अपना जीवन सेवाके लिये है
प्रवचन—दिनांक ८-७-१९४२, सांयकाल, साहबगंज, गोरखपुर
दूसरेकी आत्माको सुख पहुँचानेके समान कोई धर्म नहीं है—
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥
भगवान् अन्न और वस्त्र सबके लिये आवश्यकताके अनुसार भेजते हैं। इसलिये जिसके पास जो चीज अधिक हो वह जिसके पास उसका अभाव हो उसे दे दे।
परहित बस जिन्ह के मन माहीं।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
अपना सर्वस्व सेवामें लगायें। भगवान् से सबकी सेवा करनेके लिये प्रार्थना करें। वाणीसे नामका जप, शरीरसे सेवा, मनसे ध्यान करें। अपना जीवन सेवाके लिये है।
एक महात्माके पास एक वैश्य गया और उपदेशकी प्रार्थना की। महात्माने कहा दु:खी, अनाथकी सेवा करो। वह वही करता रहा। एक दिन एक गरीब लकड़ी बेचनेके लिये आया और धूपके मारे व्याकुल होकर गिर पड़ा। उस वैश्यने उसको जल पिलाया, तब उसको होश आया। उसे भूख लगी थी, चनाका सत्तू खानेके लिये दिया, जल पिलाया, वह खाकर, जल पीकर तृप्त होकर लौट गया। इधर भगवान् प्रकट हो गये। वर माँगनेको कहा, उसने कहा आप मिल गये, इससे बढ़कर और वर क्या चाहिये, भगवान् अन्तर्धान हो गये।
इस समय सब जनता दु:खी है, अत: सब जनता पात्र है। दु:खी अनाथकी सेवासे भगवान् का दर्शन शीघ्र होता है। हरेक आदमीको देखकर यह भाव हो कि इसको कैसे सुख हो, किसीसे भेंट हो उसको सुख पहुँचानेकी चेष्टा करे, जिससे भेंट हो वह आनन्दमग्न हो जाय, सुखी हो जाय, परमधामको प्राप्त हो जाय। दूसरेको सुख कैसे मिले? इसी प्रकारका व्रत करना चाहिये। सब जीवोंको अभय दान दे, जिससे कोई दु:खी न हो।
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय:॥
(गीता १२। १५)
जिससे कोई भी जीव उद्वेगको प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीवसे उद्वेगको प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादिकोंसे रहित है वह भक्त मेरेको प्रिय है।
अपना सर्वस्व नाश हो जाय, परन्तु दूसरेकी सेवा करे, जिस प्रकार हो दूसरेकी सेवा करे। कभी किसी प्रकारकी किसी प्राणीकी हिंसा न करे, अपितु सेवा करे, दूसरेको सुख आराम पहुँचानेकी चेष्टा करनी चाहिये, साथ-साथ भगवान् का ध्यान करे। जिसका यह भाव रहता है कि सबका कल्याण हो जाय, उसको मुक्तिका अधिकार मिल जाता है।
नारायण नारायण नारायण।