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परमात्माकी शरण हो जायँ

प्रवचन-तिथि—ज्येष्ठ शुक्ल ११, संवत् २००२, प्रात:काल, गीताभवन, स्वर्गाश्रम

परमात्मामें मन लगाना मनको वशमें करनेका प्रधान उपाय है, इससे मन वशमें होता है। भगवान् ने स्वयं कहा है—

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥
(गीता ६। ३५)

अभ्यास और वैराग्यसे मन वशमें हो सकता है। वैराग्यका तात्पर्य है सारे संसारके भोगोंमें तृष्णाका अभाव। यह बड़ा अच्छा उपाय है। भगवान् ने जगह जगह बताया है—

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-
मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥
(गीता १५। ३)

इस संसारवृक्षका स्वरूप जैसा कहा है वैसा यहाँ विचारकालमें नहीं पाया जाता। क्योंकि न तो इसका आदि है, न अन्त है तथा न इसकी अच्छी प्रकारसे स्थिति ही है। इसलिये इस अहंता, ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलोंवाले, संसाररूप पीपलके वृक्षको दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्रद्वारा काट डालो।

संसारके भोगोंमें जो आसक्ति है। स्त्री, धन, पुत्र, मान-बड़ाईमें जो तुम्हारी आसक्ति है, उसे हटाकर प्रभुमें प्रीति करो, भगवान् की दया, गुण, प्रभाव, लीलाको याद करके मुग्ध हो जाओ, संसारसे प्रेम हटाकर भगवान् में प्रेम करो।

भगवान् कहते हैं इस संसार वृक्षको तीव्र वैराग्यरूपी शस्त्रसे काट डालो। काटना क्या है? भुला देना, संकल्परहित हो जाना। उसके आगे उस परमात्माका ध्यान बताते हैं—

तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूय:।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यत: प्रवृत्ति: प्रसृता पुराणी॥
(गीता १५। ४)

उसके पश्चात् उस परमपदरूप परमेश्वरको भलीभाँति खोजना चाहिये, जिसमें गये हुए पुरुष फिर लौटकर संसारमें नहीं आते और जिस परमेश्वरसे इस पुरातन संसार-वृक्षकी प्रवृत्ति विस्तारको प्राप्त हुई है, उसी आदिपुरुष नारायणके मैं शरण हूँ—इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उस परमेश्वरका मनन और निदिध्यासन करना चाहिये।

एक उपाय तो वैराग्य है, दूसरा उस परमात्माके शरण हो जाना है। आप कहें कि यह तो कठिन है। भगवान् कहते हैं कठिन नहीं है।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
(गीता ७। १४)

क्योंकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है; परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं वे इस मायाको उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसारसे तर जाते हैं।

संसारसे तो वैराग्य करना चाहिये और प्रभुसे प्रेम करना चाहिये। अभ्यासका मतलब यही है कि जहाँ-जहाँ मन जाय वहीं परमात्माको देखो। पशु, पक्षी, कीट, पतंगमें मन गया, उसमें अपने इष्टदेवकी मूर्ति देखो। भगवान् कहते हैं—

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:।
(गीता १०। २०)

हे अर्जुन! मैं सब भूतोंके हृदयमें स्थित सबका आत्मा हूँ—

सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो
मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
(गीता १५। १५)

मैं ही सब प्राणियोंके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित हूँ तथा मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन होता है।

इस प्रकारकी घोषणा शास्त्रोंमें, वेदोंमें की गयी है, इसलिये यह बड़ा अच्छा उपाय है। कुछ करना ही नहीं पड़े, जहाँ मन जाय अपने इष्टदेवको देखो, जैसे गोपियाँ देखती थीं। अपने भी यह नियम कर लो जो अपना इष्टदेव है वह सर्वोपरि है। ऐसा समझकर सब जगह उसीका दर्शन करो। दूसरा तरीका यह है—

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥
(गीता ६। २६)

यह स्थिर न रहनेवाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषयके निमित्तसे संसारमें विचरता है, उस-उस विषयसे रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मामें ही निरुद्ध करे।

जहाँ-जहाँ मन जाय वहाँ-वहाँसे हटाकर परमात्मामें लगाना चाहिये। यह तरीका भी बहुत अच्छा है।

दूसरा तरीका यह है ध्वनिमें मनको लगावें। रातमें कान बंद करके बैठ जायँ तो एक ध्वनि सुनेगी। घड़ीकी तरह सूक्ष्म आवाज सुनायी पड़ेगी। उसके साथ भगवान् के नामको जोड़ दीजिये ओम्, शिव या जो भी इष्ट मंत्र हो परन्तु छोटा होना चाहिये, नाड़ीकी चालसे उसकी चाल जल्दी होती है। अपनी भावनाके अनुसार वह नाम या मंत्र सुनायी पड़ने लगता है। अजपा जप होने लगता है।

सबसे बढ़कर उपाय है मानसिक जप। हम शरीरसे काम करते हैं मन इधर-उधर घूमता रहता है, उसे रोकना चाहिये। आपके लिये सबसे बढ़कर हितकी बात है कि मनको कोई काम दे दो, उसे कह दो जगत् की लीलाका चिन्तन क्यों करता है, यह तुम्हें घोर नरकमें ले जानेवाला है। भगवान् की लीला, भगवान् के स्वरूपका, भगवान् के नामका चिन्तन करो, यह मानसिक जप है। दूसरा मानसिक जप है हमारे इष्टदेवके मुकुटपर हम अपने इष्टदेवका नाम लिखा हुआ पढ़ें—यह बड़ा अच्छा जप है।

मनको वशमें करनेका प्रधान उपाय यही है कि भगवान् में मन लगाना। भगवान् को हर समय याद रखना, कभी भूलना ही नहीं।

भगवान् को छोड़कर जो दूसरोंके आश्रित है उनको धिक्कार है। महात्माओंका आश्रय भी दो नम्बर है।

भगवान् जो कुछ अपने लिये सुख-दु:ख भेजें, उसमें प्रसन्न होना चाहिये। भगवान् जो कुछ भी विधान करें, उसे हँसते हुए स्वीकार करना चाहिये। भगवान् के विधानमें प्रसन्न रहना चाहिये।

भगवान् श्रीकृष्ण राजा मयूरध्वजकी परीक्षा लेनेके लिये अर्जुनके साथ उनके नगरमें गये। भगवान् ने ब्राह्मणका वेश बनाया एवं अर्जुन उनके शिष्य बने। राजदरबारमें जाकर भगवान् ने कहा—राजन्! मेरे पुत्रको एक सिंहने पकड़ लिया है। मेरे अनुनय-विनय करनेपर उसने कहा—यदि तुम मुझे राजा मयूरध्वजका आधा शरीर लाकर दो तो मैं तुम्हारे पुत्रको छोड़ सकता हूँ। राजाने शरीर चीरनेके लिये आरा मँगवाया। महारानी कुमुद्वतीने कहा—विप्रेन्द्र! पत्नी पतिका अर्धभाग होती है, यदि आप राजाके आधे शरीरको ले जायँगे तो यह चतुर्थांश ही होगा। इसके अतिरिक्त दान जीवित वस्तुका ही होता है मृत वस्तुका नहीं। शरीर चीरनेपर तो वह मृत हो जायगा, अत: आप मुझे ले चलें। भगवान् ने कहा—सिंहने कह दिया था कि राजाका वामांग स्त्री है, अत: मुझे दक्षिणांग ही चाहिये। राजाके पुत्र ताम्रध्वजने कहा—विप्रवर! जो पिता है वही पुत्र है, यह सनातनी श्रुति है। पिताके शरीरका सम्पूर्ण आधा भाग पुत्र ही होता है, अत: आप मुझे ले चलें।

भगवान् ने कहा—बेटा तू सत्य कह रहा है, किन्तु सिंहने मुझसे कहा था कि तुम पुत्र एवं भार्यासे भिन्न मयूरध्वजके मस्तकका दाहिना भाग ले आना जो उसके शरीरको फाड़कर विभक्त किया गया हो।

राजकुमार एवं रानीने राजाके आदेशसे शरीर चीरना प्रारम्भ किया। राजाकी बायीं आँखसे आँसू झलक आये। भगवान् ने कहा—तुम रोते हुए दान कर रहे हो, इसलिये मैं तुम्हारे शरीरको ग्रहण नहीं करूँगा, क्योंकि विद्वान् पुरुष अश्रद्धासे किये हुए दानको स्वीकार नहीं करते। राजाने कहा—मुनिश्रेष्ठ! मैंने सोचा कि मेरा दक्षिणांग तो ब्राह्मणके काम आ जायगा, किन्तु मेरा वामांग तो पृथ्वीपर गिरकर व्यर्थ हो जायगा, इसलिये मुझे रुलाई आ गयी। मुझे तीखे आरेसे चीरे जानेकी वैसी व्यथा नहीं हो रही है, जैसी अपने जीवनमें ब्राह्मणसे विमुख होनेसे हो रही है।

अब भगवान् छिप नहीं सके। उन्होंने अपनेको प्रकट कर दिया तथा कहा—राजसिंह! उत्तम व्रतका पालन करनेवाले तुम धन्य हो। तुम धन्य हो। तुम अपना यज्ञ पूर्ण करो, मैं तुम्हारे यज्ञमें कर्मचारी बनकर काम करूँगा। राजाने कहा—जनार्दन! आप मेरे यज्ञमें काम करना चाहते हैं तो मुझे, मेरे पुत्रोंको, मेरी पत्नीको, इस महान् जनसमुदायको, यज्ञकर्ताओंको, यज्ञकी सामग्रीको अपने हाथसे पकड़कर अपने हृदयमें निविष्ट कर लीजिये। गोविन्द! यदि मैं आपको पाकर भी यज्ञानुष्ठानमें लग जाऊँ तो वेदवेदांगके पारगामी विद्वान् मेरी हँसी उड़ायेंगे।

राजाने वरदान माँगा कि आगे कलियुग आनेवाला है अब ऐसी परीक्षा नहीं लेना। ऐसी परीक्षा आजकल भगवान् नहीं लेते, किन्तु हम तो नीची परीक्षामें ही फेल हो जाते हैं।

मयूरध्वजने अपने-आपको भगवान् के समर्पण कर दिया, इसी प्रकार हमें अपने-आपको भगवान् के समर्पण कर देना चाहिये। आरा चले तो दूध निकले। यह मत्परम: मद्भक्त:का भाव है।

केवल भगवान् में प्रेम रहे और किसीसे प्रेम नहीं रहे, किसीमें आसक्ति नहीं रहे संगवर्जित: है तथा सारे भूतोंमें द्वेषभावसे रहित निर्वैर: सर्वभूतेषु है। भगवान् कहते हैं—जो ऐसा है वह अनन्य भक्त है। इसमें प्रधान बात यह है कि हर समय भगवान् को याद रखना चाहिये, कभी भूलना ही नहीं चाहिये। नारदजी कहते हैं ईश्वर परासक्ति: भक्ति: ईश्वरमें परम अनुराग ही भक्ति है। परमात्माको छोड़कर किसीमें प्रेम नहीं हो, उसका नाम है अनन्यभक्ति। वह कैसी होनी चाहिये? विशुद्ध, विशुद्धका तात्पर्य है निष्काम, निष्काम अनन्यप्रेमका नाम है अनन्यभक्ति।

नारायण नारायण नारायण।

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