निवेदन
गीताप्रेसके संस्थापक श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका यह दृढ़ विश्वास था कि जबतक जीव भगवत्प्राप्ति न कर ले तबतक जन्म-मरणके चक्रसे छूटता नहीं और महान् दुःख प्राप्त करता रहता है। इसीलिये उनके मनमें यह भाव हर समय बना रहता था कि जिन्हें मनुष्यजन्म मिला है वे इस जन्मका सदुपयोग भगवान् की प्राप्ति करके हमेशाके लिये दु:खोंसे छुटकारा प्राप्त कर परमानन्द प्राप्त कर लें।
इसके लिये उन्होंने दो उपाय सोचे थे—महापुरुषोंके द्वारा रचित पुस्तकोंको घर-घर पहुँचाना तथा भगवच्चर्चा करना, सत्संग कराना—इन उपायोंको सार्थक करनेके लिये ही उन्होंने गीताप्रेसकी स्थापना करके ‘कल्याण’ मासिक पत्रका प्रकाशन किया जिससे लोगोंको सत्साहित्य और साधनकी बातें मिलती रहें, जिन्हें वे अपने जीवनमें उतारकर अपना कल्याण कर सकें।
दूसरा उपाय ऋषिकेश, स्वर्गाश्रम, गीताभवनमें ३-४ महीनोंके लिये ग्रीष्मकालमें गंगाके किनारे वटवृक्षके नीचे वैराग्यपूर्ण एकान्त पवित्र स्थानमें सत्संग कराते थे। उन्हें सत्संग करानेकी बड़ी लगन थी।
श्रीगोयन्दकाजीने वटवृक्षके नीचे सन् १९४२ में जो प्रवचन दिये, उन प्रवचनोंको सत्संगी भाइयोंने लिख लिया था। गृहस्थ अपना कल्याण सरलतासे कैसे करें; ईश्वरभक्ति; निष्काम सेवा; निषिद्ध कर्मोंका त्याग; सत्संग, नामजप, संध्या-बलिवैश्वदेव, बड़ोंको प्रणाम करनेकी आवश्यकता इत्यादि बातोंपर उनके प्रवचनोंमें जोर रहता था। उन प्रवचनोंको पुस्तकका रूप दिया गया है। प्रस्तुत पुस्तकमें हमलोगोंको आत्मकल्याणकी बहुत सरल युक्तियाँ मिल सकती हैं जिन्हें अपने जीवनमें उतारकर हमलोग अपना उद्धार कर सकते हैं।
पाठकोंसे विनम्र निवेदन है कि वे इस पुस्तकको स्वयं ध्यानपूर्वक पढ़कर लाभ उठावें तथा अपने सम्बन्धी-मित्रोंको भी पढ़नेकी प्रेरणा दें।