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सार बातें—सत्संग, भजन और सेवा

प्रवचन—दिनांक ११-७-१९४२, गोरखपुर

मान-बड़ाई मैं चाहता हूँ या नहीं इस विषयमें मैं मौन हूँ। विचारके द्वारा घृणा रखते हुए भी स्वभाव हो सकता है। परमात्माकी प्राप्ति भक्तिसे होती है। भगवान् के भजनमें दूसरेको लगाना दलाली है। जैसे दलाल लोग दलाली करते हैं, उसमें मैं कम नहीं। खुशामद करता हूँ, मैं तो चाहता हूँ कि लोग मुझे दलाल बना लेवें।

तुलसीदासजी कहते हैं कि कलियुगमें एक भगवान् के भजनके सिवाय और कोई उपाय नहीं है—

कलिजुग केवल नाम अधारा।
सुमिरि सुमिरि भव उतरहु पारा॥

कलियुगमें भगवन्नामके सिवाय और उपाय कठिन है। गीतामें भगवान् का लक्ष्य नाम या रूपके स्मरणके लिये है।

यज्ञानां जपयज्ञोस्मि—यज्ञोंमें मैं जपयज्ञ हूँ।

विशेषकर भगवान् का लक्ष्य मनसे स्मरणके लिये है। भगवान् ने गीताका उपदेश अर्जुनके बहानेसे द्वापर युगके अन्तमें कलियुगके जीवोंके लिये ही कहा है। भगवान् के परमधाम जाते ही कलियुग आ गया। भगवान् के जाते ही अर्जुनको असहाय समझकर भीलोंने लूट लिया। पाण्डवोंके रहते ही कलियुग आया था। पाण्डवोंने कलियुगको देखकर ही उत्तराखण्डकी यात्रा की।

परीक्षित् के शासनसे पाँच हजार वर्षतक कलियुगका प्रभाव कम रहा। संवत् १९६५ तक कलियुगका कम प्रभाव था अब तो कलियुगकी महादशा है। इस घोर युगमें जो भगवान् का भजन करे उसीपर कलियुगका कम प्रभाव पड़ता है। भगवान् कहते हैं—

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
(गीता ७। १४)

क्योंकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है; परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं वे इस मायाको उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसारसे तर जाते हैं।

चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोय।
दो पाटनके बीचमें साबुत बचा न कोय॥

जो मनुष्य भगवान् की शरणमें जाता है वही बचता है। जो दाना कीलके पास रहता है वह बच जाता है। चक्कीमें जानेसे पिस जाता है। महर्षि पतंजलि कहते हैं—

ईश्वर प्रणिधानाद्वा, तस्य वाचक: प्रणव:। तज्जपस्तदर्थभावनम्।

यहाँ ॐकी महिमा कही है। ॐ, राम, कृष्ण, अल्ला, खुदा सब एक ही है, जो जिसको रुचे वह जपे। पानी, जल, वाटर सब एक ही वस्तुके नाम हैं। प्रभुके हजारों नाम हैं। कोई हजारों नामको पुकारे तो भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, इसलिये विष्णुसहस्रनामकी ज्यादा महिमा है। प्रात:काल उठकर नित्य विष्णुसहस्रनामका पाठ करो, गीता विष्णुसहस्रनाम तो रत्नोंकी खान है।

भगवद्‍गीता किञ्चिदधीता
तस्य यम: किं कुरुते चर्चाम्।

जिसने तनिक भी भगवद्‍गीता पढ़ी, उसकी यमराज चर्चा भी नहीं कर सकते। मैं इसके लिये जोरसे कह सकता हूँ कि गीतासे बढ़कर कोई पुस्तक नहीं है।

गीता नित्य संगीतकी तरह गाना चाहिये। गीताका भाव समझकर अर्थको समझकर एक अध्यायका पाठ करनेवाला अठारह अध्यायके पाठ करनेवालेसे श्रेष्ठ है। दूसरा एक श्लोक धारण करता है वह सारी गीताके नित्य पाठसे विशेष है। वही पुरुष धन्य है जिसका जीवन गीतामय है।

दूसरा तत्त्व सत्संग है इससे भी काम बन जाता है।

तीसरी बात भजन ध्यान मिली, इस बातको अजमाकर भी देखा।

चौथी बात है अन्नकी सेवा। उसका इस समय बहुत बढ़िया मौका है। जैसे किसीके माँ-बाप मर जायँ और मरनेपर पश्चात्ताप करे तो व्यर्थ है। इसलिये जब सेवा मिले तो खूब करे। इस समय अन्नके बिना लोग मर सकते हैं। इस समय सेवा कर लें, बहुत अच्छा मौका है। बम गिरे उस समय सेवा करें, वह और अच्छी है। बम गिरनेके समय सेवा करना शूरवीरोंका काम है और इस समयकी सेवामें दयाकी प्रधानता है। इस समय जो अन्न मिले, वही खाकर आदमी जीये, वही सेवा करे। सब आदमी मिलकर मन लगाकर सेवा करें, प्रत्यक्ष आनन्द है। कलियुगमें उससे तुरन्त काम बन जाय। एक हाथसे करो, एक हाथसे लो। इस समय भगवान् का यही कानून है कि भजन, ध्यान, सेवा करो, उसी समय मजदूरी लो। इस कलियुगमें बड़ा सस्ता सौदा है।

मैंने तो अपनी आयुभरमें पाँच बातें ठोक-ठोककर निभा दी—

भजन, सत्संग, दु:खीकी सेवा, गीताका अभ्यास और संयम। इनमेंसे भी तीन बातें महत्त्वपूर्ण हैं—

सत्संग, साधन, और सेवा। इनमेंसे भी दो चीज श्रेष्ठ हैं। सत्संग और साधन। सेवा, संयम भी भजन-सत्संगसे ही होंगे। इनमें भी भजन-सत्संगमें कौन श्रेष्ठ है? कोई पूछे कि अन्न और जलमें कौन श्रेष्ठ है? जीवन धारण करनेके लिये दोनों श्रेष्ठ हैं।

सत्संगसे साधन तेज होता है और साधनके तेज होनेसे उद्धार हो जाता है। सत्संग बिना साधन तेज नहीं होता। जैसे नींवके बिना मकान तैयार नहीं हो सकता, जड़ सत्संग है और मकान भजन। शास्त्रोंमें गीता सर्वोत्तम है।

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रसंग्रहै:।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता॥

यह गीता भगवान् पद्मनाभके मुखसे निकली है। सारे शास्त्रोंकी उत्पत्ति हुई है वेदसे, वेद ब्रह्मासे और ब्रह्मा नाभि कमलसे और कमल विष्णु भगवान् की नाभिसे, इसलिये गीता भगवान् के मुखसे निकलनेके कारण सबसे श्रेष्ठ है। एक गीताके अभ्याससे अन्य शास्त्रोंकी आवश्यकता नहीं है। इस घोर कलिकालमें भगवान् ने कितनी छूट दे दी।

हमलोगोंमें जो मूढ़-से-मूढ़ हो, आयु समाप्त हो रही हो और पापीसे भी पापी हो, जिसमें यह तीनों बातें हों, उसका भी कल्याण हो सकता है।

लाख अपराध करे, परन्तु प्रतिज्ञा कर ले कि मैं अबसे पाप नहीं करूँगा। पहलेके पापको क्षमा करें, मैं अब आपके शरण हूँ, आजसे मैं आपको याद करूँगा। आपसे बढ़कर दाता और कोई नहीं है। मेरा आचरण नास्तिक पुरुषकी तरहसे हुआ, परन्तु आप अपराधोंको भूल जाते हैं।

हमलोगोंको जो ईश्वरकी कृपासे मौका मिला है पुन: मिलनेका नहीं। पता नहीं कहाँ जन्म हो, यदि हिन्दुस्तानमें हो जाय तो भी पता नहीं किस योनिमें, किस कुलमें, किस धर्ममें, किस समाजमें हो। मान लो वैदिक सनातन धर्ममें भी हो जाय तो पता नहीं कैसी वृत्ति रहे। ऐसा सेवाका मौका मिला हुआ है, इस समय हम दिलचस्पी लेकर खूब सेवा करें तो क्या अच्छी बात है। आगे भी औषधि, भोजन, वस्त्र आदि देकर सेवा करें तो बड़े आनन्दकी बात है। यह शूरवीरोंका काम है। हरिको मारग है शूराना नहीं कायर नु काम। शिवि, दधीचिने अपने शरीरको परोपकारके लिये अर्पण कर दिया। धन्य ऐसे दधीचि ऋषि, जिन्हें इन्द्रने वज्र मार दिया था, उसके अपराधको भूल जाते हैं।

राजा युधिष्ठिरको कौरवोंने राज्यसे निकालकर वनवास दे दिया और बादमें कौरवोंने यह उपाय करना चाहा कि वनमें पाण्डवोंको मौका पाकर मार डालें। भीष्मजीने कहा—जहाँ पाण्डव रहते हैं वहाँ नहीं जाना। परन्तु पाण्डवोंके लिये ही तो चाल हो रही थी। इन्द्रने भी जान लिया कि यह पाण्डवोंको दु:ख देने जा रहे हैं। इन्द्रने चित्रसेन गन्धर्वको आज्ञा दी कि जाओ दुर्योधनको बाँधकर पकड़कर ले आओ। चित्रसेन आये, दुर्योधन आदिसे युद्ध हुआ। सबको हराकर दुर्योधन आदिको पकड़कर इन्द्रके पास ले आये। यह बात युधिष्ठिरको मालूम हो गई तो युधिष्ठिरने भीम, अर्जुनको आज्ञा दी कि तुम लोग दुर्योधन आदिको चित्रसेनसे छुड़ाकर ले आओ, इस समय रक्षा करना अपना कर्तव्य है। दोनों गये, चित्रसेनसे छोड़नेको कहा। उसने कहा मैंने तो आपकी रक्षाके लिये ही ऐसा किया, उन्होंने कहा छोड़ दो उसने छोड़ा नहीं। युद्ध हुआ और दुर्योधनको छुड़ाकर राजा युधिष्ठिरके पास ले आये। दुर्योधनको बहुत ग्लानि हुई। युधिष्ठिरने कहा जाओ तुम्हारे साथी लोग तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, दुर्योधन चला गया। साथी लोग मिले, पूछा, कैसे छूटे? उसने कहा पाण्डवोंने छुड़ाया है। साथियोंने कहा इसमें शर्मकी क्या बात है, वे प्रजा हैं, छुड़ाना उनका कर्तव्य है। अब हस्तिनापुर चलो, राज्य करो। क्षणभरके लिये वैर समाप्त हो गया। हस्तिनापुर लौट आये। बात यही चली थी कि अपने साथ जो द्वेष करे उसका भी उपकार करे। चार सार बातें बतलायी—

संयम, सेवा, साधना, सत्पुरुषोंका संग।
इन चारोंके करत ही निश्चय कटे भवफंद॥

इन चारोंके शरणसे काम बन जाय। इनमें भी दो बातें प्रधान हैं—सत्संग और साधन। इस कलियुगमें कैसे साधन करें? कैसा भी पापी हो, गीता कह रही है—

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
(गीता ९। ३०-३१)

यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माननेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है। अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है।

अत्यन्त दुराचारी भी धर्मात्मा बन जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्तिको प्राप्त कर लेता है। अर्जुन तू निश्चय जान कि मेरे भक्तका कभी पतन नहीं होता है। चाहे कैसा भी पापी हो उसका उद्धार हो जाता है।

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥
(गीता ८। ५)

पापी-से-पापीका भी उद्धार हो जाता है। अन्तकालमें छूट है जैसे राजा फाँसी देते समय कहता है—जो खाना हो, जिससे मिलना हो, मिल लो। राजा भी यह छूट देता है तो भगवान् क्यों नहीं छूट देंगे। भगवान् मौका देते हैं। पापी-से-पापी हो, मूर्ख-से-मूर्ख हो, जो अभी मरनेवाला हो, उसका भी उद्धार कर देता हूँ। इस प्रकारका कानून होते हुए भी जो उद्धार नहीं करे, उसके लिये लज्जाकी बात है।

भजन, सत्संग मुख्य है। जैसे एक हौदमें चार नलसे पानी भरा जाय तो जल्दी भर जाता है। साधन, सत्संग दो नाले रहें तो भी भर जायगा। साधन, सेवा दोसे ही कल्याण हो जायगा।

नारायण नारायण नारायण।

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