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भक्ति सुगम साधन है

भगवान् ने इस समय अपनी प्राप्तिका साधन सुगम बना दिया है। इस कलिकालमें थोड़े ही साधनसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। इस समय जो मनुष्य भगवान् के शरण हो जाता है, वह चाहे कितना ही पापी-से-पापी हो शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है।

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
(गीता ९। ३०-३१)

यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माननेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है। अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है।

वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्तिको प्राप्त होता है। हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।

अतिशय दुराचारी है किन्तु भजन प्रारम्भ कर दिया तो शीघ्र ही धर्मात्मा हो जायगा। सदा रहनेवाली परमशान्तिको प्राप्त हो जायगा। हमें समझना चाहिये कि यदि हम पापी-से-पापी हों तो भी भगवान् की कृपासे तर जायँगे।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
(गीता ७। १४)

क्योंकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है; परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं वे इस मायाको उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसारसे तर जाते हैं।

गंगा पार करना कठिन है, किन्तु जो नौकामें बैठ जाता है, वह पार हो जाता है।

वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेव परायण:।
सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम्॥

इससे यह बात सिद्ध हो गयी कि भगवान् की शरण होकर जो भगवान् से प्रार्थना करे, वह सारे पापोंसे मुक्त हो जाता है, किन्तु भगवान् के भजनका रहस्य समझना चाहिये। जो मनुष्य यह समझ ले कि पाप करो, चोरी करो, कपट करो, फिर भगवान् का भजन करके नष्ट कर डालेंगे। वे इसे समझे ही नहीं। भगवान‍् का भजन यदि ऐसा हो तो फिर तो भजन पाप बढ़ानेवाला हुआ। शास्त्रोंमें बताया है कि जो नामका आसरा लेकर पाप करते हैं उनके पाप वज्रलेप हो जाते हैं।

एक हमारी यह प्रार्थना है, आपलोग यदि उचित समझें, आप गंगापर आये हैं, यहाँसे कुछ चीज लेकर जाते हैं, कुछ छोड़कर जाया करते हैं, यहाँ ऐसी चीजका त्याग करना चाहिये जिस एकके त्यागसे हम सर्वत्यागी बन सकें। उस अविद्याका त्याग करना चाहिये। संसारके भोग दु:खको देनेवाले हैं। घृणित पदार्थोंमें सुख बुद्धि कर रखी है। नाशवान् पदार्थोंमें सत् बुद्धिका नाम अविद्या है। इसे त्यागना चाहिये और ईश्वरकी भक्ति धारण करनी चहिये। भगवान् कहते हैं—

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
(गीता १०। १०)

उन निरन्तर मेरे ध्यानमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ जिससे वे मेरेको ही प्राप्त होते हैं।

भगवान् की भक्ति धारण करनेकी चीज है। भक्ति में भी असली चीज है भगवान् का स्मरण। वह सदा रखो। भगवान् का स्वरूप जैसा आप समझते हैं उसीका स्मरण करें। असली स्वरूप तो मिलनेपर मालूम होगा। जो भगवान् से मिलना चाहता है उसे भगवान् अवश्य दर्शन देते हैं। त्यागनेकी और भी बाते हैं अहंकारका त्याग कर दो। चूडालाने अपने पतिको यही उपदेश दिया है।

यह भी नहीं हो सकता तो संसारके भोगोंमें तुम्हारी प्रीति है उसका त्याग कर दो। इससे भी सुगम बात यह है कि तुम लोगोंसे व्यवहार करते हो, हर एक काममें तुम्हारी स्वार्थ बुद्धि रहती है, स्वार्थ बुद्धिको हटाओ। तुम यही सोचते रहो कि हमारे द्वारा लोगोंका लाभ कैसे हो? स्वार्थ बुद्धि तो कुत्तों और गधोंमें भी है। गधा एक-दूसरेको चाटता है, काटता है तो काटता है। तुममें भी वही रहा तो तुममें और उनमें क्या फर्क रहा। तुम्हारे साथ कोई बुराई करे, उसके साथ भी भलाई करो।

तुम्हारे साथ कोई बुराई करे उसे भुला दो, तुमने किसीकी भलाई की हो उसे भुला दो और तुम्हारा किसीने उपकार किया हो उसे सदा याद रखो और तुम्हारे द्वारा किसीका अपकार हो गया हो तो उसे सदा याद रखो। बदलेमें उस ऋणसे मुक्त होनेके लिये उसका भला करो। अच्छा कर्म करके उसका ढिंढोरा नहीं पिटवाना चाहिये। ढिंढोरा पिटवानेसे वह नष्ट हो जाता है। त्रिशंकुकी कथा आप जानते ही हैं। उसे स्वर्गसे पटक दिया गया। पुण्यको नहीं बताना चाहिये, पापको बताना चाहिये; तुमलोग तो उलटा करते हो।

घरमें सब बड़ोंको नित्य प्रणाम करें, इससे अहंकारका नाश होगा, विनय-भाव बढ़ेगा, सब लोग प्रसन्न होंगे, ईश्वर प्रसन्न होंगे। संसारमें कीर्ति होगी, इसमें परिश्रम भी नहीं लगता, समय भी नहीं लगता, इसका प्रचार करना चाहिये।

सतयुग, त्रेता, द्वापरमें यह प्रथा थी। बाण चलनेकी तैयारी है, राजा युधिष्ठिर शस्त्र-अस्त्र छोड़कर पैदल कौरवोंकी सेनामें जा रहे हैं, भीष्मपितामहको जाकर साष्टांग प्रणाम किया, उन्होंने आशीर्वाद दिया तुम्हारी जय हो, इसी प्रकार कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, शल्य सबके पास गये, सबने आशीर्वाद दिया। देखो कितनी सभ्यताकी बात है। जिनसे लड़ाई करनी है, उनके चरणोंमें नमस्कार है।

भगवान् श्रीराम वनको विदा हो रहे हैं। दशरथजी, कौसल्या यहाँतक कि माता कैकेयी जो वन दे रही हैं सबको प्रणाम करते हैं।

आज हम किसी बढ़िया राज्यकी उपमा देते हैं तो रामराज्य कहकर देते हैं। धन्य है उन रामको जिन्होंने अपनी प्रजाके सन्तोषके लिये निरपराध सीताका त्याग कर दिया। प्रजाको किंचिन्मात्र दु:ख नहीं होना चाहिये। ऐसा सुन्दर भाव था। माता-पिताके साथ कैसा सुन्दर व्यवहार है। माता कौसल्याने कहा—माताकी आज्ञा पिताकी आज्ञासे विशेष है, तब भगवान् रामने कहा माता कैकेयीकी भी आज्ञा है। सीताके साथ, लक्ष्मणके साथ कितना सुन्दर व्यवहार है। इससे हमें शिक्षा लेनी चाहिये। अपने स्वार्थका त्याग करना चाहिये।

भरतजी भगवान् को वापस लानेके लिये चित्रकूट गये। भगवान् श्रीरामने त्यागकी शिक्षा दी, हमें त्याग सीखना चाहिये।

भगवान् श्रीरामके मन्दिरमें हम जाते हैं, किन्तु मन्दिरोंमें जानेका हमारा उद्देश्य यह होना चाहिये कि हम भी भगवान् श्रीरामकी तरह बनें।

आजकल तो मन्दिरोंमें बड़ी गड़बड़ है। मन्दिरोंकी मैं निन्दा नहीं करता, किन्तु पुजारियोंकी निन्दा करता हूँ, तीर्थोंकी निन्दा नहीं करता, किन्तु पण्डोंकी निन्दा करता हूँ।

हम मूर्तिपूजाको मानते हैं। हम मूर्तिपूजाके द्वेषी नहीं, किन्तु हमारी स्त्रियाँ मन्दिरोंमें जाकर व्यभिचार करें उसके हम द्वेषी हैं। इसलिये हमें अपने घरोंमें भगवान् की मूर्ति रखकर पूजा करनी चाहिये।

तीर्थोंमें अश्रद्धा किसने करायी? पण्डोंने। हर एक काममें सुधार करना चाहिये। सुधार नहीं होगा तो उद्धार नहीं होगा, यह सिद्धान्तकी बात है।

शास्त्र बताता है, ऐसा एक आनन्द मिलता है जिसमें सदाके लिये सुख मिल जाता है। उसीको मुक्ति कहते हैं।

जिस बातको आप बुरी मानते हैं उसका कतई त्याग कर देना चाहिये। यहाँ गंगापर आकर प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये कि जो बुरा काम समझते हो उसे आजसे नहीं करना है, क्योंकि जीवन थोड़ा है और जिस बातको अच्छी समझते हो उसे धारण कर लो। बीत गया सो बीत गया, अब सुधार कर लो।

नारायण नारायण नारायण।

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