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वैराग्यकी महिमा

मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाके त्यागकी बात बड़ी अच्छी लगती है, परन्तु त्यागमें कठिनता है। महाराज युधिष्ठिर और भगवान् रामकी बात सुनते हैं तो विचार होता है कि हम भी ऐसे ही बनें। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाकी त्यागकी बात सुनते हैं तो मन होता है कि मैं भी त्याग दूँ।

मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा सबकी जड़ अहंकार है, इसलिये अहंकाररूप जड़ काट डालो। वैराग्यके साथ उपरति होती है। वैराग्यके समय संसारका चित्र नहीं आता। जैसे विषयी पुरुषके भगवान् का चित्र मनमें नहीं आता है। वैराग्यवान् तो भगवान् को छोड़ नहीं सकता, उसमें उसको रस आता है। विषयोंका रस अल्प है और यह तो महान् है। इसकी तुलना ही नहीं है, जैसे अमृतकी जलके साथ उपमा नहीं दी जा सकती।

वैराग्यरूपी रसका पान करनेसे सब रस नीरस हो जाते हैं। यह रस न स्वर्गमें है न पातालमें है, अन्य सब रस इसके सामने कुरस हैं। वैराग्यका नाम तो हम सुनते हैं, परन्तु जिस क्षण वैराग्य होता है, वह अद्भुत होता है। सारी त्रिलोकीका ऐश्वर्य धूलके समान हो जाता है। रागका अभावका ही वैराग्य है। विषयीको पुष्पकी माला, चन्दन आदिका लेप अच्छा लगता है, परन्तु वैराग्यवान् को उलटा परम दु:खरूप लगता है। जिस क्षण वैराग्य हो और वह कायम रहे तो क्या ठिकाना है। जिस क्षण उपरति हो उसका क्या कहना। ऐसी स्थिति महात्माकी कृपा, शास्त्रकी कृपा और ईश्वरकी कृपासे प्राप्त होती है। तीनों वस्तु एक ही तत्त्व हैं। शास्त्रकी वाणी महात्माकी ही वाणी है और महात्मा भगवत्स्वरूप हैं। संसारमें बहुत-से ऋषि भक्तोंको तो देखा, परन्तु उनमें वैराग्यवान् बहुत कम मिले। सब मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाके गुलाम मिले। कंचन-कामिनीके त्यागके बाद मान-बड़ाईरूप गड्ढेमें पड़ गये। एक गड्ढेसे निकलकर दूसरे गड्ढेमें पड़ गये। हजारों आदमी मेरी प्रतिष्ठा करें तो उससे मेरा क्या लाभ, मेरा तो उसीमें लाभ है कि मेरे द्वारा लोगोंकी सेवा बने, ईश्वरकी भक्ति हो।

अधिकतर लोग प्रतिष्ठाके कारण कोई बाबाजी, कोई नेता, कोई महर्षि बन जाता है। पहले तो त्याग करके ऊपर उठता है, परन्तु आगे जाकर लोग उसको नीचे गिरा देते हैं। कोई कंचन, कामिनीका त्याग करके ऊपर उठता है तो लोग मान, बड़ाईका लोभ देकर गिरा देते हैं। यह बड़ी कठिन घाटी है। मूँड़ मुड़ाना, कपड़ा रँगाना कोई वैराग्य नहीं है। मूँड़ मुड़ाया, मन नहीं मूँड़ा तो क्या लाभ है? आसन लगाया परन्तु आस नहीं त्यागी तो क्या लाभ है? मूँड़ मुड़ानेके लिये दो पैसा नाईको देनेसे काम हो जाय। दो पैसेके रंगसे कपड़ा रँगा जाय, इसका क्या महत्त्व है? बाहरसे असाधु रहे, भीतरसे साधु बने। बाहरसे साधु बनना बेइज्जती है। हमको बाहरका दिखाऊपना अच्छा नहीं मालूम होता। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाको हम बुरी मानते हैं, परन्तु यह नहीं कह सकते कि हम वास्तवमें इनसे पार हो गये हैं। कंचन, कामिनीका हम पाठ पढ़ाते हैं, परन्तु यह नहीं कह सकता कि मैं त्याग कर चुका हूँ। विचारसे मैं इसका त्याग करना ठीक समझता हूँ, इसलिये सबसे यही प्रार्थना है कि मुझमें यदि बुरी आदत हो तो आपलोग उसका त्याग करें, मेरेमें जो अच्छी बात हो वह गीता आदिका वाक्य है, मनु आदि महर्षियोंका वाक्य है।

वैराग्यकी पुस्तकें मैं पढ़ा हूँ और कानोंसे सुना हूँ तथा देखनेको मिला है। वैराग्यका आभास प्राय: मनुष्योंको आ जाता है। जिस क्षण वैराग्य होता है उस समयकी झाँकी बड़ी दुर्लभ है। वैराग्यवान् पुरुष जिस मार्गसे निकलता है, वहाँकी भूमि वैराग्यमय हो जाती है। उस भूमिमें प्रवेश करो तो मालूम होता है कि वैराग्यके साम्राज्यमें प्रवेश कर रहे हैं।

जिस समय स्वर्गाश्रममें हमलोग प्रवेश करते हैं, उस समय अद्भुत वैराग्य हो जाता है, उस समय वैराग्यका आविर्भाव होकर नृत्य करता है। व्याख्यानमें कभी हल्ला-गुल्ला हो उससे उपरति होनेपर जंगलके एकान्त स्थानमें बैठनेसे वैराग्यकी लहरें उठने लगती हैं। उस समय सारा संसार स्वप्नवत् हो जाता है। किसी समय ऐसी उपरति होती है कि त्रिलोकीका ऐश्वर्य भी धूलके समान मालूम होने लगता है। उस समय यह महल-माल अच्छा नहीं लगता। विचार और विवेकके द्वारा यही अच्छा मालूम देता है कि रूखा-सूखा खाकर कौन आया कौन गया इसका ध्यान न रहे। ध्यानमें मस्त रहे, नेत्र न खोले। लोगोंकी भीड़ हो, शास्त्रोंका जो प्रश्न करे उसका उत्तर दे दिया। यह पहचान नहीं होवे कि मित्र आये हैं, भाई आये हैं, पिता आये हैं। किसीकी परवाह नहीं, पहचान न सके। उस समय पहचान करानेपर भी ज्ञान नहीं हो, सब अपने ही हैं। कोई कहे मैं तुम्हारा भाई तो हाँ भाई हो। उस समय मनसे, बाहरसे, भीतरसे त्रिलोकीके ऐश्वर्यका त्याग कर दे।

विदुरजी वनमें विचर रहे हैं, किसीका खयाल नहीं आता। युधिष्ठिरजी वन जाकर विदुरका पता पूछते हैं तो धृतराष्ट्रजी कहते हैं कि वह वनमें कहीं एकान्तमें होंगे, विदुरको मालूम हुआ कि युधिष्ठिर आये हैं तो उस समय विदुरजीने एक वृक्षके सहारे खड़े होकर शरीर त्याग दिया। युधिष्ठिर जाते हैं तो देखते हैं प्राण नहीं हैं, शरीर पड़ा है। यह वैराग्यकी अवस्था है। जडभरतजी वैराग्यमें मस्त हैं। घरवाले समझते हैं यह जड़ है, मूर्ख है। वे मस्त हैं, किसीकी परवाह नहीं है। घरवालोंने कहा इस भूमिकी मिट्टी लेकर दूसरे जगहका गड्ढा पाट दो। जडभरत जहाँ मिट्टी गिराते वहाँ तो ऊँचा हो गया और जहाँसे उठाते वहाँ गड्ढा हो गया। घरवाले मूर्ख समझने लगे।

एक दिनकी बात है जडभरत खेतमें मस्त बैठे थे। देवीकी भेंट चढ़ानेके लिये राजाके सेवक एक मनुष्यको खोज रहे थे, इनको बैठा देखकर पकड़कर ले गये। भेंट चढ़ानेके लिये देवीके सामने ले गये, तैयार किया। तलवारसे मस्तक काटने जा रहे थे, देवीने मूर्तिसे प्रकट होकर तलवार छीनकर सब लोगोंके मस्तक काट दिये एवं जडभरतकी रक्षा की। देवीने कहा आपने मस्तक झुका दिया। आपकी ऐसी क्रिया देखकर देवी प्रसन्न हो गयी कहा वर माँगो। जडभरतने कहा सबको जीवित कर दें, सब जीवित हो गये। जडभरतमें वैराग्य, उपरामता दोनों थी। संसारमें प्रेमका अभाव वैराग्य है और संसारका ज्ञान न रहना उपरामता है। जिस क्षण मनुष्यके वैराग्य उत्पन्न होता है, सब त्रिलोकीका ऐश्वर्य फीका लगता है। महल, पलंग आदि अच्छे नहीं लगते। भूमिपर कहीं सो गये; सर्दी, गर्मी, बरसातकी परवाह नहीं। ऐसा वैराग्य जिससे उसके आनन्दका ठिकाना नहीं रहता। देहाध्यासका खयाल ही नहीं रहता।

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