॥ श्रीहरि:॥
सब जगह भगवान् हैं मान लें
प्रवचन—दिनांक १७-४-१९४५, रात्रि, ९ बजे, गीताभवन, स्वर्गाश्रम
हमलोग मान लें कि भगवान् हैं। अनुभव नहीं भी हो तो शास्त्रोंको सुननेसे मान लें, दूसरोंके कहनेसे मान लें। सब जगह भगवान् हैं यह मानते हैं, किन्तु भगवान् दीखते नहीं, सब जगह संसार दीखता है, यदि सब जगह प्रत्यक्ष भगवान् दीखने लग जायँ तो यह जानना है। पहले मानना होता है, पीछे जानना होता है।
प्रश्न—गीता अठारहवें अध्यायमें बताया गया है कि प्रत्येक वर्ण अपने कर्मसे ही परम सिद्धिको प्राप्त होते हैं, भक्तिमें कर्म कैसे हैं?
उत्तर—भजन भी तो कर्म ही है। राम-राम कहते हैं तो यह भी तो कर्म ही करते हैं। कोई यज्ञ करता है वह भी कर्म है, किन्तु उससे नामजप श्रेष्ठ है।
शब्दमें बड़ी भारी शक्ति है। भगवान् के नाममें बड़ी भारी शक्ति है। रेडियोके द्वारा यहाँका शब्द कहाँ-कहाँ पहुँच जाता है, किसीको पकड़ना हो तो शब्द ही पकड़ाता है। शास्त्र कहता है कि पितरोंको शब्दद्वारा ही चीजें पहुँचती हैं। यहाँ वाणी प्रधान है, भाव नहीं। देवताओंको तो भावसे ही वस्तु पहुँच जाती है। पितरलोग आकाशमें रहते हैं। आकाशका गुण शब्द है, शब्दसे ही उनको कोई चीज मिलती है। देवता शब्दोंको नहीं देखते, भाव देखते हैं। देवयोनि, यक्षयोनिकी तरह ही पितर भी एक योनि है। पितर यदि गाय हो गये तो जो वस्तु यहाँ उनके निमित्त देंगे, वह उनको घास होकर मिलेगी। यह बात भी नहीं है कि जो चीज आज दी गयी, वह आज ही मिलेगी। वह उनके खातेमें जमा रहेगी, परमात्मा उनको आवश्यकतानुसार देते हैं।
पंच महायज्ञ क्या है?
देवयज्ञ, ऋषियज्ञ, पितृयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, भूतयज्ञ।
देवयज्ञ—देवताओंके लिये जो अनुष्ठान किया जाय।
ऋषियज्ञ—वेदोंका अध्ययन आदि ऋषियज्ञ है।
पितृयज्ञ—पितरोंके लिये जो अनुष्ठान किया जाय। माता-पिता और गुरुजनोंकी सेवा पितृयज्ञके अन्तर्गत ही है।
मनुष्य यज्ञ—अतिथि-सत्कार आदि।
भूतयज्ञ—समस्त प्राणियोंके लिये अनुष्ठान करे। अग्निको जो वस्तु अर्पण करते हैं वह स्वाहा शब्दसे वे स्वीकार करते हैं।