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भगवान् का तत्त्व समझकर प्रेम करें

प्रवचन—दिनांक ८-७-१९४२, प्रातःकाल, साहबगंज, गोरखपुर

जो चीज न्याययुक्त प्राप्त हो, वह अमृत है। गीताप्रेसमें हम परिश्रम करके वेतन लेते हैं, वह अमृत है, हम चोरी करके गीताप्रेसकी चीज लें तो वह विष है। न्यायानुकूल लेनेसे अमृत है, अनुचित लेना विषके सदृश है।

जो जितना पवित्र है उसका दुरुपयोग उतना ज्यादा हानि करनेवाला है। गंगा पवित्र है। उनमें गन्दगी करनेसे महान् पाप और पुण्य करनेसे ज्यादा लाभ है। इसी प्रकार अन्य तीर्थोंकी तथा महात्माओंकी बात है। लाभ और हानि दोनों प्रकारसे महत्त्व है। दुरुपयोगसे हानि और सदुपयोगसे लाभ है। जहाँ नौकरीसे अनुचित रूपसे आमदनी हो, वहाँ नुकसान है। इसीलिये हम लोग नौकरी नहीं करते, प्रसाद पवित्र करनेवाला है। भगवान् की वस्तुमात्र सब पवित्र करनेवाली है। यदि हम अनुचितरूपसे चोरी करके ले गये तो बहुत हानिकर है। चीज तो भगवान् की, परन्तु वही अनुचित रूपसे लेनेसे नुकसान है। परमात्मा सबमें हैं—

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योस्ति न प्रिय:।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥
(गीता ९। २९)

मैं सब भूतोंमें समभावसे व्यापक हूँ न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है; परन्तु जो भक्त मुझको प्रेमसे भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ।

आकाशकी तरह परमात्मा सब भूतोंमें समान भावसे व्यापक हैं। भगवान् कहते हैं कि जो कुछ भी चेष्टा होती है सब मेरी सत्तासे होती है।

ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥
(गीता १८। ६१)

भगवान् सबके हृदयमें स्थित हुए उसके कर्मोंके अनुसार भ्रमाते हैं। परमात्मा तो एक हैं परन्तु नाना रूपसे दीखते हैं। जल एक ही है अनेक रूपमें आता है। एक ही जल सीपमें मोती और सर्पके मुखमें विष आदिके रूपमें आता है। इसी प्रकार एक ही परमात्मा पदार्थके कारण अनेक रूपमें दिखलायी देते हैं। गीता कहती है—

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता ७। १९)

बहुत जन्मोंके अन्तमें तत्त्वज्ञानको प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है। वासुदेवके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं इस प्रकार मेरेको भजता है वह महात्मा अति दुर्लभ है।

जैसे यहाँ वस्तु, काठ, पुस्तक, किवाड़ आदि सब अग्नि लगनेसे एक अग्नि हो जायगा। क्योंकि सब एक ही था। एक मिट्टी ही नाना रूपमें परिणत है। दरी, वृक्ष, पत्थर मिट्टी थे, आखिरमें मिट्टीमें मिलेंगे, इसी प्रकार सब पदार्थ एक पृथ्वीका ही विकार हैं। इसी प्रकार जो कुछ रूप, वस्तु दिखलायी देती है, एक परमात्मा ही अनेक रूपमें परिणत हो जाता है।

जल एक ही है, वही ऊपर बादलके रूपमें, वही जल बूँदके रूपमें, वही जल बर्फमें दिखलायी देता है। वही भाप बन जाता है। वास्तवमें एक ही जल अनेक रूपोंमें दिखलायी देता है। इस प्रकार एक परमात्मा ही अनेक रूपोंमें दिखलायी देता है। सबमें एक परमात्माको देखना चाहिये। सब कुछ एक परमात्माकी लीला है। जैसे नाटक देखनेसे सब लोग प्रसन्न होते हैं। यह तो मनुष्यकृत है और संसाररूपी नाटकको रचनेवाले भगवान् हैं, सबमें प्रविष्ट हैं। जैसे बिजली सब जगह है वैसे ही परमात्मा सब जगह व्यापक हैं। यदि कहो कि परमात्मा हैं तो दिखलाओ। परमात्माका जो सगुण-साकार स्वरूप है वह हमें दिखलायी दे सकता है और भगवान् प्रेमसे प्रकट हो जाते हैं। वह स्वरूप देखने लायक है और जो निराकार है वह देखनेकी चीज नहीं है। निराकारका भान हो सकता है, प्रेमसे निराकारको भी जान सकते हैं। तत्त्वसे समझमें आ सकता है, देखनेमें नहीं आ सकता।

एक आदमी बम्बई गया, वहाँ रेलगाड़ी चलती देखा, उसको आश्चर्य हुआ कि यह कैसे चलती है, मालूम हुआ बिजलीसे। वहाँ बिजली देखनेको गया, बिजलीके पंखे आदि देखा, कहीं प्रकाश देखा, कहीं वायुकी आवश्यकता हुई, पंखा चलनेसे हवा हुई। प्रकाशकी आवश्यकता हुई, बटन दबा दिया, रेडियोकी आवाज आयी तो सुनायी दिया। उसने अनुभव किया कि यह भी बिजलीसे पैदा हुआ। इस प्रकार सब चीजोंको बिजलीसे पैदा हुआ देखा, देखनेसे समझ गया कि सब चीज बिजलीसे चल रही है। फिर बिजली देखनेके लिये पावर हाऊस गया। वहाँ बिजली देखनेकी इच्छा प्रकट की। बिजलीका जनरेटर दिखला दिया, कहा बिजली दिखलाओ। इस तारमें बिजली है, हाथ लगाया करन्ट मारा, फेंक दिया। कहा बिजली देखनेकी चीज नहीं, जान सकते हो। इसी प्रकार एक परमात्मासे ही सब काम होते हैं। चन्द्रमा, सूर्य सब एक परमात्मासे ही प्रकाशित हैं।

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्॥
(गीता १०। ४१)

जो-जो विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त एवं कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है उस-उसको तू मेरे तेजके अंशसे ही उत्पन्न हुई जान। सब एक परमात्मासे ही प्रकाशित होते हैं। जैसे बिजलीकी शक्तिसे हवा, अग्नि, प्रकाश, शीत सब होता है। इसी प्रकार एक परमात्मासे ही सबकी उत्पत्ति होती है। बिजली तो जड़ है, परमात्मा चेतन हैं। परमात्माके लिये साधन करनेसे परमात्माका असली ज्ञान हो सकता है। बिजलीके तत्त्वका सूक्ष्म ज्ञान इंजीनियरको होता है। इसी प्रकार परमात्माका सूक्ष्मज्ञान महात्माको होता है। जैसे आकाश सब जगह व्यापक है। वैसे ही परमात्मा सब जगह व्यापक हैं—

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥

इसलिये परमात्माकी प्राप्तिके लिये प्रेम-साधन करना चाहिये। जैसे लोभी दामके लिये, कामी स्त्रीके लिये प्रेम करता है, इससे बढ़कर परमात्मासे प्रेम करे। यह प्रश्न हो सकता है कि परमात्मा दिखलायी ही नहीं देता, कैसे प्रेम करें? सबकी आत्मा परमात्मा हैं, इसलिये सब प्राणियोंकी सेवा भगवान् की ही सेवा है।

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:।
(गीता १२। ४)

इस प्रकार यावन्मात्र प्राणियोंकी सेवा करनेसे परमात्माकी प्राप्ति होती है, क्योंकि भगवान् कहते हैं—

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:।
(गीता १०। २०)

हे अर्जुन! मैं सब भूतोंके हृदयमें स्थित सबका आत्मा हूँ।

सबके साथ स्वार्थरहित प्रेम करना चाहिये। स्वार्थरहित प्रेम या तो प्रभुमें है या प्रभुको प्राप्त महात्मा पुरुषमें है। तुलसीदासजी कहते हैं—

स्वारथ मीत सकल जग माहीं।
सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं॥
हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥

हेतुरहित प्रेम करनेवाले या आप हैं या आपके भक्त हैं। इस प्रकार जो हेतुरहित प्रेम, उपकार करनेवाले हैं, उनकी तुलना भगवान् के समान है। उनके लिये कुछ दुर्लभ नहीं है। जब भगवान् मिल जाते हैं तो दूसरी बात ही क्या है—

परहित बस जिन्ह के मन माहीं।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥

जैसे लोभीके हृदयमें रुपया बसता है। उसी प्रकार जो भगवान् से दूसरोंका उपकार कैसे हो, इस प्रकारकी इच्छा करता रहता है, ऐसा पुरुष प्रभुके समान है। भगवान् कहते हैं—

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥

सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंका सुहृद् अर्थात् स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, मुझे ऐसा तत्त्वसे जानकर शान्तिको प्राप्त होता है।

जिसमें जितनी दया, समता है, वह उतना ही परमात्मामें स्थित है।

इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिता:॥
(गीता ५। १९)

जिनका मन समत्व भावमें स्थित है, उनके द्वारा जीवित अवस्थामें ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया, वे जीते हुए मुक्त हैं। क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इसलिये वे सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही स्थित हैं।

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता ६। ३०)

जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता, क्योंकि वह मेरेमें एकीभावसे स्थित है। इस प्रकार समरूप परमात्मा सब जगह हैं। इस प्रकार जिसकी समतामें स्थिति है उसकी परमात्मामें स्थिति है। भगवान् राम समदर्शी हैं। महात्मा पुरुष भी समदर्शी हैं।

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयो:।
(गीता १४। २५)

मान और अपमानमें सम है, मित्र और वैरीके पक्षमें भी सम है।

समदु:खसुख: स्वस्थ: समलोष्टाश्मकाञ्चन:।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति:॥
(गीता १४। २४)

जो निरन्तर आत्मभावमें स्थित, दु:ख-सुखको समान समझनेवाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्णमें समान भाववाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रियको एक-सा माननेवाला और अपनी निन्दा-स्तुतिमें भी समान भाववाला है।

जिसमें समता है दया है वह भक्त है। भगवान् का प्रेमी ममता, अहंतारहित होता है, यदि अहंता ममताको लेकर प्रेम है तो पशुओंमें और हमारेमें क्या अन्तर है।

संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय:।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
(गीता १२। १४)

जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें किये हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चयवाला है—वह मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।

जिसने मन-बुद्धिको जीतकर प्रभुमें लगा दिया है, ऐसा भक्त प्रभुका प्रिय है। इन सब बातोंको खयाल करके सबके साथ स्वार्थरहित प्रेम करना चाहिये। स्वार्थके लिये तो सारी दुनिया प्रेम करती है। दूकानदार रुपयोंके लिये सबसे प्रेम करता है, उसकी हर एक क्रिया रुपयोंके लिये होती है। इसी प्रकार हमारी सारी चेष्टा प्रभुके लिये होनी चाहिये।

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥
(गीता ९। २७)

हे अर्जुन तू जो कुछ कर्म करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ हवन करता है, जो कुछ दान देता है, जो कुछ स्वधर्माचरण रूप तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर। इससे क्या होगा?

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै:।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥
(गीता ९। २८)

इस प्रकार कर्मोंको मेरे अर्पण करनेरूप संन्यास योगसे युक्त हुए मनवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा और मेरेको प्राप्त होगा। इस प्रकार सर्वबन्धनसे मुक्त हो जायगा।

जो रुपयोंके लिये कर्म करेगा उसे रुपया मिलेगा। इसी प्रकार भगवान् के लिये प्रेम करे तो भगवान् मिलेंगे, क्योंकि भगवान् सब जगह हैं। भगवान् के लिये गोपियोंकी तरह प्रेम करें, इसके फलस्वरूप प्रभु ही मिलेंगे। भगवान् प्रेम करनेवालेसे ही मिलते हैं। जहाँ प्रेम है वहाँ प्रभु आते हैं। भगवान् के समान कोई प्रेमी, हितैषी, सुहृद् नहीं है। इसलिये हमलोगोंको सबसे स्वार्थरहित प्रेम करना चाहिये। इसके फलस्वरूप भगवान् ही मिलेंगे। स्वार्थरहित भाव ईश्वर या महात्मामें ही हो सकता है।

प्रभुमें हेतुरहित प्रेम कल्याण करनेवाला है। भगवान् प्रेमसे मिलते हैं, इसलिये सबको साक्षात् भगवत्-स्वरूप समझकर प्रेम करना चाहिये। भगवान् की प्राप्तिके लिये जो प्रेम करना है, वह भगवान् से ही प्रेम करना है।

स्वार्थको लेकर जो प्रेम है, वह तो सारी दुनियाका है। स्वार्थरहित प्रेम प्रभुमें हो।

जैसा प्रेम विषयसे तैसा हरिसे होय।
चला जाय वैकुण्ठ को पला न पकड़े कोय॥
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥

कंचन कामिनीकी तो सारी दुनिया ही गुलाम है। उसके लिये क्या कहना है। ऐसा प्रेम तो कुत्तेका भी है। प्रभुमें जो प्रेम है वह धन्य है, इसीलिये हमें प्रभुसे प्रेम करना चाहिये।

नारायण नारायण नारायण।

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