गीताजीकी महिमा
प्रवचन-तिथि—ज्येष्ठ शुक्ल १३, संवत् २००२, प्रात:काल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम
हमलोग यहाँ लगभग साढ़े तीन महीने रहे। यों तो समय बहुत ही अच्छा बीता, किन्तु फिर भी जैसा हम विचारोंके द्वारा उत्तम चाहते हैं ऐसा नहीं बीता। इसके लिये हमें खयाल रखना चाहिये कि आगेका समय और भी जोरदार बीते। अगले वर्ष हम आवें तो इससे भी जोरदार समय बितानेकी चेष्टा करें।
यहाँ जो बातें सुनी हैं घरपर जाकर उनको काममें लावें। यहाँ तो सुना ही सुना है, हमारी श्रद्धा पूर्ण हो तो केवल सुननेसे ही काम हो सकता है। भगवान् कहते हैं—
श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नर:।
सोऽपि मुक्त: शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्॥
(गीता १८। ७१)
जो पुरुष श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टिसे रहित हुआ इस गीता शास्त्रका श्रवणमात्र भी करेगा, वह भी पापोंसे मुक्त हुआ, उत्तम कर्म करनेवालोंके श्रेष्ठ लोकोंको प्राप्त होगा।
परमात्माकी, परमधामकी प्राप्ति केवल श्रवणमात्रसे हो जाती है। भागवत जब सुनायी गयी तो धुन्धुकारीकी मुक्ति हो गयी, परीक्षित् की हो गयी। दूसरोंकी नहीं हुई, जिन्होंने श्रद्धासे सुना उनकी मुक्ति हुई। यहाँ आपको गीता सुनायी गयी।
गीताका तो ऐसा प्रभाव है, भगवान् कहते हैं जो नित्य पाठ करे उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञके द्वारा पूजित होता हूँ। गीताका पाठ ज्ञानयज्ञ है। नित्य पाठ करनेकी बड़ी महिमा है, इसलिये हमें गीताका नित्य पाठ करना चाहिये। अर्थकी ओर लक्ष्य रखकर पाठ करना उससे भी बढ़कर है। जीवनमें एक श्लोक भी धारण कर लें तो बेड़ा पार है। गीतामें ऐसे कई श्लोक हैं। जैसे—मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। यह आधा श्लोक भी धारण कर ले तो बेड़ा पार है। आप प्रेमसे गीताका अभ्यास करें तो आपके उद्धारमें सन्देह नहीं। श्रद्धा-प्रेम कहींसे मोल नहीं लाना है। यह तो आपकी चीज है। इसमें बाधक भी कोई नहीं है। केवल अपने मनको समझाना है। मनको समझाना चाहिये कि भगवान् से बढ़कर कोई नहीं है। भगवान् स्पष्ट कहते हैं—
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥
(गीता १५। १६)
इस संसारमें दो प्रकारके पुरुष हैं—क्षर और अक्षर। उत्तम पुरुष परमात्मा हैं। भगवान् कहते हैं—जो मुझको पुरुषोत्तम समझता है वह मेरेको ही भजता है।
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥
(गीता १५। १९)
हे भारत! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्त्वसे पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वरको ही भजता है।
सार यही है कि जो परमात्माको पुरुषोत्तम समझ लेता है वह भगवान् को ही भजता है। समझनेसे ही कल्याण है, भगवान् सर्वज्ञ हैं, सर्वान्तर्यामी हैं, सुहृद् हैं, यह समझना है—मन और बुद्धिको समझाओ। समझकी कमीके कारण ही साधनकी कमी है। परमात्माके रहस्यको, तत्त्वको समझ जाओगे तो परमात्मामें पूर्ण प्रेम, पूर्ण श्रद्धा हो जायगी। हमारा ध्येय यही होना चाहिये। जब परमात्मामें प्रेम हो जाता है तो परमात्मा उसके अधीन हो जाते हैं।
हमारा जो समय गया सो गया। श्रद्धा-प्रेमकी कमीके कारण कमी रह गयी। श्रद्धा-प्रेमकी पूर्तिके लिये एकान्तमें भगवान् के सम्मुख रुदन करना चाहिये। रोना नहीं आये तो व्याकुल होना चाहिये, वह भी नहीं हो तो स्तुति-प्रार्थना करनी चाहिये। यह अपने अधिकारकी बात है। स्तुति-प्रार्थना क्रियासाध्य है। इसके करनेसे भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं। भगवान् के यहाँ सुनवायी हो जाती है। और कुछ भी नहीं हो सके तो भगवान् केशवका नाम लेकर रोना चाहिये, जैसे द्रौपदी रोती है, ऐसे ही हमें रोना चाहिये। केशव केशव कूकिये न कूकिये असार। संसारके लिये नहीं रोना चाहिये। लोग रोते हैं संसारके लिये। हमें तो भगवान् के लिये ही रोना चाहिये। यदि रोना नहीं आये तो रटन लगाओ। इसमें तो कह ही नहीं सकते कि यह हम नहीं कर सकते।
राम राम रटते रहो जब लग घटमें प्रान।
कबहुँ तो दीनदयालके भनक पड़ेगी कान॥
उनके नामकी रटन करो। करते करते भगवान् के कानोंमें आवाज पड़ेगी ही। यह सार बात है।
यहाँ जो बात सुनी है, उसके अनुसार घरपर कसकर साधन करना चाहिये। शरीरको आराम नहीं देना चाहिये। मन, इन्द्रियोंको भी भगवान् में लगा देना चाहिये। मनसे भगवान् का ध्यान, बुद्धिसे निश्चय, कानोंसे भगवान् के प्रेम-प्रभावकी बातोंका श्रवण, श्वाससे जप करते रहना चाहिये।
इतना तीव्र साधन वैराग्यसे होता है। आप कहें कि यह वैराग्य कहाँसे लायें? यहाँका दृश्य याद कर लो। यहाँका दृश्य याद करनेसे ही वैराग्य होता है। यह ऐसा ही स्थान है। गंगा, वटवृक्ष, एकान्त देश, वन, गुफा, यहाँ वर्षोंतक महात्माओंने तपस्या की है। वर्षोंसे सत्संग होता है। परम पवित्र भूमि है। ऐसा स्थान कोसोंमें कहीं शायद मिले। वैराग्यकी उत्पादक धूलमें बैठना है। राजा-महाराजा भी यहाँ आकर धूलिमें बैठते हैं। वनमें पत्थरोंपर बैठना—इस दृश्यको याद करना चाहिये। वैराग्यकी वृत्ति बार-बार बनानी चाहिये। उससे साधन स्वत: ही होगा, करना नहीं पड़ेगा। आपलोगोंने किसीने दो महीना, किसीने तीन महीना यहाँ वास किया, हमारे ऊपर बड़ी कृपा की। मूलमें भगवान् की कृपा है ही।
जापर कृपा रामकी होई।
तापर कृपा करइ सब कोई॥
आपलोग इतने आदमी नहीं जुटते तो मैं क्या जंगलको सुनाता। आपलोगोंको जो शान्ति मिली है उससे अधिक वक्ताको मिलनी चाहिये। कारण वक्ताके मनमें जो भाव आता है वह सब-का-सब कैसे कहा जा सकता है। भगवद्विषयक यत्किंचित् जो भाव बुद्धिमें आता है, उतना मन कल्पना नहीं कर पाता। पंगु हो जाता है। मनमें जो भाव आता है, वाणीके द्वारा कहा ही नहीं जा सकता। वाणीके द्वारा जो कुछ कहा जाता है, सुननेवाले उतना सुन नहीं पाते, जितना सुना जाता है उतना याद नहीं रहता। इसलिये श्रोताकी बुद्धिके द्वारा उतना निश्चय नहीं किया जा सकता जितना वक्ताकी बुद्धिके निश्चयमें आया है। इतने मात्रसे भी श्रोताको प्रसन्नता, आनन्द मिलता है, फिर वक्ताको तो अधिक प्रसन्नता, आनन्द मिलता ही है। इस ऋणसे मैं मुक्त नहीं हो सकता, इससे उऋण होनेका उपाय है आपको भगवान् की प्राप्ति। वह मैं नहीं करा सकता, वह तो भगवान् के हाथकी बात है। वे स्वतन्त्र ठहरे, वे चाहे सो कर सकते हैं। नहीं तो सच्ची बात तो यह है कि हम सब भगवान् के ऋणी तो हैं ही। जो सुननेके लिये आते हैं उनकी हमारे ऊपर कृपा है, किन्तु उऋण होना प्रभुके हाथकी बात है, हमारे हाथकी बात नहीं है।
हनुमान् जी भगवान् के मात्र दास हैं। उन्होंने आकर संदेश दिया कि सीता-लक्ष्मणके साथ भगवान् आ रहे हैं। भरतजी चौंक पड़े, कहा यह जो आपने संदेश दिया है इसलिये मैं आपका ऋणी रहूँगा।
एहि संदेस सरिस जग माहीं।
करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं॥
नाहिन तात उरिन मैं तोही।
अब प्रभु चरित सुनावहु मोही॥
हे हनुमान्! मैंने देखा संसारमें कोई पदार्थ है ही नहीं, जिसको देकर मैं आपसे उऋण हो सकूँ।
हे तात! हे प्यारे! मैं तुम्हारे ऋणसे नहीं छूट सकता, अब प्रभुके चरित्र सुनाओ। एक बात सुनायी उतने मात्रसे ही भरतजी ऋणी हो गये।
थोड़ी-सी परमात्माकी बात आपको सुनायी, उससे मैं आपका ऋणी हो गया। अधिक आपको सुनायी जायगी, उससे और ज्यादा ऋण मेरे ऊपर हो जायगा। जबतक आप और मैं जीवित रहें, आप इस प्रकार मुझे ऋणी बनाते ही रहें। जिस प्रकार इस बार दया की, बराबर इस प्रकार करते ही रहें।
आपका जितना मुझपर प्रेम है, इसके लिये भी यही प्रार्थना है और प्रेम बढ़े। प्रेम और दया आपके हृदयमें बढ़ती रहेगी तो एक दिन उस अवस्थाको आप प्राप्त हो सकते हैं, जो भक्तोंके लक्षण भगवान् ने बताये हैं—
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।
निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी॥
(गीता १२। १३)
जो पुरुष सब भूतोंमें द्वेषभावसे रहित, स्वार्थरहित, सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममतासे रहित, अहंकारसे रहित, सुख-दु:खोंकी प्राप्तिमें सम और क्षमावान् है अर्थात् अपराध करनेवालेको भी अभय देनेवाला है।
जहाँ प्रेमकी मात्रा अधिक हो जाती है वहाँ द्वेषकी गुंजाइश नहीं रहती। भगवान् सबके सुहृद् हैं ही। जिसको इस बातका ज्ञान हो जाता है वह भी सुहृद् बन जाता है।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥
(गीता ५। २९)
मुझे सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंका सुहृद् अर्थात् स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्त्वसे जानकर शान्तिको प्राप्त होता है।
जो भगवान् के भक्त होते हैं वे सुहृद् ही होते हैं। जब आपमें सुहृदता आ जायगी तो यह स्वत: ही सिद्ध हो जायगा।
आप इस कामके लिये घरसे निकल पड़े तो किसी भी अंशमें भक्त हो ही गये। आपमें दया और प्रेमकी कमी है उसे बढ़ाओ। मैं तो यही कहूँगा प्रथम मेरेसे प्रारम्भ करो, यद्यपि मेरे ऊपर दया और प्रेम आपका है किन्तु और बढ़ायें।
दया और प्रेम कैसा होना चाहिये? ममता रहित। ममता करे भगवान् में, अहंकार भी भगवान् में, संसारसे ममता, अहंकार हटाकर भगवान् से ममता, अहंकार करो।
अस अभिमान जाइ जनि भोरे।
मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥
यह शुद्ध अभिमान है। संसारमें जो हमारा अहंकार है, वह हटाकर प्रभुमें करना चाहिये। जब आपमें ममता, अहंकार नहीं रहेगा तो सुख-दु:खमें समता स्वत: ही हो जायगी। यह नारायणी हर समय हँसती रहती है, यह चीज हमें इससे सीखनी चाहिये। हर समय प्रसन्न रहना चाहिये। दूसरी बात यह है कि यह रोती हो तो गीता पूछो, रोना बंद कर देती है।
गीताका अभ्यास ऐसा ही नहीं इससे भी बढ़कर करना चाहिये। जैसा इसने अभ्यास किया है, ऐसा अभ्यास होनेके बाद उसका अनुभव हो जाय, फिर उसका अनुष्ठान हो जाय तो फिर उसका कल्याण हो, यह तो बात ही क्या है, उसके द्वारा बहुतोंका कल्याण हो सकता है। वह गंगासे भी बढ़कर है। गंगास्नान करनेवाला स्वयंका कल्याण कर सकता है, दूसरेका नहीं, किन्तु गीता-रूपी गंगामें स्नान करनेवाला दूसरोंका भी कल्याण कर सकता है।
गीताके एक-एक श्लोक ऐसे हैं जिनके एक-एकके पालनसे कल्याण हो जाय। भक्तिका—
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥
(गीता १०। ९)
निरन्तर मुझमें मन लगानेवाले और मुझमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन मेरी भक्तिकी चर्चाके द्वारा आपसमें मेरे प्रभावको जनाते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर सन्तुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेवमें ही निरन्तर रमण करते हैं।
कर्मका—
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण:।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम्॥
(गीता २। ५१)
क्योंकि समबुद्धिसे युक्त ज्ञानीजन कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले फलको त्यागकर जन्मरूप बन्धनसे मुक्त हो निर्विकार परम पदको प्राप्त हो जाते हैं।
भक्ति एवं कर्म एक साथ—
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रय:।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥
(गीता १८। ५६)
मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मोंको सदा करता हुआ भी मेरी कृपासे सनातन अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जाता है।
ज्ञानका—
योऽन्त:सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव य:।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥
(गीता ५। २४)
जो पुरुष अन्तरात्मामें ही सुखवाला है, आत्मामें ही रमण करनेवाला है तथा जो आत्मामें ही ज्ञानवाला है, वह सच्चिदानन्दघन परमब्रह्म परमात्माके साथ एकीभावको प्राप्त सांख्ययोगी शान्त ब्रह्मको प्राप्त होता है।
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा:।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा:॥
(गीता ५। १७)
जिनका मन तद्रूप हो रहा है, जिनकी बुद्धि तद्रूप हो रही है और सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही जिनकी निरन्तर एकीभावसे स्थिति है, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञानके द्वारा पापरहित होकर अपुनरावृत्तिको अर्थात् परमगतिको प्राप्त होते हैं।
सर्वत्र समबुद्धय: कहाँ है?
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय:।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:॥
(गीता १२। ४)
परन्तु जो पुरुष इन्द्रियोंके समुदायको भली प्रकार वशमें करके मन-बुद्धिसे परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहनेवाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको निरन्तर एकीभावसे ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतोंके हितमें रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं।
तत्मात् योगी भवार्जुन कहाँ है?
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक:।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥
(गीता ६। ४६)
योगी तपस्वियोंसे श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियोंसे भी श्रेष्ठ माना गया है और सकामकर्म करनेवालोंसे भी योगी श्रेष्ठ है; इसलिये हे अर्जुन! तू योगी हो।
सात्त्विक ज्ञान—
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्॥
(गीता १८। २०)
जिस ज्ञानसे मनुष्य पृथक्-पृथक् सब भूतोंसे एक अविनाशी परमात्मभावको विभागरहित समभावसे स्थित देखता है, उस ज्ञानको तो तू सात्त्विक जान।