भाव ऊँचा बनावें, भाव अपना है, अपने अधिकारकी बात है
प्रवचन—दिनांक २४-४-१९४५, प्रात:काल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम
हमको अपना सुधार करना चाहिये। हमारे द्वारा अब ऐसा कोई काम नहीं होना चाहिये, जो हमें खतरेमें डालनेवाला हो। भाव ऊँचा बनायें। भाव अपना है, अपने अधिकारकी बात है। फिर कमी क्यों रहने दें। अनिच्छा-परेच्छासे जो कुछ आकर प्राप्त होता है वह हमारा प्रारब्ध है। कोई भी काम करें उसमें ऊँचे-से- ऊँचा भाव रखें। संसारमें जो कुछ है भाव ही है। भाव श्रेष्ठ बनायें।
एक भाई यज्ञ-तपादि करता है, उसका भाव यह है कि हमारा शत्रु मारा जाय, बीमार पड़ जाय तो यह तामसी है अधोगच्छन्ति तामसा:। देखनेमें उसके कर्म अच्छे हैं किन्तु उसका फल नरक है, क्योंकि उसका उद्देश्य खराब है, भाव खराब है।
दूसरा एक भाई वही यज्ञ-तपादि भगवान् में प्रेम होनेके लिये करता है या फलकी इच्छा नहीं रखता, निष्कामभावसे करता है, वह क्रिया कल्याण करनेवाली है, इसलिये उत्तम भावसे ही कर्म करना चाहिये। हम किसीकी सेवा करते हैं तो उस समय यह भाव रखना चाहिये कि हम कुछ नहीं करते, अपितु यही हमारा बहुत बड़ा काम करते हैं कि हमसे सेवा करा रहे हैं, उनकी और भगवान् की दया है कि हमको सेवाका मौका दिया है। यह भाव कल्याण करनेवाला है, ऊँचे दर्जेका भाव है। यदि यह भाव करे कि हम सेवा करते हैं तो लाभ तो है किन्तु इतना नहीं, वाहवाही मिल जायगी। नाम-बड़ाई होगी या स्वर्ग मिलेगा, किन्तु उससे लाभ क्या है? मनुष्य-जीवन विषय-भोगके लिये नहीं है। उद्देश्य यह न हो कि मैं जो दान, तप, यज्ञ, उपकार करूँगा उससे स्वर्ग मिले या कीर्ति हो। स्वर्ग और कीर्ति कोई चीज नहीं है, असली वस्तु तो ऊँचे भावसे मिलती है। स्वर्ग मिला तो क्या लाभ हुआ?
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते॥
(गीता ९। २१)
वे उस विशाल स्वर्गलोकको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकको ही प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्गके साधनरूप तीनों वेदोंमें कहे हुए सकामकर्मका आश्रय लेनेवाले और भोगोंकी कामनावाले पुरुष बार-बार आवागमनको प्राप्त होते हैं, अर्थात् पुण्यके प्रभावसे स्वर्गमें जाते हैं और पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आते हैं।
हमलोग न जाने कितनी बार स्वर्ग और नरक भोग चुके हैं, फिर यह मनुष्य जीवन पाकर फिर उसीके लिये चेष्टा करना मूर्खता है। यह मौका हाथसे न जाने दें। यह आखिरी मौका है, अन्यथा ऐसे ही जन्मते-मरते रहना है।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि। (गीता ९। ३)
पूर्वमें कितनी बार जन्मे-मरे और भविष्यमें कितनी बार जन्मेंगे और मरेंगे, इसको कोई नहीं बता सकता।
यह मनुष्यशरीर संसारमें घूमनेके लिये नहीं मिला है। संसार-चक्रको रोकनेके लिये मिला है। संसारके भोगोंके लिये या स्वर्ग भोगनेके लिये नहीं मिला है, यह तो परम कल्याण करनेके लिये मिला है।
हम जिनकी सेवा करते हैं, उपकार करते हैं, वास्तवमें वही हमारा उपकार करते हैं, वही हमारा कल्याण करते हैं। यदि हमारे द्वारा किसीका अनिष्ट हो जाय तो समझें बड़ा भारी पाप हो गया, जिसका अनिष्ट हो गया है उससे क्षमा प्रार्थना करनी चाहिये। वह यदि क्षमा कर दे तो फिर यमराजकी सामर्थ्य नहीं है कि दण्ड दे सकें।
यह भाव रखे कि सब भगवान् के ही जन हैं। जितने जीव हैं भगवान् के ही तो हैं। तुलसीदासजीने कहा है—
समदरसी मोहि कह सब कोऊ।
सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ॥
अनन्यगतिवाला भक्त भगवान् को अधिक प्रिय है। अनन्य गतिका लक्षण भगवान् राम इस प्रकार बताते हैं—
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥
वह मेरा अनन्य सेवक है जिसकी मति इस भावसे कभी नहीं टलती कि यह संसार भगवान् का स्वरूप है और मैं सबका सेवक हूँ। यह बहुत ऊँचा भाव है। गीतामें भगवान् कहते हैं—
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता ७। १९)
बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है—इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।
हमलोगोंको सबको वासुदेव समझकर, नारायण समझकर सेवा करनी चाहिये। यदि कुछ अपराध बन जाय तो सेवा-प्रार्थना करनी चाहिये और बदलेमें सेवा अधिक करनी चाहिये, यदि हमारा अनिष्ट हो तो यह भाव रखे कि यह हमारे प्रारब्धका फल है। हमने जो अपराध किया है उसका फल भगवान् इसको निमित्त बनाकर भुगता रहे हैं। प्रभुसे उसके लिये यह प्रार्थना करनी चाहिये कि प्रभो आप तो स्वयं यह काम कर सकते हैं फिर इस बेचारेको क्यों निमित्त बना रहे हैं। अपनेसे जो किसीकी सेवा हो रही है, उसमें यही भाव रखे कि अपने द्वारा जो कुछ हो रहा है उसमें सेवा करवानेवालेके द्वारा हमारा उपकार हो रहा है। किसीके द्वारा हमारा अनिष्ट होता है तो अपने ही पापोंका फल समझे। भगवान् उसको निमित्त बनाकर फल भुगता रहे हैं, उसके प्रति द्वेषभाव न रखे। उसका इसमें कोई दोष नहीं है। जो कुछ है भाव ही है। इसीको ऊँचा बनायें। यह संसार दीख रहा है, यह हमारे मनका भाव है। भीतरका भाव ही बाहर दीखता है, मनको भावमय बनाये। मनको कुछ काम चाहिये, यही काम दें। यहाँ आयें हैं तो गंगामें स्नान करें। गंगाकी महान् कृपा है तभी तो हमको पवित्र करने आयी हैं। गंगा भगवान् शंकरकी जटाका जल है और भगवान् विष्णुके चरणोंका जल है, यह कल्याण करनेके लिये ही संसारमें आयी हैं। स्नान करते समय इस प्रकारका ऊँचा भाव रखें। इसी प्रकार भगवान् को अर्घ्य देते समय यह भाव रखें कि भगवान् सूर्य संसारका कल्याण कर रहे हैं। प्रकाश द्वारा जो कल्याण होता है वह तो होता ही है। यह प्रत्यक्ष देवता हैं। इनकी रश्मियोंके द्वारा मनुष्य कल्याणको प्राप्त होता है। यह उत्तम मार्गसे परमात्माके परमधाम पहुँचाते हैं। इनकी उपासना भावमय होकर करे तो क्या वह इतना भी नहीं करेंगे कि इसने जन्मभर मेरी आराधना की है अत: उसे अच्छे मार्गसे भगवान् के धाममें पहुँचा दें। इसलिये इनकी आराधना करते समय बहुत ही ऊँचा भाव रखना चाहिये।
यही बात नामजपमें है। नामजपका बड़ा भारी प्रभाव है। नामजपसे सारे पापोंका नाश होकर कल्याण हो जाता है। नामजपके समान और कोई सुगम साधन नहीं है। निष्कामभावसे करनेपर नामजप तो और मूल्यवान् हो जाता है। नामजपके साथ- साथ भगवान् के स्वरूपका ध्यान करनेसे अधिक लाभ हो सकता है। नामजपमें भाव ऊँचा बनायें, बड़ा लाभ हो सकता है।
भगवान् की हर एक क्रियामें प्रसन्न रहे, मुग्ध हो-होकर भगवान् की दया समझे, फिर कल्याणकी प्राप्तिमें देर नहीं है।
नारायण नारायण नारायण।