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ईश्वरकी भक्ति और धर्मका पालन

प्रवचन—दिनांक ९-७-१९४२, सायंकाल, साहबगंज, गोरखपुर

सब भयका एकमात्र कारण अज्ञान है, भयका और कोई कारण नहीं है। जब सब कुछ एक वासुदेव ही है तो भय किस बातका। चारों ओर जो युद्ध चल रहा है, इसमें भगवान् की बड़ी दया है। भगवान् चेतावनी देते हैं। पता नहीं कब क्या हो जाय, इसलिये भगवान् सावधान करते हैं कि मुझे याद रखो। सब समय भगवान् को याद रखना चाहिये। यह युद्ध हमलोगोंकी ममता और अहंकारका नाश करनेके लिये चल रहा है। भगवान् ममताका नाश करते हैं। चारों ओर युद्धसे धनका नाश हो रहा है, इससे यही शिक्षा मिल रही है कि इसका भरोसा न करें, यह क्षणभंगुर है। देहमें जो अहंकार है उसका विनाश करनेके लिये भगवान् हमें आदेश देते हैं, सावधान करनेके लिये, कंचन, कामिनी, मान, बड़ाई आदि नाश करनेके लिये ऐसा करते हैं। भगवान् की इच्छासे यह लीला हो रही है। जो कुछ हो रहा है सब मंगल-ही-मंगल है। लीलाको देखकर प्रसन्न होना चाहिये। सबकी जो गति होगी वह हमारी भी होगी, इसलिये आत्माके कल्याणके लिये खूब जोरसे भजन-ध्यानका साधन करना चाहिये।

तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥
(गीता ६। २३)

जो दु:खरूप संसारके संयोगसे रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिये। वह योग न उकताये हुए अर्थात् धैर्य और उत्साहयुक्त चित्तसे निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है।

उस योगका अनुष्ठान निश्चय करना चाहिये, सबसे मोह, स्नेह हटा देना चाहिये। जिसमें ममता होती है वही दु:ख देती है। जिसमें ममता नहीं उसका दु:ख नहीं।

मनुष्यको ईश्वरके ऊपर निर्भर होना चाहिये। जो ईश्वरके ऊपर निर्भर हो जाता है उसमें धैर्य, निर्भयता आ जाती है और परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। धर्मका अनुष्ठान हृदयसे करना चाहिये। ईश्वरकी शरण और धर्मके पालनसे मनुष्यका उद्धार हो जाता है। निष्कामभावसे धर्मका पालन किया जाय तो कल्याण हो जाय। भगवान् स्वयं कहते हैं—

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:।
स कालेनेह महता योगो नष्ट: परंतप॥
(गीता ४। २)

इस प्रकारकी धर्मकी प्रणालीका बहुत दिनोंसे विनाश हो गया था। वही योग आज तुम्हारे प्रति कहा गया। इस बातको खयाल करके धर्मपालनके लिये जोर देना चाहिये। घोर कलियुग आ रहा है। ईश्वरकी स्मृति रखते हुए, धर्मका पालन करनेके लिये युद्धमें कहीं जानेमें भय नहीं है। संसारमें दो ही चीजें हैं धर्मका पालन एवं ईश्वरकी भक्ति। इससे बढ़कर दुनियामें कुछ नहीं है। धर्मके पालनसे जो चाहे सो हो जाय। इस समय धर्मका आदर करनेवाले कम हैं, इसलिये भगवान् ने यह छूट दे दी कि थोड़ा-सा धर्मका पालन भी महान् भयसे उद्धार कर देता है—

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥
(गीता २। ४०)

निष्कामभावसे जो कर्म किया जाता है वह सदाके लिये कायम रहता है। सकाम कर्ममें प्रत्यवाय अर्थात् विपरीत परिणाम भी हो सकता है, फल देकर नष्ट हो जाता है। इस धर्मका थोड़ा भी साधन महान भयसे उद्धार कर देता है।

न्यायसे जो धनोपार्जन किया जाता है वही श्रेष्ठ है। पापयुक्त धन नहीं लेना चाहिये। भोजनमें चाहे कमी हो, परन्तु आपत्ति आनेपर भी दूसरेके धन, स्त्री आदिपर मन नहीं चलाना चाहिये। न्यायके पैसेसे आत्मा पवित्र हो जाती है। अन्यायसे प्राप्त पैसे मत चाहो, वह अधर्म है।

सत्यके पालन करनेसे युधिष्ठिरका रथ भूमिसे ऊँचा उठ जाता था। आज ऐसे धर्मात्मा पुरुष हों तो सब लोग धर्मका पालन करने लग जायँ।

स्वयं धर्मने एक समय युधिष्ठिरकी परीक्षा ली। धर्म मृगरूपसे एक ऋषिकी अरणी ले गया। ऋषिने युधिष्ठिरसे शिकायत की। कल मैं यज्ञ कैसे करूँगा। उस समय माचिस नहीं थी, अरणीकी लकड़ीसे अग्नि पैदा की जाती थी। युधिष्ठिरने सहदेवको जानेके लिये संकेत किया। सहदेव गये, वहाँ जलका सरोवर था, प्यास लगी थी, आकाशवाणीके द्वारा रोकनेपर भी जल पीया, जल पीते ही मर गये। इसी प्रकार अर्जुन, भीम, नकुल सब मर गये। अन्तमें युधिष्ठिर आये और जलकी परीक्षा करने लगे, आश्चर्य करने लगे कि यह सब कैसे मरे। युधिष्ठिर भी जल पीना चाहते थे कि आकाशवाणी हुई। तुम मेरे प्रश्नका उत्तर देकर जल पीओ, नहीं तो तुम भी मर जाओगे। धर्मने प्रश्न किया—आश्चर्य क्या है? युधिष्ठिरने कहा—

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।
शेषा: स्थिरत्वमिच्छन्ति किमाश्चर्यमत: परम्॥
(महाभारत, वनपर्व ३१३। ११६)

प्रतिदिन प्राणी यमलोककी यात्रा करते हैं, इसको देखकर भी बचे हुए लोग सदा स्थिर रहना चाहते हैं, इससे बढ़कर और क्या आश्चर्य है।

तुल्ये प्रियाप्रिये यस्य सुखदु:खे तथैव च।
अतीतानागते चोभे स वै सर्वधनी नर:॥
(महाभारत, वनपर्व ३१३। १२१)

जिसके लिये प्रिय-अप्रिय, सुख-दु:ख, भूत-भविष्य आदि सब समान है, वह नि:संदेह सबसे बड़ा धनी है।

इस प्रकार बहुत-से प्रश्नोंका उत्तर पाकर यक्ष प्रसन्न हो गया और कहा कि मैं तुम्हारे एक भाईको जीवित कर सकता हूँ। युधिष्ठिरने नकुलके लिये कहा तो धर्मने कहा कि नकुलको क्यों जीवित करना चाहते हैं। भीमसेन एवं अर्जुनके सहयोगसे तो तुम्हें राज्य मिल सकता है। युधिष्ठिरने कहा कुन्तीका मैं एक पुत्र हूँ और माद्रीका नकुल रहेगा। मैं धर्मात्मा कहलाता हूँ, यदि मैं धर्मका त्याग कर दूँ तो लोग क्या कहेंगे। युधिष्ठिरने नकुलको जीवित करनेके लिये कहा। धर्मने प्रसन्न होकर सबको जीवित कर दिया और कहा मैं तुमसे सन्तुष्ट हूँ। उन्होंने अपनेको प्रकट कर दिया और पुन: अन्तर्धान हो गये। भारी आपत्ति पड़नेपर भी धर्मका त्याग नहीं करना चाहिये। जब युधिष्ठिरकी धर्मनिष्ठा देखते हैं तो रोमांच हो जाता है।

हमलोगोंको न्यायानुकूल धनोपार्जन करना चाहिये। न्यायके एक मुट्ठी चनेसे आत्मा पवित्र हो जाती है।

एक समय राजा हरिश्चन्द्र श्मशानका पहरा दे रहे थे, हरिश्चन्द्रका पुत्र मर गया, उनकी स्त्री बच्चेको लेकर श्मशानपर आयी। हरिश्चन्द्रने कर माँगा। स्त्रीने कहा—मेरे पास करके लिये पैसा नहीं है। अन्तमें करके लिये उसका चीर काटने लगे तब भगवान् से नहीं सहा गया। उसी क्षण प्रकट हो गये। हरिश्चन्द्रको वर माँगनेको कहा, तब हरिश्चन्द्रने सम्पूर्ण नगरीको परमधाम ले जानेके लिये प्रार्थना की। भगवान् ने वर दे दिया, सबका कल्याण हो गया। धर्मका पालन करना चाहिये। चाहे प्राण चले जायँ, धर्मके पालनसे सब कुछ हो जाता है। धर्मात्मा युधिष्ठिरका नाम उच्चारणसे लोग पवित्र हो जाते हैं। प्रात:काल उनका स्मरण करनेसे धर्मकी वृद्धि होती है। धर्मके एक-एक अंगके पालनसे लौकिक शक्ति बतलायी गयी है—

अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरत्याग:॥
(पातञ्जलयोगप्रदीप, साधनपाद ३५)

अहिंसाव्रतीके पास किसीके प्रति भी वैरभाव समाप्त हो जाता है।

सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्॥
(पातञ्जलयोगप्रदीप, साधनपाद ३६)

सत्यकी प्रतिष्ठा होनेपर सत्य बोलनेवालेके प्रत्येक वचन सत्य हो जाते हैं।

अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्॥
(पातञ्जलयोगप्रदीप साधनपाद ३७)

चोरी न करनेवालेको रत्नका भण्डार ही दिखलायी देता है। उसका सब विश्वास करते हैं।

इस समय कोई भी मनुष्य रुपया देना नहीं चाहता, परन्तु जो धर्मात्मा पुरुष है उसका सब विश्वास करते हैं।

जिनका परधनपर, परस्त्रीमें पवित्र भाव है, उसके पास लोग अपनी स्त्री, धन सब कुछ रख सकते हैं। अन्यायका थोड़ा-सा भी धन सबको नष्ट कर देता है। जैसे गंगाजलके घड़ेमें एक बूँद पेशाब सब गंगाजलको चौपट कर देता है, इसलिये अन्यायका पैसा इकट्ठा नहीं रह सकता। दूसरेके धनसे पाप भी लगेगा और धन रहेगा भी नहीं।

भगवान् के भजनसे अतिशय पापी भी पवित्र हो जाता है। हमने जितने पाप किये हैं सबको भगवान् नष्ट कर सकते हैं और कुछ न बने तो केवल भगवान् का भजन करे। इससे पाप नष्ट हो ही जायँगे।

जबहि नाम हिरदे धरो भयो पापको नास।
मानो चिनगी अग्निकी परी पुरानी घास॥

इसलिये हमलोगोंको निरन्तर भजन करना चाहिये। सत्य, अहिंसा, अस्तेय आदिका तीन वर्षतक पूर्णरूपसे सेवन करे तो इसकी प्रतिष्ठा हो जाय। ब्रह्मचर्यकी प्रतिष्ठासे वीर्य लाभ हो, उसके अन्दर वीर्य, पराक्रम हो जाय। एक साल ब्रह्मचर्यका पालन एक अश्वमेध-यज्ञके समान बताया गया है। एक वर्षतकके मौनका भी बहुत महत्त्व है।

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह यह पाँच महाव्रत माने गये हैं। यह सब बात प्रत्यक्ष घट सकती है। पूर्वमें महात्माओंमें यह प्रत्यक्ष दीखती थी। आज भी पालन करनेवालेमें ऐसी ही बात है। इन सबका पालन परमात्माकी प्राप्तिके लिये करना चाहिये।

राजा युधिष्ठिरकी एक-एक क्रियाका खयाल करते हैं तो अश्रुपात हो जाता है। राजा धृतराष्ट्रने आजीवन अनेकों प्रयत्न किये कि पाण्डव न रहें, परन्तु धर्मपालन करनेके कारण परमात्माने उनलोगोंकी रक्षा की। वही धृतराष्ट्र जब पुत्र मारे गये, तब राजा युधिष्ठिरके अधिकारमें रहे।

एक दिन धृतराष्ट्रने कहा युधिष्ठिर मैं और गान्धारी अब वनमें जाना चाहते हैं, मैं वहीं तप करूँगा। यहाँ रहते हमें पन्द्रह वर्ष हो गये, तुम्हारी ओरसे तो अच्छा भोजन आता है। सारा प्रबन्ध है, परन्तु हम लोग फलाहार करते हैं। भोजन जो आता है वह नौकर ही खाते हैं। युधिष्ठिरने कहा मुझे धिक्कार है आपने भोजन नहीं किया और मैंने भोजन किया। तब युधिष्ठिरने आग्रह करके भोजन कराकर स्वयं भोजन किया। बादमें युधिष्ठिरने धृतराष्ट्रको वन जानेकी आज्ञा दे दी। धृतराष्ट्रने कहा वन जाते समय खुले हाथ दान देना चाहता हूँ। युधिष्ठिरने कहा कि मेरा और अर्जुनका जो धन है, प्राण है। सब आपके अधीन है, आप जो इच्छा हो सो करें। धृतराष्ट्र गद्‍गद हो गये कि मैंने तो आजीवन इनकी बुराई की, परन्तु इनका इस प्रकारका व्यवहार हो रहा है। यही भाव कुन्ती देवीका था। जब गांधारी वन जाने लगीं तो कुन्ती भी वन जानेको तैयार हो गयी। कुन्तीने वनमें जाकर दोनोंकी सेवा की। कुन्तीके साथ गांधारीने कभी बात नहीं की थी, परन्तु कुन्ती जब राजमाता हुई तब भी उसने गांधारीकी सेवा की। स्त्रियोंके लिये कुन्ती आदर्श है। पुरुषोंके लिये युधिष्ठिर और अर्जुन आदर्श थे। गांधारीका जीवन भी पवित्र था, परन्तु कुन्तीकी तरह नहीं।

सेवाका काम सरल है और इसमें प्रत्यक्ष शान्ति, आनन्द है। सेवामें और भी उच्च भाव रखा जाय तो आनन्दमें मुग्ध हो जाय। सब ग्राहक भगवान् हैं। इस प्रकार उनकी लीला देख-देखकर मुग्ध होना चाहिये। अनेक रूपोंमें एक भगवान् ही विराजमान हैं, इस प्रकार देखना चाहिये। मुझे दु:खी जीवोंकी सेवामें जो आनन्द मालूम होता है, उतना महाभारतकी टीका करनेमें और सत्संगमें नहीं आता।

हमारा तो उद्देश्य है कि खूब सस्ता बेचा जाय, परन्तु खरीदनेवाले दूकानदार आदि अनुचित लाभ उठा लें, इसलिये इतनी छूट रखनी ठीक है कि लोग लूट न ले जायँ और काम चले। मुझे जल्दी जाना है नहीं तो करके दिखा देता।

चूरू आदिमें बेचनेके लिये भी अन्न नहीं मिलता, इसलिये जल्दी जाना है, अन्य गाँववालोंको देखना चाहिये कि कौन विशेष गरीब है, उसकी सेवा करें। अन्न, कपड़ा, पुराना कपड़ा भी बाँटें। दो ही बात सार है—धर्मका पालन और ईश्वरकी भक्ति।

बाहरके खान-पानमें पवित्रता यह शौचाचार है, इसकी भी बड़ी आवश्यकता है। यह धर्मकी जड़ है। धर्मकी उत्पत्ति आचारसे होती है। ‘आचारप्रभवो धर्म:’ जैसे अभिमानसे पापकी उत्पत्ति होती है, जिसमें अभिमान नहीं है उससे पाप नहीं होते।

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥
(गीता १८। १७)

हे अर्जुन! जिस पुरुषके अन्त:करणमें मैं कर्ता हूँ ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थोंमें और सम्पूर्ण कर्मोंमें लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकोंको मारकर भी वास्तवमें न तो मारता है और न पापसे बँधता है।

इसलिये सदाचार और ईश्वरकी भक्ति दो चीज बड़ी अमूल्य है। गीतामें कहा है जो कर्मोंमें अभिरत होकर चेष्टा करता है उसको जल्दी सिद्धि प्राप्त होती है। स्वार्थ त्याग करके करनेसे जल्दी सिद्धि प्राप्त होती है।

पाँच रुपये कमाकर दो रुपये अपने निर्वाहके लिये लेना प्रसाद है, अमृत है। राग-द्वेषरहित होकर और दूसरे काम करनेवाले साथियोंको मान देकर काम करनेसे जल्दी काम बनता है। बुद्धि एवं विद्याके अभिमानका त्याग करना चाहिये। जिसमें अधिक अभिमान है, उसमें उतना ही अज्ञान है, यही मूढ़ता है। इस मूढ़ताका त्याग करनेसे परमात्माकी प्राप्ति शीघ्र हो जाती है। समझदार आदमीको अहंकारको काल समझकर त्याग देना चाहिये। जिस क्षण अहंकारका त्याग हुआ परमात्माकी प्राप्ति हो गयी, इसलिये जल्दी-से-जल्दी अहंकारका त्याग करना चाहिये।

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