मान-बड़ाईकी इच्छा भगवत्प्राप्तिमें बाधक
प्रवचन-तिथि—ज्येष्ठ शुक्ल ११, संवत् २००२, सायंकाल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम
कंचन तजना सहज है सहज तियाका नेह।
मान बड़ाई ईर्ष्या दुर्लभ तजना एह॥
यद्यपि कंचन और कामिनीका त्याग बड़ा कठिन है, फिर भी साधन करनेसे उनका त्याग हो सकता है, किन्तु मान, बड़ाई, ईर्ष्याका त्याग होना कठिन है। मान, बड़ाई, ईर्ष्याके त्यागकी विशेष चेष्टा करनी चाहिये। मान-बड़ाईके त्यागकी शिक्षा इस समय मिलनी कठिन है। मान-बड़ाई अमृतके समान है इस प्रकारकी शिक्षा मिलती है। वचनोंके द्वारा यह शिक्षा मिल सकती है कि मान, बड़ाई काकविष्ठाके समान है, किन्तु कार्यरूपमें शिक्षा नहीं मिलती।
जबतक मान-बड़ाईकी इच्छा है, तबतक लोगोंका हित नहीं हो सकता। भगवान् से मिलना हो तो मान-बड़ाईको तिलांजलि देनी चाहिये। जबतक मनुष्य अपने-आपको पुजवाना चाहता है, तबतक असली तत्त्व नहीं प्राप्त होता। यह बड़ी बुरी आदत है और प्राय: सबमें है। सिद्धमें तो नहीं होती। किन्तु उच्चकोटिके साधकमें भी यह रहती है। उसे प्राप्त होनेपर दु:ख होता है, इसे विघ्न समझता है।
जबतक मनुष्य नाम चाहता है, तबतक वह लौकिक हित तो कर सकता है पारलौकिक नहीं। हर एक भाइयोंको इसपर विशेष ध्यान देना चाहिये। मान-बड़ाईको मनसे फेंकना चाहिये। फागुनके महीनेमें होलीके अवसरपर कोई भी अपने ऊपर कीचड़ नहीं गिराना चाहता। इसी प्रकार मान-बड़ाईसे डरना चाहिये। हर एक भाईको इस बातका ध्यान रखना चाहिये। प्रतिपक्षकी भावना करनी चाहिये। मान-बड़ाईको विषके समान समझना चाहिये, अपमान और निन्दाको अमृतके समान समझकर पी जाना चाहिये। भीतरमें बार-बार हर्षित होना चाहिये, सिद्धान्तकी बात यह है। अच्छे साधकोंमें भी मान-बड़ाईका त्याग नहीं होगा तो यह शिक्षा हमें किससे मिलेगी।
इसी प्रकार भोग, आलस्य और स्वार्थ बहुत ही भारी हानिकर चीजें हैं। रुपयोंके लोभके कारण ही मनुष्यमें प्राय: झूठ और चोरी घटती है। जबतक झूठ, कपट, बेईमानी घटती है, तबतक परमात्मासे बहुत दूर है।
इसी प्रकार जबतक राग-द्वेष हैं तबतक परमात्मासे बहुत दूर है। हर एक काममें स्वार्थका त्याग करना चाहिये। संसारमें वैराग्य होनेसे और परमात्मामें प्रेम होनेसे या यों कहो परमात्माका भजन-साधन होनेसे यह सारी बातें स्वत: ही हो जाती हैं।
ज्ञानमार्गमें देहाभिमान कम होनेसे सहज हो जाती है, भक्तिके मार्गमें बहुत सहज है, वैराग्य उपरति सबमें सहायक है। शीघ्र कल्याणकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यको तो वैराग्य उपरतिका खूब ही सेवन करना चाहिये।
भगवान् के विरहमें व्याकुल होना चाहिये। संयोग, वियोग, दोनों ही लाभकी चीज है। तद्विस्मरणे परमव्याकुलता।
यदि विरह व्याकुलता हो तो भगवान् दूर रहते हुए भी नजदीक हैं, विरह व्याकुलता नहीं हो तो नजदीक रहते हुए भी दूर हैं।
अब तो सारा समय साधनमें ही बिताना चाहिये। दूसरी चीजको पाई भर भी आदर नहीं देना चाहिये। भक्तिके मार्गमें देहाभिमानसे रहित हो जाय। परमात्माके ध्यानमें ऐसा मस्त होना चाहिये, जैसे ब्रह्म-प्राप्त पुरुष मस्त रहता है, सारा जीवन ध्यानमें ही बितावे।
सबमें यह बात हो रही है। परशुरामजीने विश्वामित्रजीसे कहा—आप इसे मेरा प्रभाव बतायें। तब लक्ष्मणजीने कहा आप स्वयं ही बता रहे हैं। हमलोग तो गुणोंको दूसरोंके द्वारा प्रकाशित करवाते हैं।
वही शूरवीर है जो अपनी बुराइयोंको तो निकाल-निकाल करके फेंके। अच्छे गुणोंको गर्भकी तरह छिपाये। अच्छेपनको निकालकर नहीं फेंकना चाहिये।
शास्त्रोंमें प्रायश्चित्त बताया है कि यदि किसी आदमीसे पाप बन गया हो तो प्रकाशित कर देनेसे वह कम हो जाता है। कपूरकी डली है उसका मुँह खोल दो तो उड़ जायगी। बुराई उड़ानी हो तो मुँह खोल दो। अपने दोषोंको प्रकट कर दो।
किसीमें बीमारी होती है तो साफ-साफ वैद्यको बता देता है। उसे बताकर भी शायद आराम हो न हो, इसमें तो लाभ ही लाभ है, किन्तु आप स्वयं तो अपनी बुराई बतावें ही क्या, दूसरे यदि बतावें तो स्वीकार नहीं करते। तभी तो दोष छिपे हुए हैं। गुणोंको पोसना चाहिये न कि दोषोंको। कोई भी आदमी अपना दोष बतावे तो गुरुकी तरह उसका आदर करना चाहिये। कबीरदासजी तो कहते हैं अपनी निंदा करनेवालेको कुटिया बनाकर बसाना चाहिये। दूसरोंका सूक्ष्म दोष भी ध्यानमें आ जाता है, स्वयं बड़े-बड़े दोष लिये फिरते हैं।
दूसरोंके बड़े-बड़े गुण भी ध्यानमें नहीं आते। कपड़ा सफेद है सफेदीकी तरफ ध्यान नहीं जाता, कोई दाग लगा होता है उसपर ध्यान चला जाता है। स्वयं मैला कपड़ा पहने फिरते हैं। अपनेमें अवगुण है उन्हें कुष्ठके समान समझें। अपमान और निंदाके लायक काम न करें, किन्तु अपमान और निंदा हो तो प्रसन्न होवें।
अपने बातें होती हैं उन्हें ध्यानमें लाओ और काममें लाओ, समझो यह कठिन नहीं है। निराशा पैदा होने ही नहीं देनी चाहिये। खूब वीरता रखनी चाहिये। जबतक मनमें आशा है, प्रतीक्षा है, वही जीवन है, निराशा ही मृत्यु है।
हनुमान् जीको जामवन्तने जोश दिलाया। जीव परमात्माका अंश है। छोटी-सी अग्निकी चिनगारीको यदि हवा मिल जाय तो सब जला सकती है। सत्संग ही यहाँ हवा है। जो छोटी-सी चिनगारी बड़ा रूप धारण करके ब्रह्माण्डको जला सकती है। ऐसे ही चेतन आत्मा सत्संगका जोश पावे तो सारा ब्रह्माण्ड स्वाहा हो सकता है अडंग बडंग स्वाहा। सब कुछ छोड़कर इसीके पीछे पड़ जाय। स्त्री, पुत्र, धन नाशवान् पदार्थ हैं, इनकी आशा छोड़ो, इनके दासत्वमें समय बिता दिया, अब छोड़ो।
संसारके काममें तो समय लगानेकी, मन लगानेकी कोई आवश्यकता ही नहीं है, चेष्टा करनी चाहिये जप, ध्यान और सत्संगकी, इसमें एकान्त, वैराग्य, उपरति सहायक है। यह नहीं हो सके तो संयम, सेवा, स्वाध्याय करे। आजकल कन्ट्रोलका जमाना है। सरकार जिस प्रकार जनतापर कन्ट्रोल करती है, उसी तरह अपनी प्रजा इन्द्रिय और मनपर कन्ट्रोल करना चाहिये। सत्संग स्वयं साधन भी है तथा साधनमें सहायक भी है।
यों तो सत्संगसे मुख्यतासे आवरणका नाश होता है, गौणी वृत्तिसे मल विक्षेपका भी नाश होता है। आवरणके नाशके लिये तो सत्संगसे बढ़कर कोई चीज है ही नहीं।
हिम्मत रखे, हिम्मत हारा सो गया।
भगवान् की ओरसे खूब सहायता है। भगवान् की सहायताके ऊपर निर्भय होकर संसारमें विचरे।
यह निश्चय कर ले कि ईश्वर हैं, उनकी मेरे ऊपर दया है,मदद है, सहारा है। फिर देखो वीरता, धीरता, उत्साह सब आकर प्राप्त हो जायँगे।
महात्मा सहारा दे तो उसके कोई कमी आती है क्या? नहीं, कमी नहीं आती, कोई आदमी विद्या पढ़ाये तो उसके कमी क्या आये। फिर वे सहायता क्यों नहीं देते? इसका उत्तर है कि हम सहारा नहीं लेते।
नारायण नारायण नारायण।