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मनुष्य-शरीरकी महिमा

प्रवचन-तिथि—ज्येष्ठ शुक्ल १२, संवत् २००२, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम

समयको बड़ी सावधानीके साथ बिताना चाहिये। समय इतना मूल्यवान् है कि एक दिनका आप लाख रुपये दें तो भी नहीं रह सकते। ठीक समयपर मरना ही होगा। शास्त्रोंमें बताया है कि श्वास बढ़ा लेनेपर आयु बढ़ जाती है, किन्तु वह बड़ा पुरुषार्थ है। बिना आयु समाप्त हुए भी कोई आत्महत्या कर लेता है, किन्तु उसे बड़ी सजा मिलती है। आत्माकी हत्या-जैसा कोई पाप नहीं है। वेदका मंत्र है—

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृता:।
ताॸस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जना:॥
(ईशावास्योपनिषद् ३)

असुरोंके जो प्रसिद्ध; नाना प्रकारकी योनियाँ एवं नरकरूप लोक हैं; वे सभी अज्ञान तथा दु:ख-क्लेशरूप महान् अन्धकारसे आच्छादित हैं; जो कोई भी आत्माकी हत्या करनेवाले मनुष्य हों; वे मरकर उन्हीं भयंकर लोकोंको बार-बार प्राप्त होते हैं।

आत्महत्यारे अन्धकारमय घोर नरकों एवं योनियोंमें जाते हैं। यह बड़ी भारी मूर्खता है। मनुष्यका जीवन बार-बार नहीं मिलता। सारी पृथ्वीपर मनुष्य इस समय लगभग दो अरब माने गये हैं। दो अरब पौधे केवल यहाँ इस जंगलमें मिल जायँगे। अब सोचिये कितने जीव हैं। असंख्य जीव हैं। ये वृक्ष भी कभी मनुष्य थे, इन्होंने अपने कर्तव्यका पालन नहीं किया, इसलिये इनकी दशा यह हुई है। मनुष्यसे बढ़कर कोई शरीर नहीं है, सारी योनियोंमें मनुष्य-शरीर रत्न है। उसे अपने-आप त्यागना कितनी भूल है? मूर्खता है, जो दु:खसे उकताकर स्वयं आत्महत्या कर लेता है। वह दु:ख तो उसके साथ जाता ही है तथा सजा और अधिक मिलेगी। परमात्मासे प्रार्थना करनी चाहिये कि मेरी ऐसी बुद्धि न हो कि मैं जान-बूझकर आत्महत्या कर लूँ।

समय बड़ा परिमित है, पता नहीं हमारी महीनोंमें ही मृत्यु हो या दिनोंमें हो। जब इतनी खतरेकी चीज है तो जो समय है उसीमें हमें अपना काम बनाना चाहिये। मरनेपर हमारे शरीरकी खाक हो जायगी तो उसकी तरफ कोई देखेगा भी नहीं, जबतक आपके शरीरकी खाक नहीं हो तबतक इससे जो काम करना हो, कर लेना चाहिये। आपके पास जो मकान है, रुपया है, उससे आपका कुछ सम्बन्ध नहीं रहेगा। हमारी कल मृत्यु हो जाय तो हमारा किसीसे भी सम्बन्ध नहीं रहेगा, शरीरसे भी सम्बन्ध नहीं रहेगा। हमें क्या करना चाहिये। हम दु:खी हो रहे हैं, हम ऐसा प्रयत्न करें कि दु:खोंसे छूट जायँ।

पातञ्जलयोगदर्शनमें बताया गया है—हेयं दु:खमनागतम्। सारे दु:खोंका अभाव ही मुक्ति है। आपपर एकके ऊपर एक दु:ख आ रहे हैं, आप भोग रहे हैं और रो रहे हैं, आपको धिक्कार है। आप मनुष्य-शरीर पाकर उसका उपाय नहीं कर सके। पशु-पक्षीमें तो ज्ञान नहीं है। तुम मनुष्य कहलाते हो, फिर भी तुमने इसी तरह आयु बिता दी तो तुमको धिक्कार है। तुमको ही नहीं, तुम्हारे माता-पिताको भी धिक्कार है, जिन्होंने तुम्हें शिक्षा नहीं दी, तुम्हें ऐसी स्थिति प्राप्त कर लेनी चाहिये—

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत:॥
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन् स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥
तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥
(गीता ६। २१—२३)

इन श्लोकोंकी तरफ ध्यान देना चाहिये, परमात्माका स्वरूप शुद्ध सूक्ष्म बुद्धिके द्वारा समझमें आ सकता है, बुद्धि तीक्ष्ण होनी चाहिये। वहाँ इन्द्रियाँ नहीं पहुँच सकतीं। यहाँ निराकार परमात्माकी बात हो रही है। जिस अवस्थामें उस परमात्माके स्वरूपको तत्त्वसे जान जाता है, फिर उससे विचलित नहीं हो सकता और उससे बढ़कर कोई सुख नहीं मानता। मनुष्य रुपया-रुपया करता है, उसकी कभी तृप्ति नहीं होती, किन्तु परमात्माकी प्राप्ति होनेके बाद यह सवाल हल हो जाता है। वहाँ गुंजाइश नहीं रहती कि हमें और आनन्द मिले। उसकी पहचान बतायी कि वह बड़े भारी दु:खसे भी विचलित नहीं होता।

भगवान् कहते हैं उस विद्याको जानना चाहिये, वह निश्चय कर्तव्य है। उसका साधन अवश्य करना चाहिये। न उकताये हुए चित्तसे उसकी सिद्धि होती है। वेदान्त, योग, गीता सबका सिद्धान्त यही है—सारे दु:खोंसे मुक्त होना और परमशान्तिको प्राप्त होना, यही मुक्ति है। अनन्त आनन्दमें अशान्तिका अभाव और शान्तिकी प्राप्ति हो जाती है। वह परमात्माकी प्राप्ति मनुष्य-शरीरमें ही होती है। दूसरे शरीरोंमें नहीं होती, वह मनुष्यका शरीर तुमको प्राप्त है। परमात्माने तो आपपर पूर्ण दया कर दी। प्रथम तो मनुष्यका शरीर दिया, उत्तम देश आर्यावर्तमें जन्म दिया, फिर यह उत्तराखण्डकी भूमि, काल भी उत्तम है, सारी दुनियामें गर्मी है, किन्तु यहाँ ठण्ड है तथा कलिकालमें थोड़ा सा भी साधन करनेसे कल्याण हो जाता है, वह कलिकाल हमें प्राप्त है एवं वैदिक सनातन धर्ममें हमारा जन्म हुआ है। मुस्लिम धर्म चौदह सौ वर्षका है। ईसाई दो हजार वर्षका है। बौद्ध धर्म तीन हजार वर्षका है, किन्तु वैदिक धर्म सनातन सदासे ही है। उस धर्ममें हमारा जन्म होना भी ईश्वरकी हमारे ऊपर बहुत कृपा है। समय समयपर भगवत्-चर्चा भी मिल जाती है। यह सब मिलाकर भी हमारा कल्याण नहीं हुआ तो कब होगा। यह सोचकर हमें हमारा समय ऊँचे-से-ऊँचे काममें बिताना चाहिये। ऊँचे-से-ऊँचा काम यही है दु:खोंको मिटाना, इसके लिये आपको ईश्वरसे प्रार्थना करनी चाहिये। किसी भी पदार्थकी सामर्थ्य नहीं जो आपका दु:ख दूर कर सके। इसलिये किसीका आसरा नहीं लेना चाहिये। ईश्वर आपको आसरा देनेको तैयार हैं। उनकी शरण होना चाहिये। लाख काम छोड़कर हमें भगवान् की शरण होकर अपना जीवन बिताना चाहिये। भगवान् के नामका जप, स्वरूपका ध्यान यह शरणका अंग है।

भगवान् ने गीतामें जो आज्ञा दी है उसके अनुसार तो हमें कार्य करने चाहिये और जो कुछ आकर प्राप्त हो उसे परमात्माका भेजा हुआ पुरस्कार समझना चाहिये। पूर्वमें जो समय बीता है, उसी तरह और बीत जायगा तो आपको रोना पड़ेगा, पश्चात्ताप करना पड़ेगा। तुलसीदासजी कहते हैं—

सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ॥

मनुष्य-शरीर आपको बड़े भाग्यसे मिला है, यदि आपका भाग्य खराब होता तो आपको मनुष्य-शरीर मिलता ही नहीं। तुलसीदासजी कहते हैं—

बड़ें भाग मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥

यह मनुष्य-शरीर देवताओंको भी दुर्लभ है, वह आपको मिल गया, इसलिये प्रारब्धको दोष देना झूठा है। कालको दोष देना झूठा है।

कलिजुग सम जुग आन नहिं जौ नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भवतर बिनहिं प्रयास॥

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