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बेईमानीका त्याग

९-३-८३ / गोविन्द-भवन, कलकत्ता

एक परमात्मा है और एक संसार है—ये दो चीजें हैं। यह जीवात्मा परमात्माका तो अंश है और इसने संसारको पकड़ा है—खास बात यही है। संसारने इसको नहीं पकड़ा है, इसने संसारको पकड़ा है। जिसको पकड़ना आता है, उसको छोड़ना भी आता है। जैसे अपनी कन्याको आप अपनी पुत्री मानते हैं। उसको ब्याह देनेपर आपकी पुत्री होते हुए भी आप उसे बिलकुल भीतरसे अपनी नहीं मानते। बाई अपने घर चली गयी। अपना मानना और अपना न मानना आपको आता तो है ही। परमात्मा तो है अपना और संसार अपना नहीं है—यह सच्ची बात है, सार चीज है यह। इससे निहाल हो जाओगे, बस। यह सच्ची बात है, यह बनावटी बात नहीं है। इसमें कुछ उद्योग करना पड़ेगा या परिश्रम करना पड़ेगा ऐसा नहीं है। केवल इस बातको स्वीकार कर लें कि यह शरीर और संसार हमारा नहीं है और परमात्मा हमारे हैं।

इसीको गीतामें कहा—‘मामेकं शरणं व्रज।’ एक मेरी शरण हो जा, यह गीताका सार है। हम केवल भगवान‍्के हैं और केवल भगवान् ही हमारे हैं। संसारके हम नहीं हैं और संसार हमारा नहीं है। अब संसारके साथ सम्बन्ध क्या है? कि मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि ये सब संसारके हैं और संसारसे मिले हैं। इनको संसारकी सेवाके लिये लगाना है। कुटुम्ब, धन, सम्पत्ति आदि संसारसे मिले हैं, इनको अपने लिये मानना महान् धोखा है, महान् नरकोंका रास्ता है। रुपया-पैसा अपने लिये मानना महान् बेईमानी है। न्याययुक्त कमाओ; परन्तु जहाँ आवश्यकता देखो, वहाँ उदारतापूर्वक खर्च करो। उनका मानकर खर्च करो, अपना मानकर नहीं। अपने रोटी खा ली, अब बची रोटी किसकी है? पता नहीं। अपने कपड़ा पहन लिया, अब बचा हुआ किसका है? पता नहीं। जिसको रोटी न मिले, जिसको कपड़ा न मिले, उसकी है वह। उसकी उतनी ही है, जितनी वह रोटी खा सके, जितना कपड़ा पहन सके। उतनी देंगे भाई, उतनी हम लेंगे। जिसको जितनी जरूरत है, उसको उतनी दे दो और दे दो उसकी समझकर। वह उसके पाँती (हिस्से)-की है, अगर यह भाव बना लोगे तो निहाल हो जाओगे।

मैं यह नहीं कहता कि सब छोड़ दो, साधु हो जाओ, त्यागी हो जाओ, किन्तु आप जहाँ हैं, वहीं रहते हुए जिसके अभाव हो, उसको उतनी दे दो चुपचाप। लोगोंमें ढिंढोरा मत पिटाओ। किसीके ओषधिकी जरूरत हुई तो ओषधिका प्रबन्ध कर दिया। जिनके बालकोंकी पढ़ाई नहीं हो रही है, ऐसी गरीब विधवा माताएँ हैं, उनके बच्चेकी पढ़ाईका प्रबन्ध कर दो। कितना? आपके बच्चोंकी पढ़ाईका प्रबन्ध करनेपर रुपये बचे तो, नहीं तो कोई परवाह नहीं। इस प्रकार देनेपर भी इनमें कोई अभिमानकी बात नहीं है; क्योंकि आपके पास जो बचा हुआ था, वह उसीका ही था, उसको दे करके समझो कि ऋण चूक गया आज। नहीं तो हमारेपर ऋण था, यह कर्जा था, कर्जा चूक गया। जिसने ले लिया, उसकी कृपा मानो कि मेरेको उऋण कर दिया, ऐसी कृपा मानो। यह बात बहुत सच्ची है।

देखो! हमलोग सुनानेवाले हैं न चाहे अभिमान भले ही कर लें कि हम सुनाते हैं; परन्तु हम वही सुनाते हैं, जो आपकी चीज है। आप मान सकते हो कि स्वामीजीने हमारेको यह बताया, पर सच्ची बात तो यह है कि आपकी चीज ही आपको दी जाती है। गीताप्रेसके संस्थापक श्रीजयदयालजी गोयन्दका कई दफे पूछते थे बोलो क्या सुनावें? तो मेरे कहनेका काम पड़ा है कि जो हमारी है, वो दे दो। सच्ची बात है, वह ज्ञान आपका है, बिलकुल आपका है, वही मैं दे देता हूँ। अगर मैं यह अभिमान करता हूँ कि ‘मैं देता हूँ’ तो यह बड़ी गलती है, इसका दण्ड होगा। आपकी बात आपको दे दूँ तो उऋण हो जाऊँ। जबतक नहीं दी, तबतक ऋणी था। आपने ले ली तो मेरा ऋण उतर गया। कर्जा उतर गया। आपने मेरेको निहाल कर दिया, कर्जेसे रहित कर दिया एकदम सच्ची बात है।

मैं, मेरी देखी हुई अनुभवकी बात बताता हूँ। ऐसी बातें बीती हैं, जहाँ मैंने कहा कि बहुत बढ़िया बात बताऊँगा तो वहाँ समयपर बात उपजी नहीं है। मैंने खूब जोर लगाया, पर समय पूरा करना मुश्किल हो गया—यह मेरी बीती हुई बात है। जहाँ मैंने कहा कि भाई, हमारेको तो कुछ आता नहीं, हम जानते नहीं हैं—ऐसा भाव रहता है तो इतनी बातें कहनेमें आती हैं कि आश्चर्य आता है मेरेको! यह हमारा अनुभव बताया है आपको। तात्पर्य यह हुआ कि आपकी बात ही आपको देनी है, यह सच्ची बात है। इसी तरह जो चीजें आपके पास हैं, उनको संसारकी समझकर संसारको देनी हैं। जो हमारे पास नहीं है, जैसे—धन हमारे पास है नहीं, तो धन देनेकी हमारेपर जिम्मेवारी नहीं है। जो बातें हम जानते हैं, आप पूछते हो और हम नहीं बतावें तो हमारेपर कर्जा है। बता देते हैं तो कर्जा उतर गया। आपने ले लिया, हमारेको हलका कर दिया, बड़ी कृपा कर दी। इस तरहका बर्ताव करो संसारके साथ, तो मुक्ति स्वत:सिद्ध है, बन्धन तो किया हुआ है।

जो अपनी चीज नहीं है उसको अपनी मानी—यही बेईमानी है और यही बन्धन है; क्योंकि ये चीजें अपनी हैं नहीं, अपने तो परमात्मा हैं और हम परमात्माके हैं। यह बात सच्ची है। जितनी मिली हुई चीजें हैं, चाहे स्थूल शरीर हो, चाहे सूक्ष्म शरीर हो, चाहे कारण शरीर हो—ये सभी संसारके हैं, संसारसे मिले हैं तो इनको संसारकी सेवामें लगा दो। अगलोंकी (उनकी) चीज अगलोंको (उनको) बता दी, उनकी चीज उनको सौंप दी और उन्होंने स्वीकार कर ली, यह उनकी कृपा है। अपने-आपको भगवान‍्को दे दिया और अपनी चीज संसारको दे दी, तो सदाके लिये निहाल हो जाओ, जो सच्ची बात है। कल मैंने कहा था कि आनेवाली और जानेवाली चीजोंसे आप सुखी और दु:खी क्यों होते हो? जो आयी है, वह चली जायगी। सुखी हो जाओगे तो दु:खी होना ही पड़ेगा। आनेवाली चीजसे सुखी नहीं होओगे तो दु:खी नहीं होना पड़ेगा।

जैसे इस मकानमें आ गये और अब चले जाओगे तो दु:खी नहीं होना पड़ेगा कि यह गोविन्दभवन छूट गया; क्योंकि हमने पकड़ा ही नहीं। तो इनको पकड़ना जन्म-मरणका कारण है। ऐसे सब संसारकी चीज संसारको सौंप दो और अपनेको परमात्माको सौंप दो तो बिलकुल मुक्त हो गये। अगर सौंप नहीं सको तो भगवान‍्से मदद माँगो कि ‘हे नाथ! सच्चाईकी मदद चाहते हैं और सच्चाईकी मदद सत्यस्वरूप परमात्मा जरूर करेंगे, इसमें सन्देह नहीं है। झूठेकी मदद नहीं होती। सच्चेकी मदद हरेक करेगा, दुनिया करेगी, भगवान् करेंगे, धर्म करेगा, सन्त-महात्मा करेंगे, गुरुजन करेंगे, सभी करेंगे। सच्चे हृदयसे जो परमात्मामें लग जाय, उसकी दुनिया चिन्ता करती है। आजकलके गये-गुजरे जमानेमें भी उसके रोटीकी, कपड़ेकी, रहनेकी कमी नहीं रहेगी; क्योंकि वह सच्चे रास्तेपर है।

जो लूटना चाहते हैं, लेना चाहते हैं, ऐसी बहन-बेटी भी होगी तो उसको भी देना नहीं चाहेंगे। जबकि कन्याको देना चाहिये। बहनको देना चाहिये पर जो बहन-बेटी खाऊँ-खाऊँ करने लग जाती है तो उसको देना नहीं चाहते और जो कहे कि ‘नहीं भैया! मेरे बहुत है, जरूरत नहीं है’ तो उसको और देनेकी मनमें आवेगी कि ‘नहीं बहन! और ले जा इतना।’ आप देकर प्रसन्न होंगे और बहन भी प्रसन्न होगी तथा दूसरे लोग भी देखकर प्रसन्न होंगे। ‘नहीं भैया! हमारे बहुत है।’ यह सच्ची बात है। आपके देनेसे ही उसका गृहस्थ थोड़े ही चलेगा। चलेगा तो उसके घरसे ही तो यहाँ क्यों नियत बिगाड़ो? ‘इनका ले लें इतना और ले लें’—ऐसा करके केवल अपनी नियत बिगाड़ना है और मिलेगा कुछ नहीं।

बहुत वर्षों पहले एक बात मेरे मनमें आयी थी कि ये बणिया लोग कमाते हैं तो खाते हैं, साधुओंको और ब्राह्मणोंको भी देते हैं और जहाँतक बने, ये लोग पुण्यका नहीं लेते। दान-पुण्यमें खर्च करते हैं पर ब्राह्मण कमानेमें व्यापार करते हैं, नौकरी करते हैं और मुफ्तमें दान-पुण्य भी लेते हैं, फिर भी ब्राह्मण इतने धनवान् नहीं होते हैं। तो क्या कारण है? कमानेमें आपसे कम काम नहीं करते, तो फिर धनी ज्यादा होना चाहिये न? धन ज्यादा होना चाहिये कि नहीं, बताओ? पर उनके पास बहुत अधिक धन है क्या? जितना मिलना है, उतना ही मिलेगा भाई। तो क्यों नियत बिगाड़ो? ‘इससे भी ले लूँ उससे भी ले लूँ’ यह दरिद्रता आपके साथ चलेगी और कुछ नहीं चलेगा। मेरेको नहीं लेना है तो भी आनेवाली चीज आवेगी ही। सच्ची बात है। नियतको शुद्ध करना अपने हाथकी बात है। परायी चीजको लेना हाथकी बात नहीं है। हमें सेवा करना है, ऐसे नियत शुद्ध बना लो तो बेड़ा पार है।

मेरेको तो ऐसी बात मालूम होती है कि मुक्तिके समान सरल चीज कोई है ही नहीं। केवल बेईमानी छोड़नी है। बेईमानी भी छोड़ोगे नहीं तो क्या साधन करोगे? एक जाटकी बात सुनी कि रेणके पास बाहर गाँवमें रहनेवाला एक जाट था। वह रेण गाँवमें आता और दुकानपर कहता कि सेठ! अमुक-अमुक चीज इतनी-इतनी दे दो, ये रुपये लो। वह सेठ वापस जितने पैसे लौटाता है, लेकर चल देता। न भाव पूछता, न तौल पूछता, न मोल करता। किसीने उसको कहा—‘ऐसे कैसे करते हो।’ तो उसने कहा—‘जो मेरी चीज होगी तो उसे सेठ ले सकेगा नहीं और वह अपनी देगा नहीं।’ अब एक जाट आदमीकी ऐसी बात है! बीती हुई बात है। आप यह कर सकोगे नहीं और मैं ऐसा करनेका कहता भी नहीं; क्योंकि एकदम ऐसा कर सकोगे नहीं। और कहीं ठगी हो जायगी तो चित्तमें खनखनाहट होगी, इस वास्ते ऐसा नहीं करना है। भार उतना ही उठाओ, जितना उठा सको पर नीयत पूरी बना लो। चोर चोरी करने जाता है, वह भी अपनी चीज ही ले जाता है, आपकी नहीं ले जा सकता, ताकत नहीं है उसमें ले जानेकी! ऐसे उदाहरण आजकलके जमानेमें बीते हैं।

नीयत मत बिगाड़ो बाबा! निर्वाह होनेवाला तो होगा ही, नीयत बिगाड़नेपर दु:ख पाना ही पड़ेगा। लाखों रुपये रहनेपर भी रोटी नहीं खा सकोगे और जिनके पास कौड़ी नहीं है, ऐसे सन्तोंकी एक साखीमें आता है—

धान नहीं धीणों नहीं नहीं रुपैयो रोक।
जीमण बैठा रामदास आन मिले सब थोक॥

सच्ची है कि झूठी! धान आपका, धीणा (गाय-भैंस) आपके, रुपये आपके और भोजन हम करते हैं। जो आना है, वह आ जायगा। जो नहीं आना है तो साधु होनेमात्रसे माल मिले, यह बात नहीं है। अपनी है वह अपनेको मिलेगी। ‘यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम्’ जो हमारी है वह औरोंकी हो नहीं सकती। आप हम जन्मे तो माँके दूध पैदा हो गया तो क्या अब हमारे लिये अन्न पैदा नहीं होगा? प्रबन्ध करनेवाला वही है, इस वास्ते न्याययुक्त काम करो, परिश्रम करो, उद्योग करो, यह अपना काम है। चिन्ता मत करो। उत्साहपूर्वक तत्परतासे मशीनकी तरह काम करो।

तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर।
(गीता ३।१९)

नारायण! नारायण!! नारायण!!!

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