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सबमें भगवद्दर्शन

११-६-८३/गीताभवन स्वर्गाश्रम

परमात्मा सबमें परिपूर्ण हैं, थोड़ा इस तरफ आप ध्यान दें, जैसे छोटे बालक होते हैं, उनको रंग प्यारा लगता है, लाल, पीला, हरा, ऐसे रंग-रंगके कपड़े हों, काँच हों, विभिन्न रंगकी कोई भी वस्तु हो तो वे आकृष्ट हो जाते हैं, अच्छा लगता है, खिलौनोंकी आकृतियाँ हैं, ये उनको बहुत अच्छी लगती हैं। इसमें सार क्या है? ग्राह्य क्या है? त्याज्य क्या है? यह बुद्धि नहीं होती। देखनेका आकर्षण होता है विशेषतासे। बड़ी अवस्था होनेपर वे उनका मूल्य समझते हैं कि कीमती क्या है? कम मूल्यवाली क्या है? ज्यादा मूल्यवाली चीज क्या है? ऐसा समझते हैं।

इसका अर्थ क्या हुआ? जो भोली अवस्था होती है, भोलापन होता है, वह ऊपर-ऊपरकी चीज देखता है और जितना समझता है, वह गहरी रीतिसे देखता है। संसारका लोभ लग जाता है तो वह रुपयोंको गहरी रीतिसे देखता है। बस रुपये ही सार हैं; क्योंकि इनसे ही सब चीज आती है तो वह रुपयोंकी तरफ आकृष्ट होता है। बालक खिलौनोंपर आकृष्ट होता है। जैसे संसारकी वस्तुएँ रुपयोंसे मिलती हैं तो वह रुपयोंको ही मुख्य मानता है ऐसे ही उस परमात्मतत्त्वको जाननेकी इच्छा करके इधर चलनेवाला सबमें परमात्मतत्त्वकी ओर ही जाता है।

स्थूल-से-स्थूल जो चीज दीखती है, उस चीजके मूलमें भी परमात्मा है, सुन्दर-से-सुन्दर चीज दीखती है उसमें भी वह सुन्दरतापर नहीं अटकता है और सुन्दरतामें भी ‘यह सुन्दरता आयी कहाँसे है।’ ऐसे परमात्माको देखता है। सुन्दर खिले हुए फूल देखता है, सुन्दर बगीचा देखता है तो फूलोंपर न अटक करके वो अटकता है कि यह सुन्दरता इनमें कहाँसे भरी गयी। कहाँसे आयी यह सुन्दरता! इनमें परमात्मा हैं। ऐसे कहीं महत्ता देखता है, बड़प्पन देखता है, राजा-महाराजा, संत-महात्मा या किसी मिनिस्टरको देखता है, यह बड़प्पन कहाँसे आया है तो वह बड़प्पन परमात्मतत्त्वका देखता है। वो जितना जहाँ विचार आता है, वहाँ उस परमात्मतत्त्वको देखता है।

अर्जुन जब विराट्‍रूपको देखने लगे हैं तो विराट्‍रूप है, वो बड़ा विलक्षण है। उसमें हमारे एक शंका हुई? अर्जुनने विराट्‍रूपके लिये कहा कि महाराज! ‘दर्शयात्मानमव्ययम्’ आप अविनाशी रूपको दिखाइये। ‘द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरम्।’ आपका ईश्वरसम्बन्धी रूप देखना चाहता हूँ। अविनाशीरूप देखना चाहता हूँ और विश्वरूप देखना चाहता हूँ। ‘पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप।’ आप विश्वरूप और विश्वेश्वर हो।

अब आप थोड़ा ध्यान दें कि अगर संसाररूप देखा जाय तो संसाररूप अव्यय नहीं है। मानो निर्विकार नहीं है, हरदम विकृति होती रहती है। हरदम ही बदलता रहता है। संसार हरदम बदलता है किसी क्षण भी बदले बिना नहीं रहता। विश्वरूप है तो अव्यय कैसे? और अव्यय है तो फिर भगवान‍्का स्वरूप कैसे? यह एक पंचायती पड़ गयी। तात्पर्य क्या है? कि हमलोग देखते हैं विराट्को जो कि भगवत्स्वरूप है। जबतक अपनेमें व्यक्तित्व है और जबतक राग है, तबतक इस संसारको भेदन करके परमात्मतत्त्वतक नहीं पहुँच सकते। जैसे बालक रंगपर, खिलौनोंपर, आकृतियोंपर, खेलपर ही राजी हो जाता है, वो इसका सार वस्तुओं तथा रुपयोंतक नहीं पहुँच सकता कि रुपया चीज सार है, वो पहुँचता ही नहीं। वो खिलौने-ही-खिलौने देखता है, उसे बढ़िया दीखते हैं।

इस तरह जबतक इन नश्वर पदार्थोंमें राग है, आकर्षण है, प्रियता है, इसका मूल्य जबतक समझते हैं, तबतक इस परमात्मस्वरूपको देखते हुए भी परमात्माको नहीं जान सकते। खिलौनोंपर ही रखी है वृत्ति। विराट्‍रूपका वर्णन किया जाय, दिव्य विभूतियोंका वर्णन किया जाय, भगवान‍्के स्वरूपका वर्णन किया जाय तो परमात्मतत्त्वतक वृत्ति नहीं पहुँचेगी। कारण कि राग है न पदार्थोंपर आसक्ति है, प्रियता है भोगोंपर, तो यह एक चीज बैठी है, अपनेमें एक व्यक्तित्व है और अगाड़ी संसारमें राग है, तबतक यह देखते हुए भी उस अविनाशी रूपको नहीं देख सकता। अर्जुनको भगवान‍्ने अविनाशी रूप दिखाया। अब अविनाशी रूप दिखाया तो अर्जुनसे कहा ‘पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रश:।’ मेरे रूपोंको देख, सैकड़ों-हजारों रूपोंको देख। ऐसे भगवान‍्ने कह दिया और अर्जुनको वहाँ देख, देख ऐसे पाँच बार ‘पश्य’ कहा है पर अर्जुनको दीखता नहीं, इससे सिद्ध हुआ कि भगवान् प्रकट रूपसे हो गये हैं तू देख, तू देख; परन्तु दिखा नहीं, देख सका नहीं। तब भगवान‍्ने कहा ‘न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा’ अपनी इन आँखोंसे मुझे नहीं देख सकता’ ‘दिव्यं ददामि ते चक्षु:’ तुम्हारेको मैं दिव्य चक्षु देता हूँ। इन दिव्य चक्षुओंसे मुझे देख। तो भगवान‍्ने अर्जुनकी जो देखनेकी शक्ति हमलोगों-जैसी है, इस शक्तिमें एक विलक्षण दिव्य शक्ति दे दी, जिससे दिव्य देवता दीख सके। दिव्य लोक दीख सके। दिव्य स्वरूप भगवान‍्का दीख सके। ऐसे दिव्य तत्त्व देखनेके लिये दिव्य दृष्टि भगवान‍्ने दी।

एक कथा याद आ गयी। रघुवंशमें आती है कथा। जब महाराज दिलीप अश्वमेध यज्ञ करने लगे हैं तो अश्वमेध यज्ञमें घोड़ा एक रखा जाता है, जो सब जगह घुमाते हैं और वे सब पराजित हो गये ऐसे माना जाता है। कोई लड़ाई करे तो घोड़ेको पकड़े। ऐसे घोड़ेको लेकर महाराज दिलीपने निन्यानबे यज्ञ कर दिये। अब सौवाँ यज्ञ होने लगा, उसमें वो घोड़ा घूमनेको गया तो इन्द्रने घोड़ेको चुरा लिया। इन्द्रने चुराया तो क्या किया कि जैसे इन्द्र नहीं दीखता है, वैसे घोड़ा भी नहीं दीखा अचानक ही अन्तर्धान हो गया, दीखता ही नहीं। देवता अपनी मर्जी आवे तो अपनेको दीख सकते हैं, नहीं तो यहाँ घूमते हुए भी दीखते नहीं। तो दीखा नहीं घोड़ा। अचानक ऐसा हो गया तो बड़े व्याकुल हो गये कि अब क्या करें? घोड़ा कहाँ गया? घोड़ा कहाँ गया। उस समयमें नन्दिनी गऊ प्रकट हुई। जिस गऊके वरदानसे रघुका जन्म हुआ है; वह गाय प्रकट हो गयी सामने। गाय प्रकट हुई और गऊ मूत्र करने लगी और गोबर करने लगी। गऊका गोमूत्र गंगाजी माना जाता है। बड़ा पवित्र माना जाता है। तो गऊमूत्रको देखकर रघुने चट उसको लिया और अपने नेत्रोंमें लगाया, सिरपर चढ़ाया। ज्यों ही नेत्रोंमें लगाया त्यों ही इन्द्र दीखने लग गया। इन्द्र घोड़ा लेकर जा रहा है, साफ-साफ दीखने लग गया तो क्या दृष्टि हुई? कि वो जो नन्दिनी गऊ माता है, उसके गऊमूत्रसे उसकी दृष्टिमें दिव्य दृष्टि आ गयी, विलक्षणता आ गयी, जिससे रघुको इन्द्र दीखने लगा। वो दीखने लगा तब रघु बोले, ‘तुम बिना रघुके साथ युद्ध किये कृतकृत्य नहीं हो सकते’ तुम कैसे घोड़ा ले जा रहे हो? ऐसे बात कही, मैं शस्त्र तैयार करता हूँ। तुम्हारा ऐसा ही विचार है तो ‘गृहाण शस्त्रम्’ इन्द्र! तुम हाथमें शस्त्र ले लो। मैं नि:शस्त्रपर शस्त्र नहीं उठाता। तुम शस्त्र उठा लो फिर मैं भी शस्त्र चलाता हूँ। ऐसा कहकर उसने युद्ध किया। युद्ध ऐसा जोरदार किया कि इन्द्रको हरा दिया। तब वह इन्द्र कहता है कि देखो, संसारमें मेरेको शतक्रतु कहते हैं। शतक्रतुका अर्थ है कि सौ यज्ञ करनेवाला, तो सौ यज्ञ करनेवाला मैं एक ही हूँ। और तुम्हारा पिता मेरी ही मर्यादा भंग करके सौ यज्ञ कर रहा है। दो शतक्रतु हो जायँगे। इस वास्ते मैं दूसरा शतक्रतु नहीं चाहता।

भगवान‍्का नाम ही पुरुषोत्तम है और कोई पुरुषोत्तम नहीं हो सकता। त्र्यम्बक एक भगवान् शंकर ही हैं और नहीं हो सकता। इसी तरह मुझे शतक्रतु कहते हैं। मेरेको छोड़कर दूसरा शतक्रतु नहीं हो सकता। इस वास्ते यह यज्ञ मैं पूरा नहीं होने दूँगा। घोड़ा मैं ले जाऊँगा। ऐसा कहकर उसने युद्ध किया तो युद्ध करनेमें इन्द्र हार गया, तब भी उसने जिद्द किया तब रघुने इन्द्रसे कहा कि कोई बात नहीं; परन्तु मेरे पिताके सौ यज्ञ पूरे होने चाहिये। सौ यज्ञमें किसी प्रकारकी कमी नहीं होनी चाहिये। यज्ञ तुम नहीं करने देते तो नहीं करने दो; परन्तु सौ यज्ञका माहात्म्य पूरा होना चाहिये। उसमें किंचिन्मात्र भी कमी नहीं रहनी चाहिये। नहीं तो लड़ो मेरेसे। ऐसा कहा तो कहा ठीक है, वरदान दे दिया कि तुम्हारे पिताको सौ यज्ञका पूरा माहात्म्य हो जायगा। तब रघु बोला—मेरी एक और बात है, तुम्हारा आदमी यहाँसे जाकर मेरे पिताजीको कह दे कि इन्द्रने ऐसा वरदान दिया है, सौ यज्ञ आपका हो जायगा। ऐसा वो जाकर समाचार कहे, नहीं तो मैं नहीं जाऊँगा बिना घोड़ेको लिये। तब इन्द्रके आदमीने जाकर कहा।

अभी यह कथा यों याद आ गयी कि यह एक दिव्य दृष्टि होती है, दिव्य दृष्टिसे सब चीज दीखने लग जाती है। अर्जुनको ऐसी दिव्य दृष्टि दी है। उस दिव्य दृष्टिसे भगवान‍्का अविनाशी रूप दीखने लगा। तो भगवान‍्का यह विराट्‍रूप है। ‘यह’ संसार नहीं है, यह तो बदलता है प्रतिक्षण; परन्तु इसमें जो भगवान् है स्वयं, वो बदलते नहीं हैं। वो विराट्‍रूपमें परमात्मा ‘है’ साक्षात्। अब उस साक्षात् परमात्माको साक्षात् दृष्टिवाला ही देख सकता है। दूसरा देखेगा तो विराट्‍रूप सुन लेगा; परन्तु देखेगा संसाररूपसे ही। जब भीतर पदार्थोंका, भोगोंका राग पड़ा है, रुपये, पैसों, पदार्थों आदिका महत्त्व पड़ा है, मान-बड़ाई आदिका महत्त्व पड़ा है, यह जबतक पड़ा है, तबतक वो दृष्टि खुलती नहीं, जो इसको परमात्माका स्वरूप दिख सके। देख नहीं सकता। आड़ वहीं आ जाती है। जैसे बच्चा खिलौनोंमें अटक जाता है, रुपयोंतक देख नहीं सकता, रुपया भी कोई चीज है नहीं देख सकता। ऐसे परमात्मतत्त्व है, नहीं देख सकता है वह। ऐसे ही रुपयों आदिके महत्त्वमें फँसा हुआ, जो परमात्मतत्त्व है सब जगह परिपूर्ण इन विराट्‍रूपमें, उस परमात्मरूपको नहीं देख सकता। उसकी दृष्टि संसारमें ही उलझी रहती है। बड़ा आश्चर्य है कि दिव्य रूप भगवान‍्का बताया, अव्यय रूप बताया और विराट्‍रूप दिखाया, उसके विशेषण आये हैं ये।

विचार आया कि बात क्या है ये! तो बात यह हुई कि उस रूपको देख नहीं सकते, जबतक संसारका रूप दीखेगा, जबतक इसका आकर्षण रहेगा, प्रियता रहेगी, तबतक उस तत्त्वको जान नहीं सकता। इस वास्ते वैराग्यके बिना उसको समझ नहीं सकता। तो क्या करें ‘केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि’ तो जहाँ विलक्षणता दीखे, वहाँ भगवान‍्का चिन्तन करे।

अब आप ध्यान देकर सुनें। अब एक बात बताता हूँ अपने कामकी। आपको कोई भी सुन्दर रूप दीखे। बहुत सुन्दर दीखे तो उस रूपपर दृष्टि न रख करके कि भाई, यह सुन्दरता कहाँसे आयी? यह आयी हुई सुन्दरता है। क्या पहचान है कि आयी हुई है? अगर इसकी यह सुन्दरता होती तो हरदम रहनी चाहिये। जैसे नये खिले हुए फूलकी सुन्दरता रहती है दो-तीन दिनोंके बाद वह सुन्दरता रहती है क्या? ऐसे स्वाद है, सुन्दरता है, शब्द है, स्पर्श है, रूप है, रस है, गन्ध है, जितने जो विषय हैं, जिनमें मनुष्यका आकर्षण होता है। क्या वे विषय पहले वहाँ इतने सुन्दर थे और क्या वैसे रहेंगे। तो वह सुन्दरता उसकी नहीं है, उसमें आयी हुई है और जिससे आयी है, वो नित्य-सौन्दर्य है वहाँ, नित्य-ऐश्वर्य है, नित्य-माधुर्य है। परमात्माके गुण विलक्षण हैं और दिव्य हैं, अलौकिक और नित्य हैं। उनकी आभाकी ये झलक आती है संसारमें। हम इन्द्रियोंके आकर्षणसे उसमें उलझ जाते हैं। वो वास्तवमें तत्त्व नहीं है। उनके भीतर जो भरा हुआ है वही तत्त्व है। उसीकी आभा आती है। तो जहाँ कहीं भी महत्ता दीखे, श्रेष्ठता दीखे, बलवत्ता दीखे, विलक्षणता दीखे, विचित्रता दीखे, वहाँ उन चीजोंको कभी भी नहीं माननी चाहिये। वहाँ ऐसा माने कि आयी हुई है इनमें, है नहीं इनमें। जीवन दीखता है जीते हुए मनुष्य विलक्षण दीखते हैं तो भगवान् कहते हैं ‘भूतानामस्मि चेतना’ (गीता१०।२२) वो चेतना मेरी है। इसीका नाम विभूतियाँ है। भगवान‍्ने विभूतियाँ बतायी हैं तो तुम इस संसारको मत देखो। इनमें जो कुछ सार चीज है, असली चीज है। वह मेरा स्वरूप है।

अलौकिकता दीखते ही परमात्माकी ओर वृत्ति जानी चाहिये अचानक, कि यह विलक्षणता दूसरी आ नहीं सकती, इन हाड़-मांसमें हो नहीं सकती, इन चीजोंमें हो नहीं सकती। बहुत विचित्र व्याख्यान हुआ। बहुत विचित्र शास्त्रका ज्ञान हुआ, उस ज्ञानमें भी विभूति उस परमात्माकी ही है। उस विचित्र व्याख्यानमें भी उस परमात्माकी ही विभूति है। विचित्र-विवेचनमें भी परमात्माकी विभूति है। विचित्र प्रसन्नता होती है, आनन्द होता है, कीर्तन करते हैं उसमें विलक्षणता आती है, वो विलक्षणता उस परमात्माकी होती है। जहाँ कहीं आपको विलक्षणता दीखे, आकर्षण दीखे। वहाँ संसारमें न अटक करके उसके मूलमें परमात्मतत्त्वकी ओर हमारी वृत्ति जोरदार जानी चाहिये। तब उस परमात्माको पहचान सकेंगे और इसमें उलझ गये, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धमें, संसारमें तो परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति नहीं होगी। क्योंकि हम तो यहाँ नकलीमें ही उलझ गये, यहाँ ही फँस गये। तो इसमें न फँस करके, उस परमात्मतत्त्वकी ओर वृत्ति जावे। यही विभूतियोंका अर्थ है, यही विश्वरूपका अर्थ है, उस परमात्मतत्त्वको ठीक-ठीक तरहसे जानना चाहिये। सबमें वह परमात्मा परिपूर्ण है। सब देशमें है, सब कालमें है, सब वस्तुमें है, सब व्यक्तियोंमें है, सम्पूर्ण घटनाओंमें है; परन्तु देखनेवाला इन घटनाओंमें, परिस्थितियोंमें, वस्तुओंमें, व्यक्तियोंमें, इन क्रियाओंमें उलझे नहीं और उसको देखे तो वह दीखेगा। और इनमें उलझ जावोगे तो वह नहीं दीखेगा। यहीं फँस जायगा।

नारायण! नारायण!! नारायण!!!

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