुक्ल ८, संवत् २००२, प्रात:काल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम

भगवान् ने गीतामें बतलाया है—

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन:।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स:॥
एवं बुद्धे: परं बुद्‍ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥
(गीता ३। ४२-४३)

इन्द्रियोंको स्थूल शरीरसे परे यानी श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म कहते हैं; इन इन्द्रियोंसे परे मन है, मनसे भी परे बुद्धि है और जो बुद्धिसे भी अत्यन्त परे है वह आत्मा है।

इस प्रकार बुद्धिसे परे अर्थात् सूक्ष्म, बलवान् और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्माको जानकर और बुद्धिके द्वारा मनको वशमें करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रुको मार डाल।

इन्द्रियाँ व्याप्य हैं, मन व्यापक है। इनका व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है। दूसरी बात इन्द्रियोंपर मनका नियन्त्रण है, इन्द्रियोंका मनपर नियन्त्रण नहीं है। मन नाम है अन्त:करणका, अन्त:करणके अन्तर्गत ही इन्द्रियाँ हैं, इसलिये आधार आधेयका भी सम्बन्ध है तथा कार्य कारणका भी सम्बन्ध है।

मनसे बुद्धि सूक्ष्म है। मन कार्य है बुद्धिका, बुद्धि कारण है। ऐसे ही आत्मा इन सबका महाकारण, आधार तथा सबसे व्यापक है।

जैसे मैला कपड़ा धोनेसे साफ हो जाता है, इसी प्रकार इन्द्रियाँ, मन, बुद्धिमें जो दोष हैं, उन्हें दूर कर देना विकास है। आत्मामें दोष तो नहीं है, किन्तु दोषकी प्रतीति होती है। आत्मा वास्तवमें शुद्ध है, बोधस्वरूप है। तुलसीदासजी कहते हैं—

ईस्वर अंस जीव अबिनासी।
चेतन अमल सहज सुखरासी॥

जीवात्मा परमात्माका अंश है, चेतन है, निर्मल है। मन इन्द्रियोंसे इसका सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय तो यह शुद्ध ही है।

मन या अन्त:करण तथा बुद्धिमें मल, विक्षेप, आवरण—तीन दोष हैं। दुर्गुण आदि दोषोंका समूह है। हमने जितने पाप किये हैं इनका नाम मल है, इनको साफ करना चाहिये। साफ करनेसे विकास होता है।

दूसरा दोष है चंचलता, मनमें बार-बार संकल्प होते हैं, बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती—यह चंचलताका दोष है। बुद्धिमें एक आवरणका दोष है, बुद्धिमें मंदता है तीक्ष्णता नहीं है। असली आवरणका दोष तो अध्यात्मविषयकी कमी है, किन्तु अधिक निद्रा, आलस्य भी आवरण है। अध्यात्मविषयके विपरीत जो अज्ञान है वही आवरण है। इन सब दोषोंकी निवृत्तिके लिये साधन करना चाहिये। इन्द्रियोंमें भी चंचलता है, मलिनता है, नेत्र, इन्द्रियाँ परस्त्रीकी ओर जाते हैं यह मलिनता है। जिह्वा दूसरेके अन्नके लिये लालायित रहती है—यह मलिनता है, किन्तु मनके अन्दरसे जब दोष हट जायँगे तो इन्द्रियोंसे स्वत: ही हट जायँगे। मनके साथ-साथ इन्द्रियोंपर भी हम नियन्त्रण करें तो लाभ है। विषयोंके साथ जो इन्द्रियोंका सम्बन्ध है, विषयोंमें राग-द्वेषसहित विचरण है, वह पाप है।

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥
(गीता ३। ३४)

इन्द्रिय-इन्द्रियके अर्थमें अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याणमार्गमें विघ्न करनेवाले महान् शत्रु हैं।

प्रत्येक विषयमें, पदार्थमें राग-द्वेष छिपे हुए हैं। राग-द्वेषसहित विचरणसे पाप पैदा होता है, इन्द्रियाँ दूषित हो जाती हैं। इन्द्रियाँ चंचल हैं, विषयोंकी ओर जा रही हैं, उन्हें वशमें करना चाहिये, फिर मनको वशमें करना चाहिये, उसके बाद बुद्धिको, यह क्रम है, किन्तु ऊपरवालोंके वशमें होनेसे नीचेवाले स्वत: ही वशमें हो जाते हैं, इसलिये बुद्धिके द्वारा मनको वशमें करके इन्द्रियोंको वशमें करना चाहिये, अन्यथा विकास होना तो दूर रहा, हमारा पतन हो जायगा। गीता बताती है—

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित:।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन:॥
(गीता २। ६०)

हे कौन्तेय! यत्न करते हुए पुरुषकी इन्द्रियाँ मनको बलात् हर लेती हैं। कैसा पुरुष है? विवेकी, मूर्ख नहीं समझदार है, साधक है। इन्द्रियाँ कैसी हैं? प्रमथन स्वभाववाली। प्रमथन कहते हैं जैसे एक हँड़ियामें दही होता है, मथन करते हैं तो सारे दहीमें हलचल मच जाती है, मक्खन निकल आता है।

इन्द्रियाँ विवेकी आदमीके मनको भी हरण कर लेती हैं, इसलिये भगवान् कहते हैं, पहले इन्द्रियोंको वशमें करना चाहिये। इन्द्रियाँ और मन दोनों मिल जाते हैं तो बुद्धिको भी हर लेते हैं—

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥
(गीता २। ६७)

क्योंकि जैसे जलमें चलनेवाली नावको वायु हर लेती है, वैसे ही विषयोंमें विचरती हुई इन्द्रियोंमेंसे मन जिस इन्द्रियके साथ रहता है वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुषकी बुद्धिको हर लेती है।

यहाँ जल क्या है? विषयभोगरूपी जल है, बुद्धिरूपी नौका है, इन्द्रियाँ और मन हरनेवाली वायु हैं, नौकामें लंगर होता है, उसे किनारेपर गाड़ दिया जाय तो वायु कुछ नहीं कर सकती। इसी प्रकार परमात्माके स्वरूपरूपी लंगरमें बुद्धि गाड़ दी गयी तो बुद्धि स्थिर हो गयी।

इसलिये बुद्धिको शुद्ध बनाना चाहिये। इसकी चंचलता मिटानी चाहिये और बुद्धिमें जो अज्ञान है उसे मिटाना चाहिये।

इनके लिये क्या साधन करें?

मन और बुद्धि एक ही धातु है। मन और बुद्धिमें मल, विक्षेप और आवरणका दोष है। आवरणका दोष मिटानेके लिये बुद्धिको तीव्र बनाना चाहिये। अध्यात्मविषयक ग्रन्थोंका केवल पठन ही नहीं मनन भी करना चाहिये। उन्हें समझनेसे बुद्धि तीक्ष्ण होती है। व्यापार करनेवालेकी व्यापारमें बुद्धि तीव्र हो जाती है। यहाँ संसारविषयक तीक्ष्णता काम नहीं देती, अपितु अध्यात्मविषयक तीक्ष्णता काम देती है। लौकिक तीक्ष्णतासे काम नहीं चलता। इसलिये एक तो सत्-शास्त्रोंका मनन करना चाहिये। दूसरे सत्पुरुषोंका संग करना चाहिये। इससे आवरण-दोषका विनाश होता है।

दूसरा दोष चंचलताका है। उसे दूर करनेके लिये परमात्माका ध्यान करना चाहिये। मनको एक देशमें बाँधना चाहिये। ध्यान धारणासे मन स्थिर होता है। भगवान् कहते हैं मन बड़ा चंचल है, उसे स्थिर करनेके लिये अभ्यास करना चाहिये।

परमात्माके स्वरूपमें बार-बार मनको लगानेका नाम ही अभ्यास है। अभ्याससे चित्त वशमें होता है। दूसरा उपाय बताया वैराग्य। वैराग्य होनेसे चंचलता मिट जाती है। संसारके पदार्थोंमें आसक्ति नष्ट होनेसे वैराग्य होता है। राग क्यों है? उसमें सुख बुद्धि है। जिन पदार्थोंमें दु:ख बुद्धि होती है उनमें राग नहीं है। सुखमें ही अनुकूलता होती है। अनुकूल वृत्ति और प्रतिकूल वृत्ति मानी हुई है, जो वस्तु मानी हुई होती है वह अज्ञता होती है। अज्ञता, मूर्खता एक ही बात है, मूर्खता मिटानी चाहिये। वह ज्ञानसे मिटती है। ज्ञान सत्संगसे तथा सत्शास्त्रोंके अध्ययनसे होता है। आवरणका दोष मिट जायगा तो विक्षेपका दोष स्वत: ही मिट जायगा।

मलका दोष मिट जायगा तो चंचलता स्वत: ही मिट जायगी। मल-दोषके नाशके लिये लोगोंका उपकार करना चाहिये। उपकार मान, बड़ाई, कीर्तिके लिये नहीं, अपितु निष्कामभावसे करना चाहिये। स्वार्थको लेकर जो उपकार किया जाता है उससे तो वह श्रेष्ठ है जो मान-बड़ाईके लिये करता है। जो मान भी नहीं चाहता है, अन्त:करणकी शुद्धि चाहता है, वह उससे श्रेष्ठ है। उससे भी वह श्रेष्ठ है जो अपने कल्याणके लिये करता है। जो भगवान् के भक्त होते हैं उनके तो सारे कर्म निष्कामभावसे ही होते हैं। हमें भी अपना कर्तव्य समझकर दूसरोंकी सेवा करनी चाहिये। नामजप भक्तिका अंग है। किन्तु क्रियासाध्य होनेसे हम इसे भी कर्म कहते हैं।

संसारसे जो मन इन्द्रियोंका सम्बन्ध है उसे तोड़ डालना तप है। धर्मपालनके लिये हम कष्ट सहें तो हमारा अन्त:करण शुद्ध हो जायगा। अन्त:करणके दोष जलानेके लिये कई उपाय हैं— प्राणायाम, निष्कामभाव, नामजप, तीर्थोंका सेवन, तप, यज्ञ, सत्संग, गुणकीर्तन, नामकीर्तन—इन साधनोंका परस्परमें बड़ा सम्बन्ध है। ये एक-दूसरेके सहायक हैं। जब अभ्यास तेज होता है तो स्वत: वैराग्य होता है, वैराग्य होता है तो अभ्यास होता है, इन्द्रियोंके संयमसे वैराग्य होता है। अन्त:करणमें राग-द्वेष नहीं रहते तो मनकी चंचलता नहीं रहती एक गुण दूसरे गुणका सहायक है। प्रधान बात यह है कि पापोंके नाशके लिये लोगोंकी सेवा करनी चाहिये तथा नामका जप और कीर्तन करना चाहिये।

नारायण नारायण नारायण।

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