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भगवान् श्रीरामके स्वरूपका ध्यान

प्रवचन-तिथि—ज्येष्ठ शुक्ल ९, संवत् २००२, प्रात:काल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम

भगवान् श्रीरामके स्वरूपका ध्यान करना चाहिये। ध्यान करनेके पूर्व आह्वान करना चाहिये। जब भगवान् ध्यानावस्थामें आते हैं तो उसके पूर्व ही बड़ी शान्ति मालूम देती है। चेतनताकी जागृति हो जाती है, ज्ञानकी दीप्ति हो जाती है, नेत्रोंको बंद करनेपर भी बड़ी भारी शान्तिका प्रत्यक्ष अनुभव होता है। नेत्रोंको बंद करनेपर सूर्यकी तरह प्रकाश प्रतीत होता है, किन्तु उस प्रकाशमें चन्द्रमाकी तरहकी शान्तिकी दीप्ति प्रतीत होती है। प्रसन्नताका ठिकाना ही नहीं रहता, वह आनन्दमें मुग्ध हो जाता है। हमें यह धारणा करनी चाहिये कि निराकार रूपसे तो परमात्मा सब जगह मौजूद ही हैं, वे ही साकार रूपसे प्रकट होते हैं। जैसे दियासलाईमें आग निराकार रूपसे है वही घिसनेसे पैदा हो जाती है, इसी प्रकार भगवान् प्रेमकी रगड़से साकार रूपमें प्रकट हो जाते हैं। शंकरभगवान् कहते हैं—

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥

हरि सब जगह मौजूद हैं, प्रेमसे उनका प्रादुर्भाव होता है। भरतजीके करुणभाव हुआ तो भगवान् प्रकट हो गये, इसी प्रकार गोपियोंके करुणभाव हुआ तो भगवान् प्रकट हो गये।

भरतजी व्याकुल हो रहे हैं—हे नाथ! यदि आप मेरी करनीकी ओर देखें तो सौ करोड़ कल्पोंतक भी उद्धार नहीं हो सकता। इसी प्रकार हम अपने आचरणोंकी ओर देखें तो ध्यानावस्थामें भी भगवान् के दर्शन नहीं हो सकते। भरतजी कहते हैं—

जन अवगुन प्रभु मान न काऊ।
दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ॥

हे नाथ! आप अपने दासोंके दोषोंकी ओर नहीं देखते, आप दीनोंके बन्धु हैं, मैं दयाका पात्र हूँ, हमें इसी प्रकारसे भावित होना चाहिये।

हे नाथ! हमारे आचरणोंकी ओर देखें तो कोई उपाय नहीं दीखता। आपका जो विरद है उसीके आधारपर हमलोग आशा करते हैं। भरतजीने इसी आधारपर आशा की थी—

मोरे जियँ भरोस दृढ़ सोई।
मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई॥

मेरे मनमें वही दृढ़ भरोसा है कि आप दीनोंके बन्धु हैं, आपका स्वभाव बड़ा ही कोमल है। आपके स्वभावको देखकर हमें विश्वास होता है कि आप अवश्य आयेंगे। वहाँ तो प्रत्यक्ष मिलनेकी बात थी। हमें समझना चाहिये भगवान् ध्यानमें आयेंगे। हम बार-बार उनका आह्वान करें। हे नाथ! हे गोविन्द! हे दामोदर! इस प्रकार उन्हें पुकारें।

एक बात मैं पूँछउँ तोही।
कारन कवन बिसारेहु मोही॥

हे नाथ! मैं आपसे एक ही बात पूछता हूँ, आपने किस कारणसे मुझे बिसार दिया? आप बिसार देंगे तो हमारा काम कैसे चलेगा। हे नाथ! मेरे-जैसे तो बहुत हैं, किन्तु आपके-जैसे तो आप ही हैं। हे नाथ! हे गोविन्द! हे हरि! आनन्दमय, पूर्ण आनन्द, घन आनन्द, आनन्द ही आनन्द।

हे नाथ! मैं सब साधनोंसे हीन हूँ, किन्तु आपने कृपा करके दर्शन दिये।

भगवान् आकाशमें विराजमान हो रहे हैं। नेत्रोंको बंद करके देखनेसे भगवान् मानो प्रत्यक्ष रूपसे आकाशमें दीख रहे हैं। सब जगह महान् प्रकाश, बड़ी भारी शान्ति छायी हुई है। महान् ज्ञानकी दीप्ति जिससे बारम्बार रोमांच हो रहा है। भगवान् आकाशमें खड़े हैं। मानो वैकुण्ठधामसे आये हैं। आकाशमें जैसे चन्द्रमा विराजमान होता है। उनकी अवस्था सोलह वर्षके राजकुमार-जैसी है। भगवान् जब जनकपुरीमें पधारे थे उस समय उनका शृंगार स्वरूप था। उनका वही स्वरूप यहाँ विराजमान हो रहा है। युवावस्था प्रतीत होती है। बाल और युवाके बीचकी अवस्था है। स्वरूप बहुत ही सुन्दर है। जिसे देखकर रति और कामदेव भी मोहित हो जाते हैं। आप सुन्दरताके केन्द्र हैं। आपके रूप और लावण्यको देखकर पशु और पक्षी भी मोहित हो जाते हैं। आपका अद्भुत स्वरूप है। आपकी लम्बाई छ: फुट चौड़ाई पौने दो फुट होगी। आप आकाशमें खड़े हुए प्रत्यक्षकी तरह दीख रहे हैं। चरणोंका तलवा अलौकिक है। शरीरका रंग न अत्यन्त श्याम है और न अत्यन्त नीलवर्ण ही है। श्यामवर्णमें हरियाली मिश्रित आपका श्यामवर्ण है। आपका स्वरूप मोहित करनेवाला है। आपका विग्रह बहुत ही मधुर है, सुन्दर है। ऐसा कौन है जो ऐसे दर्शन करके मोहित नहीं हो जायगा। तलवेमें गुलाबी रंगकी झलक है। अनेक प्रकारके चिह्न हैं। जैसे ध्वजा, पताका, ऊर्ध्वरेखा आदि। शरीरमें अद्भुत चमक है। जैसे बालब्रह्मचारीका मस्तक चमकता है, इस तरहकी अलौकिक चमक है। बड़ी भारी शान्ति है। चन्द्रमा जिस प्रकार अमृतकी वर्षा करता है। आपसे भी उसी तरहकी प्रतीति होती है। आपके चरण बड़े कोमल हैं, स्पर्शसे रोमांच होने लगता है। मानो मैं स्पर्शके द्वारा दिव्य रसका पान कर रहा हूँ, ऐसे ही अंगुलियाँ बहुत सुन्दर हैं, नाखून ऐसे चमक रहे हैं मानो हीरेके टुकड़े हों। आपके घुटने, जंघा भी चमक रहे हैं। आप पीताम्बर पहने हैं, पीताम्बर चमकीला है, आपके चरण उसमेंसे दीख रहे हैं। पीताम्बरकी कोर जब हवासे हिलती है तो बिजलीकी तरह चमकती है। आपकी कमर पतली है। करधनी पहने हैं। नाभि गंभीर है। पेटपर तीन रेखाएँ पड़ती हैं। दो भुजाएँ हैं, जिनमें दाहिने हाथमें बाण है, बायें हाथमें धनुषकी डोरी है, कमरपर तूणीर बाँधे हैं, जिसमें बाण भरे हैं। गलेमें यज्ञोपवीत धारण कर रखा है। दुपट्टा ओढ़ रखा है। गलेमें अनेक प्रकारकी मालाएँ धारण कर रखी हैं। चन्द्रहार, स्वर्णकी माला पहन रखी है। आपकी दोनों भुजाएँ लम्बी हैं। दोनों हाथोंमें अँगूठी पहने हैं, कड़े पहने हैं। आपकी भुजा ऊपरसे मोटी नीचेसे पतली बहुत ही कोमल है एवं बहुत चिकनी और सुन्दर है। आपकी छाती चौड़ी है। हृदयमें भृगुलताका चिह्न है। कंधा पुष्ट है। ग्रीवा शंखकी तरह लम्बी है। ओष्ठ और अधर लालमणिकी तरह चमक रहे हैं। वाणी बहुत ही मधुर है, कोमल है, स्वर गम्भीर है। आप जब बोलते हैं तो मनुष्य मोहित हो जाते हैं। आपकी तरफ आकर्षित हो जाते है। आप जब हँसते हैं तो दाँतोंकी पंक्तियोंका थोड़ा हिस्सा दीखता है। आपकी नासिका सुन्दर है, कपोल चमक रहे हैं। कानोंमें मकराकृत कुण्डल हैं, उनकी आभा कपोलोंपर पड़ती है। नेत्र कमलके पत्तेकी तरह विशाल हैं। नेत्र खिले हुए हैं। बड़ा भारी प्रकाश है। जिसके द्वारा गुण विकसित हो रहे हैं। आपके गुण हमारेपर फौवारेकी तरह पड़ रहे हैं। आपके नेत्रोंकी वृत्तियोंके द्वारा समता, शान्ति आदि गुण हमारेमें प्रविष्ट हो रहे हैं। आपके नेत्रोंकी वृत्तियाँ बड़ी ही शान्तिमय हैं। हमपर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि आपके गुणोंका समूह हमारे रोम-रोममें प्रविष्ट हो गया, हम शुद्ध, निर्दोष हो गये हैं। जहाँ प्रकाश होता है, वहाँ अन्धकार नहीं रह सकता, सारे पाप-दोष हट गये हैं। हमारा शरीर भी दिव्य हो गया है। आपके नेत्रोंमें समता विराजमान है।

आप समता ही नहीं दयाके भी सागर हैं। आप हम सबको प्रेमसे देखते हैं। आप सारे भूतोंके सुहृद् हैं। आपका ज्ञान अलौकिक है। आप ज्ञानके भण्डार हैं।

आप नेत्रोंद्वारा प्रेम और आनन्दकी वर्षा करते हैं। आपकी भौंहें भँवरेकी तरह काले रंगकी हैं। भृकुटी भी आकर्षण करनेवाली है। आपका ललाट चमक रहा है। मस्तकपर तिलक है। शीशपर घुँघराले केश हैं। मस्तकपर मुकुट धारण कर रखा है, मुकुट भी स्वर्णका है। आपके प्रकाशसे सारे आभूषण शोभा पा रहे हैं। आपके वस्त्र और आपके आयुध आपके प्रकाशसे प्रकाशित हो रहे हैं। आपमें दया अपार है। शान्तिकी सीमा नहीं है। पृथ्वीसे बढ़कर आपमें क्षमा है। आपका रूप लावण्य अलौकिक है। आपमें दिव्य गंध आ रही है। शीतल मन्द हवा चलती है। वह आपको स्पर्श करके चलती है, उसीसे दिव्य गंध आ रही है। आपमें जो गंध है वह मधुर है। आपके दर्शन भी मधुर हैं। आपकी वाणी भी मधुर है। आपका दर्शन, आपका भाषण अमृतमय है। ऐसा प्रतीत होता है मानो नेत्रोंके द्वारा अमृतका ही पान कर रहा हूँ।

आपका दर्शन, स्पर्श, भाषण रसमय है, अमृतमय है, प्रेममय है। आप प्रेमकी मूर्ति हैं। आप प्रेम भरे नेत्रोंसे देख रहे हैं। आप प्रेमकी दृष्टिसे देख रहे हैं। वहाँसे नहीं चाहता कि अपने मनको हटाऊँ। आपके स्वरूपका शेष, महेश भी वर्णन नहीं कर सकते। आपकी शोभाका वर्णन कौन कर सकता है? ऐसा आपका अलौकिक स्वरूप है। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरे हृदयमें विराजमान होइये। प्रार्थना करनेसे आप नेत्रोंके द्वारा मेरे हृदयमें विराजमान हो जाते हैं। मैं बार-बार आपकी स्तुति करता हूँ, नाम-गुणोंका कीर्तन कर रहा हूँ। आप गुणोंके समूहकी वर्षा कर रहे हैं। उस प्रेम और आनन्दमें हम भीग रहे हैं। सारे गुणोंका समूह हमारेमें प्रविष्ट हो रहा है।

आनन्द! आनन्द! आनन्द! चारों तरफ आनन्द-ही-आनन्द है।

नारायण नारायण नारायण।

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