जीवन-सुधारकी बातें
अब कुछ नियम बताता हूँ। आपकी इच्छा हो तो पालन कर सकते हैं—
१.जहाँतक हो सके हाथके बुने कपड़े पहने, जिससे बुद्धि शुद्ध रहे। इनमें चर्बी नहीं लगती, पैसे गरीबोंको मिलते हैं, खद्दर हो तो अच्छा है नहीं तो मिलका सूत भी चल सकता है।
२.हो सके तो नित्य अपने घरमें बड़ोंको एक बार नमस्कार करना चाहिये।
३.भोजन बननेपर बलिवैश्वदेव करना चाहिये। वही अन्न पवित्र है जो बलिवैश्वदेव करके ग्रहण किया जाता है। भगवान् कहते हैं—
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥
(गीता ३। १३)
यज्ञसे बचे हुए अन्नको खानेवाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं और जो पापीलोग अपना शरीरपोषण करनेके लिये ही अन्न पकाते हैं, वे तो पापको ही खाते हैं।
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम॥
(गीता ४। ३१)
यज्ञोंके परिणामरूप ज्ञानामृतको भोगनेवाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं और यज्ञरहित पुरुषको यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा।
भगवान् कहते हैं वह चोर है उसका जीवन व्यर्थ है। भगवान् ने इतनी गालियाँ दी, हम भगवान् की गाली क्यों सुनें। औरोंकी गालियाँ तो हमें पवित्र बनाती हैं। दूसरे लोग हमको अपमानित करें, उनकी हमें अपने ऊपर दया समझनी चाहिये। मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाका त्याग बहुत ऊँचे दर्जेकी चीज है। जिन्होंने मान-बड़ाईको ठुकरा दिया है वे भगवान् के बहुत निकट पहुँच गये हैं। जब आपमें विनय भाव आयेगा, तब आप देखेंगे कि भगवान् आपके हृदयमें निवास करेंगे, अभी आपका स्थान भगवान् के लिये खाली नहीं है। अहंकारने स्थान जमा रखा है। दिन और रात एक ठाँवमें रह नहीं सकते। इसलिये भाइयों ‘मैं’ को हटाओ, ‘राम’ को रखो। सबको इसपर जोर देना चाहिये। मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाको विष्ठाके समान समझकर उनका त्याग करना चाहिये। अपमानको अमृतके समान समझकर सेवन करना चाहिये।
अहंकार मूल है, इस दोषको हटाओ। यह हट गया तो इसके साथ सारे दोष हट जायँगे, यह मूल है। इसे काट डालो, इसके कारण ही आप मान-बड़ाईके दास हो रहे हैं। संसारमें चक्कर लगा रहे हैं, जब आप इसको हटा देंगे तो भगवान् आपके हृदयमें आकर दर्शन देंगे। यह बात समझनी चाहिये। लोग कहते तो हैं किन्तु समझते नहीं हैं, कहना तो बहुत सरल है। मान-बड़ाई- प्रतिष्ठा घृणा करने लायक है। काममें लानेसे ही आपका काम सफल होगा। मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाको बिक्री करोगे तो पाँच पैसे भी नहीं मिलेंगे इतनी खराब चीज है। फिर भी आप पुत्रकी तरह इसका पोषण करते हैं, इसीने आपका घर रोक रखा है। भगवान् प्रतीक्षा करते हैं किन्तु उनके लिये तुम्हारे पास स्थान नहीं है। तुम भगवान् को बैठाओ। हम इतने वर्षोंसे गीता पढ़ते हैं, सुनते हैं। मान-बड़ाई बुरी चीज है, यह सुनते हैं, किसी अंशमें मानते भी हैं, किन्तु अनुभवमें नहीं लाते। जबतक इसे नहीं हटाते तबतक परमात्माकी प्राप्ति कठिन है। सबके चरणोंकी रज बनें। लोग कहते हैं हम चरणोंकी रज हैं यह कहना तो बड़ा सरल है, वाणीका विलास है। चरणोंकी रजका मतलब है चरणोंमें ही रहना, जैसे हनुमान् जी महाराज।
हम जैसा कहते हैं वैसा ही होना चाहिये। विनय बहुत उच्च कोटिकी चीज है। जैसे काशीके पं० श्रीमदनमोहनजी महाराज हैं। उनसे विनय सीखनी चाहिये। गणपतरायजी लोहियाके भाई बद्रीदासजी लोहिया हैं उनमें विनय है। डागाजीमें सेवाभाव, विनय, प्रेमभाव है। इससे और अधिककी आवश्यकता है, क्योंकि वे कहते हैं अभीतक परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई। यह सब होकर अहंकार बाकी रहता है। यह सब सुनकर उन्हें प्रसन्नता हो तो अहंकार है। उसे दूर करना चाहिये। प्रशंसा सुनकर जब रोओगे तब भगवान् आयेंगे। भगवान् बड़े दयालु हैं। जैसे माता दयालु होती है। बालक रोता है तो माँ उसकी बहिनको खिलौना देकर भेजती है। बालक खिलौना फेंक देता है तो बहिन जाकर कहती है भैया राजी नहीं हुआ। माँने कहा कि मिठाई ले जा, बालक मिठाईसे भी प्रसन्न नहीं होता, रोता ही रहता है तो सब काम छोड़कर माँ आती है।
इसी प्रकार गहना, रुपया, खिलौना है। इससे खेलते रहोगे तो माँ नहीं आयेगी। माया इसकी बहन है, प्रभु हमारी माँ हैं। वे प्रकृतिको भेजते हैं कि तुम जाकर इसे बहलाओ। हम प्रकृतिमें बह जाते हैं तो प्रभु नहीं आते। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा मेवा-मिष्टान्न है। हम इसे खाने लग जाते हैं तो माँ देखती है कि बहल गया, फिर माँ नहीं आती। हम यह भी फेंक देते हैं तो सब काम छोड़कर माँ आती है। जिस समय आप मेवा, मिष्टान्नरूपी मान-बड़ाईको ठुकरा देंगे तो फिर देखो भगवान् रूपी माँ दौड़ी आयेगी। दूसरा रास्ता जबतक होता है तबतक माँ बहलाती है, किन्तु जो सबको ठुकरा देता है उसके लिये माँ ही आती है। हम नियम बना लें कि चाहे तड़प-तड़पकर मर जायँगे, किन्तु चातककी तरह स्वाति बूँदके सिवाय जल नहीं पीयेंगे।
प्रह्लादको कितना कष्ट दिया गया, उनकी माँग एक ही थी भगवान् की भक्ति। पिता कहता है कि इसको छोड़ दो, परन्तु उन्होंने नहीं छोड़ा। हमारी एक ही माँग होनी चाहिये भगवान् के दर्शनकी, प्रह्लादकी तरह हठ होना चाहिये—इसीका नाम सत्याग्रह है। दुनियामें जो लोग सत्याग्रह करते हैं वह तो दुराग्रह है। सत् परमात्मा है, उसके लिये आग्रह ही सत्याग्रह है। सच्चे स्वराज्यके लिये परिश्रम करना चाहिये, सच्चा स्वराज्य मिले तो झूठा स्वराज्य इसके अन्तर्गत है। बड़े-बड़े चक्रवर्ती राजा उनके चरणोंमें लेटा करते थे जिनके हाथमें सच्चा स्वराज्य था। जिनको परमात्माकी प्राप्ति हो गयी है उनके पास ही सच्चा स्वराज्य है। जब आपको सच्चा स्वराज्य मिल जायगा तो बड़े-बड़े राजा-महाराजा आपके चरणोंकी धूलिकी आकांक्षा करेंगे। लोग आपके चरणोंकी धूलिकी आकांक्षा करें इसके लिये आपको वह प्राप्त नहीं करना है।
आपको मैलेकी तरह मान-बड़ाई, प्रतिष्ठाको फेंक देना चाहिये। जहाँ मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा मिले उस स्थानमें हम नहीं जायँ। जिस प्रकार मान-बड़ाई, प्रतिष्ठाको अपना रखा है, उस तरह प्रभुको अपनाना चाहिये। वे खड़े हैं तुम्हारी चिरौरी कर रहे हैं कि यह स्थान दे तो मैं इसके हृदयमें बैठूँ। प्रभुको हृदयमें बसाओ, यह सब नियमोंका सरदार है। कुछ छोटे-छोटे नियम बताये जाते हैं।
१.भोजन करनेके समय जो कुछ आपको प्राप्त हो जाय, मन-ही-मनसे उसे भगवान् के समर्पण करना चाहिये। उस समय जो कुछ मिल गया वही प्रसाद है, फिर दुबारा नहीं ले। नमक आदि कम है, जो कुछ है वह प्रसाद है। अब प्रसादको बिगाड़ो मत, जैसे खीरमें धूल डालनी है ऐसे उस प्रसादमें नमक डालना है। चीज भी घरमें चाहे पचास तरहकी बने एक ही ले तो उत्तम है, अन्यथा दो ले ले। यदि तीन चीज ले तो कमजोरीकी बात है, दूध और गंगाजल तो खुला है। यह बाहरका नियम है। किन्तु इससे बड़ी रक्षा होती है। संयम करना चाहिये।
२.जिनके यज्ञोपवीत है बन सके तो सूर्योदयके पूर्व तथा सूर्यास्तके पूर्व सन्ध्या करनी चाहिये। समयका बड़ा महत्त्व है। महाभारतमें जरत्कारुकी कथा है। जरत्कारुने कहा—मैं ठीक समयपर उपासना करता हूँ। जबतक मैं सूर्यकी उपासना नहीं कर लूँगा तबतक क्या सूर्य अस्ताचलको जा सकते हैं? नहीं जा सकते।
सन्ध्योपासन क्या है? ईश्वरकी उपासना है। उसमें यदि साथमें प्रेम हो तो भगवान् को उसी समय आना पड़े, किन्तु प्रेम दूरकी बात है। नियम, समय और प्रेम तीन चीजें हैं, नियमका मतलब नित्य करना, ठीक समयपर करना, दो काम हो जाय तो पीछे प्रेम रह जाता है। पैंसठ पैसा काम हो गया, पैंतीस पैसा काम बाकी रहा।
सूर्यभगवान् के उदय होते समय हम प्रेमसे पुष्पांजलिके लिये खड़े हैं, उदय होते ही हमने पुष्पांजलि दे दी, भगवान् सूर्य प्रसन्न हो जाते हैं। मरनेके समय हम सूर्य भगवान् से प्रार्थना करें—हे सूर्यदेव! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ, मेरे लिये वह मार्ग दीजिये जिसे अर्चिमार्ग कहते हैं, मैं परमात्माके दर्शनकी इच्छा करता हूँ, उनके दर्शनके लिये द्वार खोल दें तो सूर्य भगवान् प्रार्थना सुन लेते हैं। यदि हमारा प्रेम हो जाय तब तो भगवान् यहीं आकर मिल जायँ। गायत्री मंत्रमें और क्या बात है?
स्तुति, ध्यान, प्रार्थना तीन चीजें हैं। एक ही जगह तीन चीज किसी मंत्रमें नहीं है। गायत्री मंत्रमें स्तुति है और ध्यान है। भगवान् के तेजका वर्णन है। उनका ध्यान करते हैं। ध्यान करनेके बाद माँग पेश करते हैं, याचना भी बहुत उच्चकोटिकी है। इस प्रकार समझकर हम गायत्रीका जप करें तो बेड़ा पार है। गायत्रीके अर्थकी ओर ध्यान रखे या उसके अर्थस्वरूप भगवान् हैं, उनका ध्यान करें। आप हजार गायत्री मंत्र जप करते हैं, किन्तु इस प्रकार आप दस मंत्रका जप करें तो दस मंत्र हजारसे बढ़कर हैं। बीस वर्षसे आप जप करते हैं भगवान् नहीं मिले। तुम्हारा मन संसारमें डोलता है तो तुम भी संसारमें डोलोगे। गायत्री मंत्र आप इस तरह जपें तो थोड़े ही समयमें आपका कल्याण हो सकता है। सन्ध्यामें नियम, समय और प्रेम तीनों ही शामिल हों तो भगवान् तुरंत मिलेंगे। तीनों नहीं हों, दो ही हों तो कभी तो मिलेंगे ही।
आप गीता पाठ करते हैं। पाठ करते समय मुग्ध हो जाना चाहिये और अर्थका जो भाव है उसके रंगमें रंग जाना चाहिये। आप भगवान् के किसी भी नामका जप करते हैं, नामजपके साथ स्वरूपका ध्यान भी करना चाहिये तथा गुण, प्रभावकी ओर भी दृष्टि डालनी चाहिये। आप एक घंटा भगवान् का भजन करते हैं। इस प्रकार करनेसे दो घंटा लगे तो लगने दो। इस प्रकार ही करो। आपने दस माला फेरनेका या आठ माला फेरनेका नियम ले रखा है, वह चाहे कमती हो इस प्रकार करो।
सबसे बढ़कर एक नियम आपको बताया जाता है उसका यदि पालन कर लें तो सब काम सिद्ध हो सकता है।
एक ओर तो सारा संसार और एक ओर भगवान् हैं। यह नियम कर लेना चाहिये कि संसारका त्याग कर देना, किन्तु भगवान् का त्याग नहीं करना, बुद्धिसे, मनसे, वाणीसे भगवान् को छोड़ना ही नहीं।
बुद्धिसे पकड़ना कैसे? भगवान् सब जगह मौजूद हैं। इस प्रकार बुद्धिसे निश्चय करना बुद्धिसे पकड़ना है। निश्चयके अनुसार ध्यान करना मनसे पकड़ना है। मनसे पकड़ना कैसे है?
आप रामके उपासक हों तो बालकाण्डसे लेकर अन्ततक भगवान् की लीला रोज देख जाओ। कृष्णके उपासक हो तो कृष्णकी लीला देखो। चरित्रके साथ गुण, प्रभाव है ही, स्वरूप भी है ही। बड़ा सरल काम है, लीला देखते रहो। अभी तो तुम अपनी लीला देखते हो, उसे छोड़ो, प्रभुकी लीला देखो यह मनसे पकड़ना है।
वाणीसे पकड़ना है उनके नाम और गुणोंका उच्चारण।
श्वाससे पकड़ना है उनके नामको जपते रहना, कानोंसे पकड़ना है, उनके गुणोंको सुनता ही रहे। तुम्हारे पास पकड़नेके कितने द्वार हैं? बारह द्वार हैं, दस इन्द्रियाँ दो मन-बुद्धि। इनसे भगवान् को बाँधो। बारह साधनोंके रहते हुए भी तुम उन्हें नहीं बाँध रहे हो यह तुम्हारी मूर्खता है। भगवान् तुम्हारे पंजेमें आ गये। तुम पशु-पक्षियोंको बाँध रहे हो, इनको बाँधोगे तो तुम पशु-पक्षी ही बनोगे। यह तुम्हारा संसार है इसे हटाओ। वेदान्तियोंने संसारको हटाकर सच्चिदानन्द ब्रह्मकी स्थापना की, यह भी ठीक है। तुम्हारे लिये तो बड़ा सरल है। सूरदासजीने तो भगवान् को चैलेंज दे दिया—
बाँह छुड़ाये जात हो निबल जानि के मोहि।
हिरदेसे जब जाहुगे पुरुष बदौंगो तोहि॥
भगवान् को ध्यानसे पकड़ो, ध्यानसे नहीं पकड़ो तो बुद्धिके निश्चयसे पकड़ो, बुद्धिसे नहीं पकड़ सको तो श्वाससे पकड़ो। श्वासके साथ नामको जोड़ दो। श्वाससे नहीं पकड़ सको तो वाणीसे पकड़ो। नेत्रोंसे मूर्तिका दर्शन करो। नेत्र, वाणी, बुद्धिसे भी नहीं पकड़ सको तो उनके स्वरूपकी पूजा करो। यह भी नहीं कर सको तो कुछ तो करो, और कुछ नहीं तो हर समय नमस्कार ही करते रहो, नमस्कार करते हुए जाओगे तो भी बेड़ा पार है।
नमस्कार करोगे तो स्मृति तो होगी ही कि किसको नमस्कार करते हैं। बस बेड़ा पार है—
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥
(गीता ८। ५)
जो पुरुष अन्तकालमें भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीरको त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूपको प्राप्त होता है—इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
मरनेके समय जो इस प्रकार हाथ जोड़ता हुआ जाता है समझना चाहिये उसके भीतर भगवान् की स्मृति है। किसी भी तरह भगवान् को नहीं छोड़ना चाहिये और एक मददकी बात इसमें है। भगवान् कहते हैं जो मुझे नहीं छोड़ता मैं उसे नहीं छोड़ता।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता ६। ३०)
जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
धर्मकी यही प्रतिज्ञा है, मरनेके बाद भी धर्म साथमें रहता है। महात्मा पुरुष भी छोड़ना नहीं जानते, पकड़ना जानते हैं। ईश्वर, धर्म, महात्मा किसीको नहीं छोड़ते, इनको पकड़ लिया तो पकड़ लिया, छोड़ना नहीं, यह नियम निभाना चाहिये।
ईश्वरको पकड़ लिया है। यहाँ आये हैं तो पकड़ा ही है, इसे छोड़ें नहीं। नियम ले लो कि अपनी शक्तिभर नहीं छोड़ेंगे। कमी जो रहेगी उसके लिये प्रार्थना करें, भगवान् कमीकी पूर्ति करते हैं।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
(गीता ९। २२)
जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करनेवाले पुरुषोंका योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।
कमी रहेगी उसकी वे पूर्ति कर देंगे, उसके लिये कोई चिन्ताकी बात नहीं है। भगवान् गीतामें कहते हैं एकको हटाओ, एकको बैठाओ। अभिप्राय क्या है? संसारको हटाओ भगवान् को बैठाओ। असली बात इतनी ही है।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-
मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥
तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूय:।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यत: प्रवृत्ति: प्रसृता पुराणी॥
(गीता १५। ३-४)
डेढ़ श्लोक पर्याप्त है। क्या कहते हैं? संसाररूपी वृक्षको दृढ़ वैराग्यरूपी शस्त्रसे काट डालो। यह वृक्ष बड़ा दृढ़ है, इसकी जड़ें भी जम गयी हैं इसको काट डालो। काटना क्या? भुला दो, संकल्परहित हो जाओ। तीव्र वैराग्यका फल उपरति है।
संकल्परहित होनेके बाद उस पदकी खोज करनी चाहिये जिसको पाकर फिर लौटकर नहीं आयें। वह पद कैसे मिले? उस आदि पुरुषकी मैं शरण हूँ, जिस परमात्मासे चिरकालसे यह संसार विस्तारको प्राप्त हुआ है, इस भावसे उसका अन्वेषण करना चाहिये।
संसारको हटा देना, परमात्माकी शरण होना यह भक्तिका मार्ग है। ऐसे ही ज्ञानका मार्ग है—
शनै: शनैरुपरमेद्बुद्धॺा धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्॥
(गीता ६। २५)
क्रम-क्रमसे अभ्यास करता हुआ उपरतिको प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा मनको परमात्मामें स्थित करके परमात्माके सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे।
धैर्य धारण की हुई बुद्धिके द्वारा मनको परमात्मामें लगा दो, फिर किसीका चिन्तन करो ही मत। ऐसा नहीं हो सके तो जो प्रतीत हो वह परमात्माका स्वरूप है।
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्॥
(गीता १३। १५)
वह चराचर सब भूतोंके बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचररूप भी वही है। वह सूक्ष्म होनेसे अविज्ञेय तथा अति समीपमें और दूरमें भी स्थित वही है।
वह जो परमात्माका स्वरूप है जिनके श्रद्धा प्रेम नहीं है उनके समझमें नहीं आता, जिनके श्रद्धा प्रेम है उनके निकट है ऐसा समझकर सर्वत्र परमात्माको देखो।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता ७। १९)
यह ज्ञानके मार्गमें भी चलता है भक्तिके मार्गमें भी। भक्ति मार्गमें सब चराचर परमात्माका स्वरूप है। मैं उसका सेवक हूँ।
यह चराचर जो नाना रूपसे आपको दीख रहा है यह तत्त्व समझमें आनेसे परमात्माके रूपमें दीखने लगेगा।
यह घट-पट आदि क्या है? सब मिट्टी है। आग लगाओ सब मिट्टी हो जायगी। मूल देखो मिट्टी, अन्त देखो मिट्टी।
इसी प्रकार जो संसार है उसमें मूलमें परमात्मा, अन्तमें भी परमात्मा तो बीचमें भी परमात्मा ही हैं।
गहनोंका नाम अलग-अलग है किन्तु वास्तवमें सोना ही है।
जब आपको यह ज्ञान हो जायगा तो परमात्मा-ही-परमात्मा दीखेगा। जो जलका तत्त्व समझता है उसे बूँद, बर्फ, बादल सब जल-ही-जल दीखता है। सोनेका तत्त्व जो समझ जाता है उसे सब गहनोंमें स्वर्ण-ही-स्वर्ण दीखता है। इसी प्रकार जो परमात्माके तत्त्वको समझ जाता है उसे परमात्मा-ही-परमात्मा दीखते हैं। आनन्दमय! आनन्दमय! आनन्दमय!
प्रत्यक्ष देखो कैसा आनन्द है, कैसी शान्ति है। नेत्रोंको बंद करनेपर भी प्रकाश दीखता है हमारे बाहर-भीतर जो चेतनता है यह परमात्माका निराकार स्वरूप है। वे विज्ञानानन्दघन परमात्मा बाहर-भीतर सब जगह परिपूर्ण हो रहे हैं। मनुष्य हरे रंगका चश्मा चढ़ा लेता है तो सारा संसार हरा दीखने लग जाता है। आप इसी प्रकार बुद्धिपर हरिके रंगका चश्मा चढ़ा लें तो सारा संसार हरिमय दीखने लगेगा।
यह तो मान्यताकी बात है और जब वास्तवमें अनुभव हो जाता है तब तो प्रत्यक्ष परमात्मा दीखने लग जाते हैं, फिर कण- कणमें परमात्माका दर्शन होता है। कोई भी जगह खाली नहीं जहाँ वह न दीखें।
गम्भीरतासे विचारनेपर सारे आभूषण स्वर्ण हैं। इसी प्रकार गम्भीरतापूर्वक विचारनेसे सब जगह परमात्मा दीखने लग जाते हैं। वे परमात्मा ही नाना रूपोंमें लीला कर रहे हैं।
नारायण नारायण नारायण
आनन्दमय पूर्ण आनन्द नित्य आनन्द आनन्द ही आनन्द
शान्ति शान्ति शान्ति।