Hindu text bookगीता गंगा
होम > भगवत्प्राप्ति सहज है > अविनाशी बीज

अविनाशी बीज

२६-१०-८२ / बम्बई

उपनिषदोंमें आता है कि जैसे सोनेसे बने हुए सब गहनोंमें सोना ही होता है, मिट्टीसे बने हुए सब बर्तनोंमें मिट्टी ही होती है। लोहेसे बने हुए सब अस्त्र-शस्त्रोंमें लोहा ही होता है। गीतामें भी आया है कि सम्पूर्ण जगत‍्का प्रभव तथा प्रलय मैं ही हूँ। ‘अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा॥’ (गीता७।६)। गीतामें सोना, मिट्टी तथा लोहा, इनके उदाहरण तो नहीं दिये गये हैं, किन्तु बीजका दृष्टान्त दिया है कि सम्पूर्ण जगत‍्का बीज मैं हूँ। बीजके साथ ‘सनातन:’ विशेषण दिया, मानो अनादि बीज मैं हूँ—‘बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।’(गीता ७।१०)। गीता ९।१८ में कहा—अविनाशी बीज मैं हूँ ‘बीजमव्ययम्।’ गीता १०।३९ में कहा—संसारमें जड़-चेतन, स्थावर-जंगम यावन्मात्र वस्तु है, उन सबका बीज मैं हूँ—‘यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।’

बीजमात्र वृक्षसे पैदा होते हैं और वृक्षको पैदा करके स्वयं बीज नष्ट हो जाता है, मानो बीजसे अंकुर निकल आता है और वृक्षरूप हो जाता है और वह बीज स्वयं खतम हो जाता है; परंतु गीतामें भगवान् अपनेको संसारमात्रका बीज कहते हुए भी यह एक विलक्षण बात बताते हैं कि मैं बीज हूँ, पर अनादि बीज हूँ, पैदा हुआ बीज नहीं हूँ—‘बीजमव्ययम्।’ अव्यय बीज कहनेका मतलब है कि संसार मेरेसे पैदा हो जाता है; परन्तु मैं जैसा-का-तैसा ही रहता हूँ, साधारण बीजकी तरह मैं मिटता नहीं हूँ। गीता १०।२० में जहाँ भगवान् विभूतियोंका वर्णन आरम्भ करते हैं वहाँ भगवान् कहते हैं कि मैं ही सबका आत्मा हूँ—‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:।’ और सबके हृदयमें मैं ही स्थित हूँ—‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्ट:’, (गीता १५। १५); ‘हृदि सर्वस्य विष्ठितम्’ (गीता १३।१७); ‘ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’ (गीता १८। ६१); यह कहनेका अर्थ हुआ कि संसारका कारण मैं ही हूँ; सब संसार मिटनेपर मैं ही रहता हूँ, संसारके रहते हुए भी मैं सबमें परिपूर्ण हूँ और सबके हृदयमें विराजमान हूँ। इससे ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’ यह सिद्ध हुआ।

सोना, मिट्टी और लोहेका जहाँ उदाहरण दिया है, वहाँ गहनोंमें सोना दीखता है, बर्तनोंमें मिट्टी दीखती है और अस्त्र-शस्त्रोंमें लोहा दीखता है, पर इस तरहसे संसारमें परमात्मा नहीं दीखते हैं। वृक्षमें बीज दीखता नहीं, पर बीजके आनेपर ऐसा पता लगता है कि इस वृक्षमें ऐसा बीज है और ऐसे बीजसे यह वृक्ष पैदा हुआ है। सम्पूर्ण वृक्ष बीजसे ही निकलता है और बीजमें ही समाप्त हो जाता है। आरम्भ बीजसे होता है और अन्त बीजमें ही होता है, अर्थात् वह वृक्ष चाहे सौ वर्षतक रहे, पर उसकी अन्तिम परिणति बीजमें ही होगी। बीजके सिवाय और क्या होगा? ऐसे ही भगवान् संसारके बीज हैं अर्थात् भगवान‍्से ही संसारकी उत्पत्ति होती है और भगवान‍्में ही लीन हो जाता है तो अन्तमें एक भगवान् ही बाकी रहते हैं—‘शिष्यते शेषसंज्ञ:।’

वृक्ष दीखते हुए भी बीज ही हैं—ऐसा जो जानते हैं, वे वृक्षको ठीक जानते हैं। जो बीजको न देखकर केवल वृक्षको देखते हैं, वे वृक्षके तत्त्वको नहीं जानते, क्योंकि वे तो वृक्षकी टहनियाँ हैं, पत्ते हैं, फूल हैं, इनमें लुब्ध हो जाते हैं, ऐसे मनुष्योंको भगवान‍्ने ‘यामिमां पुष्पितां वाचम्’ (गीता२।४२) और ‘छन्दांसि यस्य पर्णानि’ (गीता १५।१) वचन कहे हैं। इसी तरहसे भगवान् यहाँ ‘बीजं मां सर्वभूतानाम्’ कहकर सबको यह याद कराते हैं कि तुम्हारेको जितना यह संसार दीखता है, इसके पहले केवल मैं ही था ‘एकोऽहं बहुस्यां प्रजायेयम्’—एक मैं ही प्रजारूपसे प्रकट हो गया हूँ और इसके समाप्त होनेपर मैं ही रह जाता हूँ अर्थात् पहले मैं ही था और पीछे मैं ही रहता हूँ, बीचमें भी मैं ही हूँ।

जैसे बीजसे वृक्ष उत्पन्न होता है, बीज ही वृक्षरूपसे दीखता है, पर बीज नहीं दीखता। इसी तरहसे यह संसार पांचभौतिक दीखता है। जो विचार करते हैं, उनको भी पांचभौतिक दीखता है, नहीं तो पांचभौतिक भी नहीं दीखता। जैसे कोई कह दे कि ये अपने शरीर सब-के-सब पार्थिव शरीर हैं—ये शरीर पृथ्वीसे पैदा होनेवाले हैं; क्योंकि इनमें मिट्टीकी प्रधानता है, दूसरा कोई कहेगा कि ये मिट्टी कैसे हैं? मिट्टीसे तो हाथ धोते हैं, इस वास्ते ये शरीर मिट्टी नहीं हैं। शरीर मिट्टीका होते हुए भी जरा भी मिट्टीका नहीं दीखता; परन्तु यह जितना संसार दीखता है, इसको जलाकर राख कर दिया जाय तो अन्तमें एक चीज हो जाती है।

इन शरीरोंके मूलमें क्या है? माँ-बापसे यह शरीर पैदा होता है। माँ-बापके रज-वीर्यसे शरीर बनता है। वह अन्न-अंशसे पैदा होता है, अन्न मिट्टीसे पैदा होता है, इस प्रकार यह शरीर मिट्टीसे पैदा होता है और अन्तमें मिट्टीमें ही लीन हो जाता है। इसको जलानेपर राख हो जायगा, गाड़ दे तो मिट्टी हो जायगा या पशु-पक्षी खा जायँगे तो भी विष्ठा बनकर मिट्टी हो जायगा—ये तीन गतियाँ ही होती हैं। इस तरहसे शरीर अन्तमें मिट्टी हो जाता है। पहले भी मिट्टी था, परन्तु यह शरीर-संसार देखनेसे मिट्टी नहीं दीखता। विचार करनेसे यह मिट्टी दीखता है, आँखोंसे नहीं दीखता। इसी तरहसे यह संसार परमात्माका स्वरूप नहीं दीखता। विचार करनेसे पता लगता है कि भगवान‍्ने यह संसार रचा तो कहीं और जगहसे कोई सामान नहीं मँगवाया। कहींसे कोई बिल्टी नहीं आयी, जिससे कि यह संसार बनाया हो। बनानेवाला भी दूसरा नहीं हुआ। आप स्वयं संसार बनानेवाले और आप ही स्वयं संसार बन गये। शरीरोंकी रचना करके आप स्वयं उनमें प्रवेश हो गये। इन शरीरोंमें जीवरूपसे वे परमात्मा ही हैं, यह संसार परमात्माका स्वरूप ही है ‘तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्।’

‘यह सब संसार परमात्म-तत्त्व है’—पहले हम इस बातको शास्त्रोंसे समझकर मान लें, अगाड़ी परमात्मा दीखने लग जायँगे। गीताने इसीको ज्ञान कहा है। ठीक तत्त्वसे जान लेनेपर अनुभव हो जाता है। संसार दीखता है, पर वास्तवमें यह है परमात्मा ही। ऐसा बोध होनेपर वह महात्मा कहलाता है। जिसकी दृष्टिमें सब कुछ वासुदेव हैं, वह महात्मा दुर्लभ है—‘वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥’ (गीता ७।१९)। अब कोई कहे कि हम पहले कैसे मान लें जबतक हमारेको बिलकुल शरीर मिट्टी, मकान आदि अलग-अलग चीजें दीखती हैं? इसको ऐसे मानें कि आदि-अन्तमें जो रहेगा, वही मध्यमें होगा और बीचमें भी वही चीज होगी। ऐसे ही संसारके आदिमें परमात्मा थे, अन्तमें परमात्मा रहेंगे, बीचमें संसार-रूपसे परमात्मा ही दीख रहे हैं। तत्त्वसे देखा जाय तो परमात्माके सिवाय और क्या है? इस संसारके स्वाँगमें आनेसे परमात्मा असली रूपमें नहीं दीखते, संसाररूप स्वाँग दीखता है।

ध्यान देनेकी एक विचित्र बात यह है कि परमात्मा नित्य-निरन्तर रहते हैं, कभी बदलते नहीं, कभी मिटते नहीं; परन्तु संसार कभी एक रूपसे नहीं रहता। जिस दिन शरीर जन्मे, उस दिन ऐसे नहीं थे। जन्मके पाँच-दस दिनके बाद शरीरको देखा हो, दो-चार वर्षके बाद देखा हो और आज देखे तो पहचान नहीं सकते, इतना बदल जाता है। वह प्रत्येक वर्षमें बदलता है, प्रत्येक महीनेमें बदलता है, प्रत्येक घण्टेमें, प्रत्येक मिनटमें, प्रत्येक सेकण्डमें बदलता है। बदलने-बदलनेका नाम ही शरीर है। संसार और कुछ नहीं है, यह बदले बिना रहता ही नहीं, परमात्मा कभी बदलते ही नहीं। यह प्रश्न है कि परमात्मा होते हुए दीखते क्यों नहीं? वास्तवमें जिस (संसार)-को ‘है’ मानते हैं वह परमात्मा ही है, पर संसार ‘है’ रूपसे दीखता है।

जासु सत्यता तें जड़ माया।
भास सत्य इव मोह सहाया॥

जिस (परमात्मा)-की सत्यतासे संसार सत्यकी तरह दीखता है। मूढ़ताकी सहायतासे यह सच्चा दीखता है, मूढ़ता चली जाय तो यह सच्चा नहीं दीखेगा, प्रत्युत परमात्मा ही सच्चे दीखेंगे। इस संसारमें ‘है’ रूपसे परमात्मा सच्चे हैं, संसार सच्चा नहीं है; क्योंकि यह प्रत्यक्ष बदलता है, जन्मता-मरता है। यह प्रत्यक्ष बात है। यह बदलता हुआ दीखनेपर भी है वही परमात्मा। ऐसा विश्वास करके भजन-स्मरण करनेसे, जप-ध्यान करनेसे, परमात्माकी तरफ सन्मुख हो जानेसे, अन्तमें वे परमात्मा ही रह जाते हैं। परमात्माको ठीक जाननेवाले ही तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त हैं जो कि परमात्मतत्त्वको जान लेते हैं। इस वास्ते ऐसा मानकर भगवान‍्के भजनमें निरन्तर लग जाना चाहिये। यह सार बात है।

नारायण! नारायण!! नारायण!!!

अगला लेख  > सबमें भगवद्दर्शन