भगवान्से सम्बन्ध
११-१०-८१ / गीताप्रेस,गोरखपुर
कामना करें तो भगवान्की करें। क्रोध करें तो भगवान्से करें। ‘क्रोधोऽपि देवस्य वरेण तुल्य:।’ अगर भगवान् हमारेपर क्रोध भी करेंगे तो वह हमारे लिये ‘वरेण तुल्य:’ वरके तुल्य होगा। नारदभक्तिसूत्रमें आया है—‘कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्नेव करणीयम्’ (६५) मानो हमारे लिये कुछ भी करनेका विषय परमात्मा बन जाय। कामना करें, चाहे क्रोध करें, चाहे लोभ करें, कुछ भी करें तो भगवान्में ही करें। करनेसे क्या होगा—‘तस्मात्केनाप्युपायेन मन: कृष्णे निवेशयेत्।’ किसी प्रकारसे भगवान्में मन लगा दें तो हमारा कल्याण ही है। जैसे बिना इच्छाके भी अग्निके साथ सम्बन्ध करेंगे, स्पर्श करेंगे, भूलसे पैर टिक जाय, हमें पता ही नहीं कि यहाँ अंगार है, तो भी वह तो जलायेगी ही—‘अनिच्छयापि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावक:।’ ऐसे ही भगवान्का नाम किसी तरहसे लिया जाय, भगवान्के साथ किसी तरहसे सम्बन्ध किया जाय वैरसे भी, प्रेमसे भी, भयसे भी, द्वेषसे भी सम्बन्ध किया जाय, तो वह सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाला है—‘अशेषाघहरं विदु:’ यह बात भगवान्के नामके विषयमें बतायी, स्वरूपके विषयमें तो कहना ही क्या है?
भगवान्के साथ सम्बन्ध करनेसे सम्बन्ध भगवान्के साथ जुड़ जाता है। जैसे संसारके साथ सम्बन्ध जुड़नेसे हमारा जन्म-मरण होता है—‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।’ ‘अस्य गुणसङ्ग: सत् असत् योनिषु जन्मन: कारणम्।’ तो हमारे जन्म-मरणका कारण क्या होता है? ‘गुणसङ्ग:’ गुणोंका संग। ऐसे ही निर्गुणमें संग हो जायगा तो वह जन्म-मरणमें कारण कैसे होगा? यही तो परीक्षित् ने प्रश्न किया है, वहाँ रास-पंचाध्यायीमें कि ‘भगवन्! गोपियाँ तो भगवान् कृष्णको सुन्दर पुरुषके रूपमें ही जानती थीं, ब्रह्मरूपसे नहीं, तो गुणोंमें दृष्टि रखनेवाली गोपियोंका गुणोंका संग कैसे दूर हुआ?’ उसका शुकदेव मुनिने उत्तर क्या दिया? वहाँ कहा है कि ‘भगवान्से द्वेष करनेवाला चैद्य भी परमात्माको प्राप्त हो गया’—‘चैद्य: सिद्धिं यथा गत:’ तो ‘किमुताधोक्षजप्रिया:’ जो भगवान्की प्यारी हैं, उनका कल्याण हो जाय, उसमें क्या कहना! किसी तरहसे ही भगवान्के साथ सम्बन्ध हो जाय, किसी रीतिसे हो जाय। वैरसे, प्रेमसे, सम्बन्धसे, भक्तिसे, द्वेषसे, भयसे। ‘भयात् कंस:, द्वेषाच्चैद्यादयो नृपा:, वृष्णय: सम्बन्धात्, भक्त्या वयम्’। नारदजीने कहा है—‘किसी तरहसे भगवान्के साथ सम्बन्ध हो जाय तो वह कल्याण करेगा ही। यह बात है। इस बातको भगवान् जानते हैं और भगवान्के प्यारे भक्त जानते हैं। तीसरा आदमी इस तत्त्वको नहीं जानता है।’
लोग शंका करते हैं कि भगवान्को अवतार लेनेकी क्या जरूरत है? क्या वे साधुओंकी रक्षा, दुष्टोंका विनाश और धर्मकी स्थापना संकल्पमात्रसे नहीं कर सकते? कर नहीं सकते, यह बात नहीं। वे तो करते ही रहते हैं फिर अवतार लेनेमें क्या कारण है?
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥
(गीता ४।८)
दुष्टोंका विनाश, भक्तोंका परित्राण (रक्षा) और धर्मकी अच्छी तरहसे स्थापना, इसके लिये भगवान् अवतार लेते हैं। दुष्टोंका विनाश करना, भक्तोंकी रक्षा करना। इसका अर्थ यह नहीं कि दुष्टोंको मार देना और भक्तोंको न मरने देना, पर भक्त भी तो मर जाते हैं। तो रक्षाका अर्थ उनके शरीरोंको ‘है ज्यों कायम रखना’—यह नहीं है। इसका अर्थ है ‘उनके भावोंकी रक्षा।’ भक्तकी दृष्टिमें शरीरका कोई मूल्य नहीं है। वहाँ मूल्य है ‘भगवद्भक्ति’ का। भगवान्की तरफ चलनेवाले मनसुख आदिने फाँसी स्वीकार कर ली हँसते-हँसते। शरीरकी वहाँ कोई इज्जत नहीं है। इसको तो ‘एकान्तविध्वंसिषु’ कहा है। यह नष्ट होनेवाला ही है, यह तो नष्ट होनेवाली चीज है—‘पिण्डेषु नास्था भवन्ति तेषु।’ भगवान् अवतार लेकर लीला करते हैं। उस लीलाको गा-गाकर भक्त मस्त होते रहते हैं। यह बिना अवतारके नहीं हो सकता। भगवान्की चर्चा चलती है, कथा चलती है, लीला चलती है। यह सब अवतार होनेसे ही हो सकता है। तो लोग गा-गाकर संसारसे तरते जाते हैं और तरते ही रहते हैं। भगवान् इस तत्त्वको जानते हैं। इस वास्ते अवतार लेकर लीला करते हैं और संत-महात्मा भी इस वास्ते भगवच्चर्चा करते हैं।
तव कथामृतं तप्तजीवनं
कविभिरीडितं कल्मषापहम्।
श्रवणमंगलं श्रीमदाततं
भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जना:॥
जो आपकी कथामृतको कहते हैं, सुनते हैं, विचार करते हैं, वे ‘भूरिदा:’ बहुत देनेवाले हैं तो वे देनेवाले भी हैं और लेनेवाले भी हैं। मानो सुननेवालोंको देते हैं और सुनकर लेते हैं। सुननेवालोंको लाभ होता है तो कहनेवालोंको नहीं होता है क्या? होता ही है। इस वास्ते भगवान् अवतार लेकर लीला करते हैं, तो भक्तोंकी रक्षा क्या है?
भक्तोंका धन हैं भगवान्। उन भगवान्की लीला कहते, सुनते, विचार करते रहें—यही वास्तवमें भक्तोंकी रक्षा है और इस वास्ते ही हनुमान्जीको ‘प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया’ कहा है। भगवान्का चरित्र सुननेके लिये वे रसिया हैं रसिया। वाल्मीकिरामायणमें आता है कि जब भगवान् दिव्य साकेतलोक जाने लगे तो हनुमान्जीने कहा मैं साथ नहीं चलूँगा। जबतक आपकी कथा भूमण्डलपर रहेगी, मैं भूमण्डलपर रहूँगा। जहाँ-जहाँ आपकी कथा होगी, वहाँ-वहाँ सुनूँगा। भगवान्को छोड़कर कथाका लोभ लगा उनको। भगवान्को देखनेसे गरुड़जीको मोह हो गया। भगवान्को देखनेसे काकभुशुण्डिजीको मोह हो गया, भगवान्को देखनेसे नारदजीको मोह हो गया। भगवान्को देखनेसे सतीको मोह हो गया और वह रामायण सुननेसे मिट गया। भगवान्को देखनेसे गरुड़जीको मोह हो गया और चरित्र सुननेसे मोह दूर हो गया। यह तो जानते ही हैं आप! तो भगवान्से बढ़कर भगवान्के चरित्र हैं। यही भक्तोंकी रक्षा है कि इस चर्चाको करते रहें। अपने भाई लोग जो कि पारमार्थिक मार्गमें चलना चाहते हैं, उनका विचार रहता है कि अच्छे महात्माओंका संग करें। ऊँचे दर्जेके संत-पुरुष हों तो उनका हम संग करें। यह भाव रहता है और यह ठीक ही है, उचित ही है! परन्तु इसी अटकलको महात्मा पुरुष लगा लें अपने लिये तो वे अपनेसे ऊँचोंका संग करेंगे। वे उनसे ऊँचोंका, भगवान्का ही संग करेंगे। फिर हमारे साथ माथा-पच्ची कौन करेगा!
भगवान् अवतार लेते हैं। अवतार नाम है ‘उतरना’। अवतार तो नीचे उतरनेको कहते हैं। तो भगवान् नीचे उतरते हैं, हम जहाँ हैं वहाँ। जैसे बालकको आप पढ़ाओगे तो आप भी ‘क’ ‘क’ कहोगे और हाथसे ‘क’ लिखोगे तो यह क्या हुआ? आपका बालककी अवस्थामें अवतार हुआ। उस अवस्थामें न उतरें तो आप बालकको कैसे सिखायेंगे? कैसे समझायेंगे? अब उसको व्याकरणकी बात समझाने लगें तो बच्चा क्या समझेगा? वहाँ तो ‘क’ कहते रहो। हाथसे लिखाते रहो कि ऐसा ‘क’ होता है तो उसके समकक्ष होकर सिखाते हैं। ऐसे भगवान् अवतार लेकर कहते हैं—कैसे करो? कि हम करते हैं जैसे करो। ‘रामादिवत् वर्तितव्यं न रावणादिवत्’ ऐसे करना चाहिये, ऐसे नहीं करना चाहिये। जैसे मैं अवतार लेकर लीला करता हूँ। ऐसे तुम करो और न करो तो सुनो बैठे-बैठे; क्योंकि ‘श्रवणमंगलम्’ भगवान्की कथा श्रवणमात्रसे भी मंगल देनेवाली है।
निवृत्ततर्षैरुपगीयमानाद्
भवौषधाच्छ्रोत्रमनोऽभिरामात्।
क उत्तमश्लोकगुणानुवादात्
पुमान् विरज्येत विना पशुघ्नात्॥
जिनकी तृष्णा दूर हो गयी है, ऐसे जो निवृत्ततर्ष हैं, उनकी कोई इच्छा नहीं, कोई कामना नहीं किंचिन्मात्र भी। वे तो रात-दिन गाते ही रहते हैं, करते ही रहते हैं। सनकादिक निर्लिप्त ही प्रकट हुए और चारों ही समान अवस्थावाले हैं, छोटी अवस्था—पाँच वर्षकी आयुवाले हैं। तीन श्रोता हो जाते हैं, एक वक्ता हो जाते हैं और भगवान्की कथा करते हैं। अब उनके क्या जानना बाकी रह गया? ‘चरित सुनहिं तजि ध्यान’, ध्यानको छोड़ करके भगवान्के चरित्र सुनते हैं। ऐसे क्यों करते हैं? कि भाई! ‘इत्थं भूतगुणो हरि:’ भगवान् हैं ही ऐसे। भगवान् इतने विलक्षण हैं कि ‘आत्मारामगणाकर्षी’ नाम है भगवान् का। जो ‘आत्मारामगण’ हैं, जो परमात्मस्वरूपमें ही नित्य रमण करते हैं, वे भी आकृष्ट हो जाते हैं भगवान्के गुणोंमें, भगवान्की लीलामें। भगवान्के गुण सत्त्व, रज, तम नहीं हैं। ‘आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था:’ दोनों अर्थ हुए—एक तो चिज्जडग्रन्थी-भेदन हो गयी और ‘निर्ग्रन्था-शास्त्रमस्मान्निवर्तन्ते’ जिससे ग्रन्थ भी निवृत्त हो जाते हैं फल दे करके। ग्रन्थ अब क्या देगा? ग्रन्थ तो मुक्ति देगा। वे मुक्त हो गये। निर्ग्रन्था हैं तो भी ‘उरूक्रमे कुर्वन्ति अहैतुकीं भक्तिम्’, बिना स्वार्थके, बिना मतलबके भक्ति करते हैं। क्यों करते हैं बिना मतलब? ‘इत्थं भूतगुणो हरि:’ भगवान् ऐसे ही हैं। अब करें क्या? उस तरफ वे आकृष्ट हो जाते हैं। तो वे ऐसे गुण हैं, ऐसी उनकी लीला। जिनको ‘निवृत्ततर्ष’ कहते हैं वे भी गाते रहते हैं, वे भी लीला करते रहते हैं।
‘हरिश्शरणमित्येव येषां मुखे नित्यं वच:’ उनका वचन ही यह है ‘हरि: शरणम्’ शरण, आश्रय हमारा भगवान् का। तो वे क्या आश्रय लेंगे? अब क्या लेना है उनको? क्या मुक्ति करनी है? क्या प्राप्त करना है? ऐसा न होते हुए भी भगवान्में लगे रहते हैं। तो ऐसे सन्त-महापुरुष वे भगवान्की कथा सुनते हैं और सुनाते हैं। आपसमें कहते हैं तो उनके संगसे मात्र प्राणियोंका उद्धार होता है। जहाँ सत्संग-कथा होती है, वहाँ सब तीर्थ आ जाते हैं। जितने ऋषि-मुनि हैं, वे सभी आ जाते हैं। गीताका पठन-पाठन होता है, वहाँ नारद, उद्धव आदि सब आ जाते हैं। तो उनके आनेसे वहाँका स्थल कितना पवित्र हो जाता है!
सतां प्रसंगान्मम वीर्यसंविदो
भवन्ति हृत्कर्णरसायना: कथा:।
तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि
श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति॥
श्रेष्ठ पुरुषोंके संगसे भगवान्के प्रभावको वर्णन करनेवाली, भगवान्के प्रभावका ज्ञान करानेवाली, भगवान्के प्रभावको स्पष्ट बतानेवाली ‘हृत्कर्णरसायना: कथा:’ हृदय और कानोंको रस देनेवाली कथा मिलती है। मानो कानोंमें ही श्रवणपुटसे पीते हैं, और हृदयमें प्रफुल्लित होते हैं, मस्त होते हैं। ऐसी आनन्द देनेवाली कथा होती है जहाँ, वहाँ श्रेष्ठ पुरुषोंके संगमें व्यापार ही वही है। उनके कथा-कीर्तन ही विषय हैं, उनका काम ही यह है। तो ऐसे वे कथा करते रहते हैं। ‘सतां प्रसंगान्मम वीर्यसंविद:, ‘भवन्ति हृत्कर्णरसायना: कथा:। तज्जोषणात् ’ उनके सेवन करनेसे ‘आशु अपवर्गवर्त्मनि’ परमात्माकी प्राप्तिका जो अपवर्ग रास्ता है, उसमें श्रद्धा, रति, भक्ति, ‘अनुक्रमिष्यति’ सब हो जायगा। तो यह सबका सब हो जाता है। इस वास्ते भगवान् लीला करते हैं। वह लीला अवतार लिये बिना कैसे करे? जिसको गा करके संसारके प्राणी अपना उद्धार कर सकें।
वह लीला इसलिये करते हैं कि जिन सन्त-महात्माओंके लिये कुछ कहना-सुनना नहीं, वे भी कथा कहते हैं। ‘यत्राच्युतोदारकथानि सर्वाणि तीर्थानि निवसन्ति तत्र।’ सब तीर्थ वहाँ निवास करते हैं। ‘यत्राच्युतोदारकथाप्रसंग:’ जहाँ भगवान्की उदार कथा होती है, वहाँ सब तीर्थ आ जाते हैं तो पवित्रताकी महान् पवित्रता हो जाती है वहाँ। ‘पवित्राणां पवित्रां यो मंगलानां च मंगलम्’ भगवान्को कहते हैं—पवित्रोंका पवित्र, मंगलोंका मंगल। ऐसे भगवान्की कथा, उनके गुण, उनकी लीला, उनका स्वरूप, उनका तत्त्व इनका विवेचन जहाँ होता है, वहाँ वह प्रयागराज माना है। ‘सर्वाणि तीर्थानि निवसन्ति तत्र।’
गोस्वामीजी महाराज कहते हैं—‘संत समाज प्रयाग’, जहाँ संत-संग होता है वहाँ प्रयागराज है। और कहते हैं—
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा।
सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा।
बिधि निषेधमय कलिमल हरनी।
करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
जैसे त्रिवेणी है प्रयागराजमें तो भगवान्की भक्ति तो गंगाजीकी धारा है। और ‘बिधि निषेधमय कलिमल हरनी’ यह यमुनाजी है। यमुनाजीका जल काला है और गंगाजीका जल स्वच्छ सफेद है तो भक्तिमें स्वच्छता दीखती है। विधि-निधेषमय; करनी काली दिखती है, यह यमुनाजी है। सरस्वती क्या है? भीतर-ही-भीतर चलती है। ‘सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा।’ जहाँ ब्रह्मका विचार-विवेचन होता है तो हर एक आदमी समझता ही नहीं। वह अन्त:सलिला सरस्वती है। जहाँ तीनों ही चलती हैं, वह त्रिवेणी है ज्ञान, भक्ति और कर्मकी। इस वास्ते कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग हैं। जहाँ समतामें स्थित हुए तो योग हो जाता है। और जहाँ योग (समता) नहीं, वहाँ केवल कर्म, भक्ति, ज्ञान रहते हैं; परन्तु यदि उनका सम्बन्ध भगवान्के साथ ही होता है तो वह योग होता है। ऐसे कथा चलती है तो भगवान्की कथामें त्रिवेणी आ जाती है। प्रयागराज आ जाता है और जितने पार्षद हैं, वे आ जाते हैं। नारद आदि भक्त आ जाते हैं। ‘पुष्करादि सरांसि च’ वे आ जाते हैं। सब भगवान्की कथामें आ जाते हैं। तो भगवान्की कथा, भगवान् अवतार लेकर आते हैं, तब न करते हैं सभी। भगवान्का भक्तोंकी रक्षा करनेका तात्पर्य है भक्तोंके धनकी रक्षा करना। भक्तोंका धन क्या है? भक्तोंका धन भगवान् हैं। भगवान्की बात चले वही उनकी रक्षा है और यही उनको धनी रहने देना है। उनका धन बढ़ाना है। उनकी रक्षा करनी है सब तरहसे। और दुष्टोंका विनाश क्या है? दुष्टताका विनाश करना। शरीरके साथ वैर नहीं है भगवान् का। ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ भगवान् प्राणी-मात्रके सुहृद् हैं। क्या प्राणी-मात्रमें दुष्ट नहीं आते हैं? उनके भी सुहृद् हैं। उनका विनाश करना ही उनका कल्याण करना है। धर्म-स्थापना भी कल्याण करना है। ‘पवित्राणां पवित्रं य:’ हैं भगवान् सबके लिये। ऊपरसे भगवान्की क्रिया दो तरहकी दिखती है। जैसे ‘लालने ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथाऽर्भके’ माता प्यार करती है तो हितभरे हाथसे थप्पड़ भी मार देती है। तो बालकके ऊपर उसकी अकरुणा नहीं होती। ‘लालने ताडने मातुर्नाकारुण्यम्’—अकृपा नहीं है। ‘तद्वदेव महेशस्य नियन्तुर्गुणदोषयो:’ ऐसे ही गुण और दोषोंका नियन्त्रण करनेके लिये विनाश करके कृपा करते हैं उनके ऊपर। कृपामें कोई फर्क नहीं। ऊपरकी क्रिया दो हैं। माँकी भी पालन करनेकी और ताडना करनेकी क्रिया दो हैं; परन्तु हृदय एक है माँका। लालनमें भी हृदय वही। ताड़नामें भी हृदय वही रहता है। जो पालन करनेमें और प्यार करनेमें हृदय रहता है, वही मारनेमें है।
परीक्षा करनी हो तो कोई माँ अपने बच्चेको मारती हो तो उस समय एक-दो चाँटा आप भी लगा दो। अरे! क्या करता है? तेरी मदद कर दूँ। अकेली मेहनत करती है, थोड़ी सहायता कर दूँ। तो क्या माँ समझेगी कि मेरी सहायता करता है? लड़ेगी आपसे, कि क्यों मारता है मेरे छोरेको? तो तू क्या कर रही है? वह मारनेके लिये थोड़े ही मारती है, हृदयमें प्यार भरा है। वह मारती है दोष-नियन्त्रण करनेके लिये, निर्मल करनेके लिये। ऐसे ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्’—यह क्रिया दो तरहकी दीखती है; परन्तु इन सब क्रियाओंमें भगवान् वे ही हैं वैसे ही हैं।
गोस्वामीजी महाराज सुन्दरकाण्डमें लिखते हैं कि हनुमान्जी लंका गये तो वहाँ लोग कैसे हैं—‘खर अज ....भच्छहीं’ ऐसे राक्षस वहाँ रक्षा करते हैं। तो तुम इनका वर्णन क्यों करते हो? वे सब भगवान्के हाथों मरेंगे, इस वास्ते हमने संक्षेपमें कथा कही है। और कही है इसलिये कि भगवान्के हाथों मरेंगे और भगवान्का सम्बन्ध हो जायगा। इनकी कथाके साथ भगवान्का सम्बन्ध है। नहीं तो राक्षसोंकी कथा क्यों कहते? क्या मतलब है आपको? हमें इनसे मतलब नहीं, भगवान्से मतलब है। अब भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़ लिया इसलिये उनकी भी कथा कहनी है। उनकी कथामें भी भगवान्की कृपा, भगवान्की दयालुता, भगवान्की विलक्षणता स्वत: ही प्रकट होती चली जायगी। तो अब वे उनके साथ क्रोध करें, काम करें, लोभ करें, ईर्ष्या करें, द्वेष करें, वैर करें, कुछ भी करें—सम्बन्ध भगवान्से जुड़ जाता है। वह सम्बन्ध ही वास्तवमें कल्याण करनेवाला है,क्योंकि गुणोंका संग जन्म-मरण देनेवाला है। तो ‘निर्गुणस्य गुणात्मन:’ सगुणको भी निर्गुण कहा—गुणात्मा है वो, वह कल्याण करनेवाला है। इस वास्ते भगवान्से किसी तरहसे आप सम्बन्ध जोड़ लो और भगवान्के साथ कुछ भी कर लो, वह कल्याण करेगा। ‘तस्मात् केनाप्युपायेन मन: कृष्णे निवेशयेत्।’ भगवान्में मन लगा दो तो भगवान्में मन लगानेसे कल्याण होता है। नारदजी महाराज कहते हैं—‘प्रेम उसमें ही करो, उसको ही अपनी वृत्तियोंका विषय बनाओ, जो कुछ है, लक्ष्य उसीको बनाओ। उनके साथ चाहे जैसे आप कर लो।’
कितनी विचित्र बात है कि जो कुछ करो, भगवान्के लिये करो, सब ठीक हो जायगा। ‘कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥’ उस परमात्माके लिये कर्म किया जायगा वह सब सत्कर्म हो जायगा। कर्म भी कभी सत् होता है? कर्मका तो आरम्भ होता है और समाप्ति होती है। फल भी आरम्भ होता है और समाप्त होता है। तो कर्म, वह सत् थोड़ा ही होता है, क्रिया निरन्तर होती नहीं। परिवर्तनशील है क्रिया तो वह सत् कैसे होगी? पर वह ‘तदर्थीय’ हो जायगा, भगवान्के लिये हो जायगा, तो कर्म भी सत् हो जायगा। सत् क्यों हो जायगा? आगमें लकड़ी डालो, पत्थर डालो, कोयला डाल दो, कंकड़ डाल दो, कुछ भी डाल दो, वह भी चमकने लगेगा; क्योंकि अग्निके साथमें हो गया न। ऐसे ही भगवान्के साथ जो कुछ आप कर लो, वह सब-का-सब चमक उठेगा। सत् हो जायगा।
पूतनाने जहर दिया मारनेके लिये। उसने तो मारनेके लिये दिया, पर भगवान्ने उसका उद्धार कर दिया; क्योंकि ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ जो मुझे जैसे भजता है, मैं भी उसको वैसे ही भजता हूँ। पूतना मारनेके लिये गयी तो मार ही दिया उसको; परन्तु मारकर कल्याण किया। यह तो नयी बात है। वह पूतना कोई कन्हैयाको मारकर कल्याण करती क्या! ‘अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिघांसयापाययदप्यसाध्वी। लेभे गतिं धात्र्युचिताम्’—जो गति धाय माँको देनी चाहिये, वह गति ‘लेभे।’ ‘कं वा दयालुं शरणं व्रजेम।’ शुकदेव मुनिकी व्यासजी महाराज गरज करते रह गये, पुकारते रहे ‘पुत्रेतितन्मयतया तरवोऽभिनेदु:’ वृक्ष, पहाड़ बोले, पर वे नहीं बोले। पुत्र! पुत्र! कहते हुए व्यासजी पीछे जाते हैं। शुकदेवजी तो बोले ही नहीं, आगे भागते हैं। वे ही शुकदेवजी अब आकर गरज करते हैं व्यासजीकी। व्यासजीने भागवत बनाकर ब्रह्मचारियोंको सिखायी। ब्रह्मचारियोंको समिधाके लिये जंगलमें भेजा। वे समिधा लाने गये। वहाँपर वे ‘अहो बकी यं स्तनकालकूटम्’ यह श्लोक गा रहे थे। शुकदेवजीके कानोंमें पड़ गया तो सोचा, कहाँका श्लोक है? कौन गा रहे हैं? कैसी बात है? वे भगवान्के गुणोंसे आकृष्ट हो गये। यह तो भागवतका है। तो किसने बनाया? व्यासजीने बनाया तो हम तो भागवत पढ़ेंगे। जो पिताजीकी आवाज नहीं सुनते थे, वे गरज करके पढ़ते हैं। गरज क्यों करते हैं? भगवान्के गुणोंसे आकृष्ट हो गये। ऐसे वो दयालु ‘जिघांसयापाययत्’ मारनेकी इच्छासे स्तन पिलाया। और ‘लेभे गतिं धात्र्युचिताम्’ तो जहर पिलाया मारनेके लिये, मार तो उसको दिया, ‘यथा मां तथैव’ परन्तु अन्तमें भाव तो भगवान्का अपना रहेगा। वहाँ तथैव प्रकारमें है। व्याकरणमें ‘प्रकार वचने थाल्’ होता है। उसी प्रकारसे, उसने स्तन दिया मुँहमें कि लाला दूध पी ले। अब दूध तो था नहीं, वैरसे दूध कहाँसे आवे उसमें? लाला खेंचने लगा जोरसे तो प्राण खिंच गये। ‘मुंच-मुंच’, छोड़, छोड़!’ छोड़े कौन! छोड़ना भगवान्को आता ही नहीं है। पकड़ना आता है। अभी क्या छोड़ दे, मरनेके बाद भी नहीं छोड़ेंगे। छोड़ेंगे ही नहीं कभी। इनको बस पकड़ा दो, फिर मौज करो, किसी प्रकारसे इसमें लगा दो।
सम्बन्ध तो जोड़ दो तुम। फिर यदि उलटे-पुलटे हो भी जाओगे तो जन्म हो जायगा। भरतमुनिके हुआ, जैसे हो जायगा, नहीं तो ठीक हो जायगा। भगवान्का यह सम्बन्धमात्र है, यह बहुत विलक्षण है। इस बातके लोभसे सन्त-महात्मालोग एकान्तमें बैठकर ध्यान-भजन न करके सत्संग आदि करते हैं। वहाँ एकान्तमें बहुत ठीक मन लगता है। उनका कोई मन न लगता हो, ऐसी बात नहीं है। परवश होकर भजन करना पड़ता हो, ऐसी बात नहीं। इतना होते हुए भी सत्संग क्यों करते हैं? कि इसमें लाभ बहुत है। बहुत विलक्षण लाभ है। उनको लाभ क्या लेना है? लेनेके लिये थोड़े ही होता है। लाभ तो लाभ ही है। यह किसी तरहसे ही हो। लाभकी बात ऊँची बात है। यह एक रिवाज छोड़ देते हैं। जिससे दुनियाका कल्याण होता ही रहे, होता ही रहे, सदाके लिये। कितनी विलक्षण बात है! भगवान्में किसी रीतिसे आप मन लगाओ, किसी रीतिसे, आपमें जो शक्ति हो उसी रीतिसे और जो आपका सम्बन्ध हो, उसी सम्बन्धसे। भगवान्को बाप मान लो, बेटा मान लो, गुरु मान लो, चेला मान लो, कुछ भी मान लो। नौकर मान लो तो भगवान् नौकरी करेंगे। बेटा मान लो तो ठीक बेटेका भाव रखेंगे।
कलकत्तेके पास एक गाँव है, उसकी एक बात सुनी थी। वहाँ ठाकुरजीकी मूर्ति थी काठकी। कृष्णभगवान्की पूजा करते थे पुजारी। वहाँ पुजारी था, उनकी स्त्री थी, एक लड़का था, एक गाय थी और एक बछड़ा था। पूजा करते थे। पूजा करते-करते बछड़ा मर गया। गाय मर गयी। अब ठाकुरजीके रूखी-सूखी भोग लगावें। कहते कि तुम्हारेको दूध और घी पाना था तो गायको मारा क्यों? अब ठाकुरजीने थोड़े ही मार दिया। हमारेको मिले जैसा भोग लगावेंगे हम तो। वैसे ही भोग लगाते। फिर स्त्री मर गयी। अब कहा, ‘दोनों वक्त कौन रसोई बनावे? एक वक्त बनायेंगे। एक वक्त आप भी खाओ और हम भी खायेंगे। दो वक्त कौन बनावे महाराज? हम भजन-ध्यानमें निरन्तर रहते थे, उस समय स्त्री बना लेती थी तो पा लेते। अब बनाना पड़ता है, समय लगाना पड़ता है, इतना समय कौन निकाले?’ आठ पहरसे बनाते। ठाकुरजीके भोग लगा देवें और दोनों पा लेवें। ऐसे करते-करते लड़का मर गया। अब अकेले रह गये। वे तो अपने भजन करें, वैसे ही। लोग बहुत प्रेमसे आते थे दर्शन करनेके लिये। ये दर्शन करने आते हैं न? तो ठाकुरजीके दर्शन करते हैं; परन्तु ठाकुरजीमें तो ठाकुरपना भक्तसे होता है। भक्त जब सेवा करता है, भावसे पूजन करता है तो ठाकुरजीमें विलक्षणता आ जाती है। हरेक दर्शकका चित्त खिंच जाता है, दर्शन करनेको; क्योंकि श्रीविग्रहमें ठाकुरजी आ गये विलक्षणतासे, उसके भावके कारणसे। लोग बहुत दर्शनोंके लिये आया करते।
पुजारीजीको हो गया बुखार। बुखारमें पड़े रहे। कुछ दिन बुखार आया। रात्रिमें उनके प्राण चलने लगे। बाहरसे दरवाजा बन्द है। उस समय यह बात उनके मनमें आयी कि छोरा होता तो सिर दबाता कम-से-कम। मस्तकमें पीड़ा हो रही है बहुत। क्या करूँ मैं? फिर मरने लगे तो सोचा, छोरा पिण्ड तो देता कम-से-कम। अब पिण्ड और पानी भी कौन देगा? ऐसा सोचकर भजन करने लगे भगवान् का। भगवान् आ गये और गोदीमें ले लिया। घुटनोंपर सिर रख लिया उसका। छातीपर हाथ, जिसमें पिण्ड लिया हुआ है। माथेपर हाथ रखा हुआ। छोरा बिना सिर कौन दबायेगा? तो मैं दबाऊँगा। पिण्ड कौन देगा? मैं दूँगा। अब ठाकुरजी पिण्ड देते हैं। सब काम करते हैं ठाकुरजी। काम करके राजी बहुत होते हैं ठाकुरजी। माताएँ बच्चोंका पालन करती हैं। वही बच्चा एक दिन आप भाई लोगोंके हाथमें दे दिया जाय तो आठ पहर भी नहीं रख सकते और वह पालन करती है। पालन करनेवालेके उकताहट नहीं होती। अगर उकता जाय तो बच्चेका पालन कैसे हो? पर वह उकताती नहीं है। पालन कर लेती है। ऐसे ठाकुरजी भी भक्तोंका काम करते हुए उकताते नहीं। जैसे माँका उकताना तो दूर रहा, माँको आनन्द आता है। बच्चा मर जाय तो बड़ी रोवेगी। अरे! रोती क्यों है? तुम्हारी तो आफत मिटी। अब कुछ करना ही नहीं पड़ेगा। यह सुनाओ उसको तो वह नाराज हो जायगी कि कैसे कहते हो ऐसे? ऐसे ही ठाकुरजी आफतसे राजी बहुत हैं। ठाकुरजी भी हमारा पालन करनेमें राजी बहुत हैं। प्रसन्न होते हैं हमारा पालन करके, हमारी रक्षा करके। कितनी बड़ी आफत करी है, कितना बड़ा संसार रचा है। ‘एकाकी न रमते।’ अकेलेका जी नहीं लगता। उनका मन नहीं लगता अकेलेका। इस वास्ते यह रोला मचाया है इतना। इतना इकट्ठा किया है। मैं एक ही बहुत हो जाऊँ। ‘एकाकी न रमते।’—मन ही न लगे अब क्या करें? इतना करके फिर सबका प्रबन्ध करते हैं, पालन करते हैं, सब झंझट करते हैं भगवान्। पर करते हैं भक्तोंके लिये।
प्रह्लादजीकी रक्षाके लिये प्रकट हुए। उस हिरण्यकश्यपको नखोंसे चीर दिया। भीतरमें पेटकी आतें थीं, वे गलेमें डाल लीं। फिर उसके पेटके भीतर खोजते हैं। महाराज क्या खोजते हो? कोई प्रह्लाद मिल जाय, इससे प्रह्लाद प्रकट हुआ है, पैदा हुआ है। संतान पहले पितामें फिर माँमें आता है, आता है न? इस वास्ते कोई मिल जाय भक्त। ठाकुरजीके बहुत लोभ है। किसी तरहसे कोई भक्त मिल जाय। एक बात बतावें, आप ध्यान देकर सुनें। आजकल भगवान्के घाटा बहुत ज्यादा है। सत्य, त्रेता, द्वापरमें भक्त होते थे, पर आजकल भगवान् निकम्मे बैठे हैं। कोई पूछता नहीं। किसी यूनिवर्सिटी या संस्थामें विद्यार्थी अधिक परीक्षामें बैठते हैं तो (प्रथम श्रेणी) एक नम्बर पाना मुश्किल और परीक्षामें विद्यार्थी कम बैठे हों तो मामूली विद्यार्थीको फेल कर दें तो संस्था चलनी हो जाय मुश्किल। कोई नहीं निकले। तो इस वास्ते जैसा भी हो उसे पास करो, क्योंकि अपनी संस्था मिट जायगी। अभी भगवान्के यहाँ बहुत जल्दी आदमी पास होते हैं, थोड़ी भक्तिमें ही। भगवान् सोचते हैं कि अभी कलियुगमें भक्त कम हैं। इस वास्ते जल्दी करो पास, इनको ठीक करो। अभी मौका बहुत बढ़िया आया है। ऐसा मौका हरदम नहीं मिलता। ऐसे मौकेमें हम लग जायँ तो अपना तो काम बन जायगा। इस वास्ते रात-दिन लग जायँ नाम-जपमें, कीर्तनमें, कथा सुननेमें, कहनेमें, पढ़नेमें। रात-दिन इसमें ही लग जायँ। अरे भाई! पैसे बहुत कमाये हो, भोग बहुत भोगे हो, तो भी इनसे तृप्ति होनेवाली है नहीं; क्योंकि आप हो परमात्माके अंश और ये हैं जड़ प्रकृतिके अंश। चेतनकी भूख जड़से कैसे मिटेगी? कितना ही कमा लो, कितना ही भोग भोग लो, पर भूख नहीं मिटेगी और चिन्मय परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाय तो भूख रहेगी ही नहीं।
‘कोयला हो नहीं उजला सौ मन साबुन लगाय।’ कोयलेको कोई साफ, स्वच्छ करना चाहे तो सौ मन साबुन लगा दे तो क्या स्वच्छ हो जायगा? कालापन मिट जायगा क्या उसका? नहीं मिटेगा। तो फिर उपाय क्या है? आगमें रखते ही चमक उठेगा। यह जीव कोयला बन गया भगवान्से विमुख होनेसे। अब उपाय करता है, साबुन लगाता है कि धन कमा लेंगे, भोग भोग लेंगे, यश हो जायगा। हमारा मान हो जायगा। हम यह करेंगे, पर कालापन तो मिटेगा नहीं बाबा! कितना ही साबुन लगाओ! कितना ही धोओ! कितना ही करो! क्या कर लोगे? बताओ! अब कोयला सफेद हो जायगा क्या? ऐसे आप उपाय करते हैं जितना-जितना, उतना-उतना अलग हो जायगा और उलझ जायगा। सुलझानेके लिये ज्यों-ज्यों चेष्टा करता है, त्यों-त्यों अधिक उलझता है—
एकस्य दु:खस्य न यावदन्तं
गच्छाम्यहं पारमिवार्णवस्य।
तावद् द्वितीयं समुपस्थितं मे
छिद्रेष्वनर्था बहुली भवन्ति॥
एक दु:ख गया तो दूजा तैयार। दूजा गया तो तीजा तैयार। इस प्रकार दु:ख-पर-दु:ख पनपता ही रहता है; क्योंकि दु:खालय है यह। दु:ख-ही-दु:ख होता है। वस्त्रालय होता है, औषधालय होता है। ऐसे ‘दु:खालयमशाश्वतम्’ दु:खालयमें सुख ढूँढ़ते हैं। दु:खालयमें सुख कैसे मिलेगा भाई, दु:खालयमें तो दु:ख-ही-दु:ख है। ‘अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।’ सुख इसमें है नहीं भैया! यह दु:खालय है। ‘इमं प्राप्य भजस्व माम्’ तू मेरा भजन कर ले, पर भजन भगवान्का न करके भजन दु:खोंका ही करते हैं कि भगवान्ने हमारा दु:ख नहीं मिटाया। हमारेको बेटा नहीं दिया, हमारेको धन नहीं दिया, हमारेको नीरोगता नहीं दी, हमारेको मान-सत्कार नहीं दिया, हमारी प्रशंसा नहीं की, भगवान्ने ऐसा नहीं किया—यह चाहना क्या है? अधिक दु:खकी चाहना है। भगवान् कहते हैं, ‘तेरेको दिया उतना बहुत काफी है। अलग और क्यों पकड़ता है?’ यह कहता है, ‘इतना नहीं और दु:ख होना चाहिये। धन और हो जाय तो सुखी हो जायँ।’ और हो जाय तो सत्संग भी नहीं करेगा। फिर उसमें ऐसा लिप्त हो जायगा कि भजन-ध्यान ही छूट जायगा। क्या करें? काम-धन्धा ज्यादा आ गया, मील और खुल गयी, अब समय नहीं मिलता, भजन करनेके लिये। विमुख होनेके लिये यह चेष्टा कम नहीं करता है। ठाकुरजी विमुख होने नहीं देते। इसके मनकी नहीं होने देते। इसके मनकी होवे तो यह कितनी ही खुराफात (उद्दण्डता) करे। भगवान् करने नहीं देते। इसमें यह हो जाय नाराज। जैसे पतंगे आग सुलगनेपर उसके भीतर दौड़कर प्रविष्ट होते हैं। उनको अलग कर देता है कोई तो पतंगे बहुत नाराज होते हैं। अगर उनका वश चले तो मुकद्दमा करें उसपर कि हमारेको आग नहीं लेने देते। आग बन्द करनेवाला उनपर करता है दया कि ये आगमें खतम हो जायँगे; परन्तु आग लगना उनको अच्छा नहीं लगता। ऐसे संसारके भोगोंमें, ऐश्वर्यमें रात-दिन लगे हैं। आग लग जाय तो उसके साथ लड़ाई करेंगे कि मेरेको क्यों नहीं जलने दिया? हम तो पड़ेंगे भीतर, कूदकर। ‘रहने दे भैया, कुछ दिन जी तो जा।’ ‘ना।’ ऐसी दशा हो रही है लोगोंकी। ऐसी दशासे बचानेके लिये भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़ो, पर जोड़ते हैं नाशवान् पदार्थोंके साथ।
आप हैं अविनाशी। अविनाशीको नाशवान् कैसे संतुष्ट करेंगे? परन्तु वहम इतना विलक्षण पड़ा है—‘राम-राम-राम’। कई बार भोगोंको भोगकर देख लिया फिर भी उधर ही जाते हैं। अब क्या मनमें रह गयी? क्या बाकी रह गया? वहम है कि अब सुख हो जायगा। आप नये हो गये कि पदार्थ नये हो गये, कि रिवाज नया हो गया? क्या बात है? अभीतक चेत नहीं हुआ। समझदार आदमी चेत जाता है कि रास्ता ठीक नहीं है। जो गया, वह भी इस तरहसे ही मार खाता है। जो गया, वो ही दु:ख पाया। अब उस मार्गको तो छोड़ो भाई! अपने भी कर लिया। इतने दिन हो गये, इतने वर्ष हो गये। और कौन-सा भोग नहीं भोगा? और फिर क्या मनमें रह गयी भगवान् ही जाने!
चेत होना चाहिये। छोटे-छोटे बच्चे होते हैं, तब उनके विचार होता है कि हम यह करेंगे वह करेंगे। बड़े होकर ऐसा धन कमायेंगे। तो आप लोग बड़े कब होंगे, जिस दिन भजन करेंगे? कब भगवान्में लगेंगे? कुछ बड़े हो जायँ तो फिर करेंगे। अब कब बड़े होंगे? बताओ। मूर्खता रखते-रखते ही मर जायँगे, वही बचपन, वही मूर्खता। तो ठाकुरजीमें आप अपना मन लगा दो। सम्बन्ध जोड़ दो, किसी रीतिसे जोड़ दो। ठाकुरजीके साथ जोड़ लो। अब आप भगवान्को कुछ मान लो। कैसे ही मान लो। वैरी मान लो, चाहे भयभीत हो जाओ। सम्बन्ध तो जोड़ो प्रभुके साथ!
भगवान् इतनी निगरानी रखते हैं जीवमात्रकी। यह किसीके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तो रहने नहीं देते। भगवान् तोड़ ही देंगे उसको। बालकपनके साथ रहे तो बालकपन तोड़ दिया। जवानीके साथ रहे तो जवानी तोड़ देंगे। वृद्धावस्थाका साथ किया तो वृद्धावस्था तोड़ देंगे। रोगी-नीरोगी अवस्थाके सम्बन्धको तोड़ देंगे। भगवान् कहते हैं कि मेरेको नहीं प्राप्त किया तो टिकने नहीं दूँगा तेरेको। तू चाहे कितना ही कुछ पकड़ ले, कितनी ही उछल-कूद करे तो क्या होगा? यह सब परिस्थिति बदलती है तो यह भगवान्का आवाहन होता है कि इधर आओ, किधर जाते हो? ये सुनते ही नहीं। थोड़ा धन और कमा लें, थोड़ी विद्या और पढ़कर विद्वान् बन जायँ। वक्ता बन जायँ बढ़िया, लोग हमको वाह-वाह कहें। तो फँस जाओगे बाबा ज्यादा। क्या निकालोगे इसमें? पर वह भ्रम पड़ा हुआ है कि मौज हो जायगी।
घरमें चूहे बहुत हो जाते हैं तो तारोंका बना हुआ पिंजरा होता है, उसमें रोटीके टुकड़े डालकर अँधेरेमें रख देते हैं। चूहोंको अन्नकी सुगन्धि आती है तो वे देखते हैं कि रोटी उसमें पड़ी है, पर किस तरहसे मिले? इधर-उधर घूमते हैं। दरवाजा मिलते ही समझते हैं, आहा! निहाल हो गया मैं तो वह भीतरमें भारसे नीचे उतरा और वह पत्ती स्प्रिंगसे वापस बन्द हो जाती है। तो अब मुश्किल हो गयी। अब निकलनेका दरवाजा ढूँढ़ता है, पर मिलता नहीं। बाहरवाले चूहे देखते हैं कि यह मौज कर रहा है अकेला ही। हमारेको भी दरवाजा मिल जाय तो हम भी ऐसी मौज करें। अब दूसरा चला गया तो बाहरके बचे हुए देखते हैं कि इनको रस आ रहा है। आपसमें एक-से-एक लूट रहे हैं तभी तो लड़ते हैं। यों करके फँस जाते हैं। ऐसे ही संसारमें देखते हैं कि धन कैसे मिल जाय, हमारा विवाह कैसे हो जाय, हमारे बच्चे कैसे हो जायँ? धन भी हो जाय, बच्चे भी हो जायँ। जब ब्याह होनेपर बच्चे होते हैं तो वह कहता है—अब तो हम फँस गये, भाई। पर जिसका नहीं हुआ वह कहता है, मेरे ब्याह ही नहीं हुआ। अब वह यों ही रोता है।
जिसका ब्याह हो गया, वह मकान खोजता है कलकत्ते जैसे शहरमें। अकेला तो कहीं गद्दीमें सो जाय, पर स्त्री-बच्चोंको अब कहाँ रखे? मकानके लिये पगड़ी लाओ, मार आफत! दूसरा देखता है मैं तो अकेला रह गया और यह मौज करता है। बाल-बच्चे हैं इसके तो। कोई ताऊ-चाचा कहते हैं और चीं-पीं करते हैं इसके सामने, तो बड़ा आनन्द आता है कि हमारे इतने बच्चे हैं। बच्चोंके बीचमें बैठा राजी होता है जब कि वह दु:ख पा रहा है। अब मुश्किल हो गयी, पालें कैसे इनको? अब ज्यों छोरा बड़ा हो गया ब्याह करो। छोरी बड़ी हो गयी, उसका ब्याह करो। अब एक नयी आफत और हो गयी।
एक देश था, उसमें रहनेवाले चौबेजी महाराजने सुना कि किसी देशमें चौबेको छब्बे कहते हैं। तो वहाँ चलो हमारा नाम बढ़ जायगा। तो वे अपने गाँवसे निकले, दूसरा गाँव आया, उसमें इनको दुब्बे कहने लगे। ‘चौबे होते छब्बे होने चले जब, होय दुब्बे दुय गाँठके खोये।’ वहाँ दुब्बे हो गये। ऐसे विचार किया कि यहाँ यह सुख लेंगे, तो जो पहले सुख था, वह भी गया। स्त्री-बच्चे नहीं थे तब बड़ी आजादी थी, स्वतन्त्र थे, अब क्या करें? फँस गये। अब निकलना मुश्किल हो गया मुश्किल, मुश्किल कुछ नहीं है, स्वयं छोड़े तो कुछ मुश्किल नहीं है। चूहेके लिये तो तारोंका पिंजरा दूजेका बनाया हुआ है, यह पिंजरा खुदका बनाया हुआ है। दूजेका बनाया हुआ तोड़ना मुश्किल है। यह तो अपना बनाया हुआ है, इस वास्ते चट तोड़ा, चट चल दिया। पर तोड़ नहीं सकते।
एक भौंरा था। वह घूमते-घूमते कमलमें जा बैठा। सुगन्ध आ रही थी खूब। इधर सूर्य अस्त हो गया तो कमल बन्द हो गया। उसमें भौंरा विचार करता है कि हम बन्द हो गये अब। इसमेंसे निकलें कैसे? कमलको कैसे काटें? भौंरा बाँसको काट देता है। बाँसमें छेद कर देता है। उसमें छेद बनाकर बच्चे देता है और भीतर रहता है। आप विचार करो, कमलकी पंखुड़ी काटनेमें उसे जोर आता है क्या? परन्तु उससे सुगन्ध लेता है तो अब काटे कैसे? वह भौंरा सोचता है—‘रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम्।’ रात चली जायगी, बड़ा सुन्दर प्रभात हो जायगा। ‘भास्वानुदेष्यति’ सूर्य भगवान् उदय होंगे और ‘हसिष्यति पंकजश्री:’—यह कमलकी शोभा खिल जायगी। फिर मर्जी आवे जहाँ बैठें, मर्जी आवे जहाँ जावें। फिर ठीक हो जायगा। ‘इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे’—वह बेचारा विचार कर रहा है कि यह हो जायगा, यह हो जायगा। इतनेमें ही हाथी आता है। पानी पीता है, फिर सूँड़से कमलोंको ऐसे लपेटता है। उतनेमें वह तो मर जाता है। ‘हा हन्त हन्त नलिनीं गज उज्जहार’— ऐसे ही मनुष्य कहता है, ऐसे करेंगे, ऐसे करेंगे। क्या करेंगे? राम नाम सत् है—यह तो आ ही जायगा।
सज्जनो! हम मृत्युलोकमें बैठे हैं। यहाँ मरनेवाले रहते हैं सब। सबलोग मरने-ही-मरनेवाले रहते हैं। इसमें निश्चिन्त बैठे हैं। मरना सुनते हैं तो बुरा लगता है। मरनेकी बात बुरी लगती है। कोई कह दे तो, कहते हैं ना-ना मुँहसे थूक। ऐसा मत बोलो। अब बोलो, चाहे मत बोलो, मरोगे तो सही। न बोलनेसे क्या रक्षा हो जायगी? खरगोश होता है न, तो जब शिकारी उसे मारने जाता है, तो वह छिपकर आँखें मीच लेता है। समझता है कि अब मेरेको कोई नहीं देखता; क्योंकि खुदको दीखता नहीं। आँखोंको तूने मीची है, दुनियाने थोड़े ही मीच ली है, पर वह तो यही समझता है कि अब थोड़े ही दीखूँगा मैं। ऐसे मनुष्य विचार करता है कि हमारा कौन कुछ करता है? आँखें तूने मीची है भाई! काल भगवान्ने मीची नहीं है, आँखें। ये सूर्य भगवान् सबको देखते हैं। देखनेका काम ये करते हैं और ले जानेका काम इनके बेटा करते हैं। यमराज इनके बेटा हैं। सूर्यभगवान् देख लेते हैं कौन कैसे-कैसे तैयार हुआ है। हाँ बेटा, उसे ले आओ। तैयार है, बस। अपने निश्चिन्त बैठे हैं, ऐसे नहीं सोचते कि वे हमारेको देख रहे हैं। छिप आप सकते नहीं। समय होनेपर छोड़ेंगे नहीं।
‘संतदास संसारमें बडो कसाई काल।
राजा गिणे न बादशाह बूढ़ो गिणे न बाल॥’
न वह बूढ़ेको गिनता है, न बालकको गिनता है। बादशाह, साधु सब एक समान, आ जाओ बस! आप कितने ही अच्छे पण्डित हो गये। बड़े अच्छे पण्डित हो, चाहे मूर्ख हो, यहाँ तो एक ही भाव है। हाँ! भगवान्के यहाँ सम्बन्ध हो जाता है तब तो—
भगवद्गीता किंचिदधीता
गंगाजललवकणिका पीता।
येनाकारि मुरारेरर्चा
तस्य यम: किं कुरुते चर्चा॥
उनकी चर्चा यमराज छोड़ देते हैं कि ये हमारे नहीं हैं। उधरके भागके हैं, बाकी तो यमराज सबको ले जाय।
काल भक्ष सबको करे हरि शरणे डरपन्त।
नव ग्रह चौंसठ जोगिनी बावन वीर बजन्त॥
‘कालो यमो दण्डधर:’ वह ले जायगा सबको। अब उसमें जाना तो पड़ेगा। कोई नहीं चाहता, पर वहाँ जा रहे हैं सब लोग। एक-एक श्वासमें कहाँ जा रहे हैं? मौतके पास जा रहे हैं। यह श्वास खर्च होता है। मौतके पास जा रहे हैं। प्रति श्वास वहाँ जा रहे हैं, जहाँ जाना नहीं चाहते। नहीं चाहते हो तो भाई! भगवान्को याद करो। बिना भगवान्के कोई रक्षा करनेवाला नहीं है। सब मरनेवाले हैं, वे रक्षा कैसे करेंगे?
काठकी ओट से काठ बचे नहीं
आग लगे तब दोऊँ कू जारे।
स्याल की ओटसे स्याल बचे नहीं
सिंह पड़े तब दोऊँ कू फारे।
आनकी ओटसे जीव बचे नहीं
‘रज्जब’ वेद पुराण पुकारे॥
सब कहते हैं भैया! दूसरोंकी सहायतासे बच नहीं सकोगे। क्योंकि बेचारे वे सब माया बस कालके कलेवा हैं। उनका सहारा लो तो वह भी जा रहा है। तुम्हारेको कैसे बचायेगा? बचता वही है।
काल डरे अण घड़ सूं भाई ता सूं संतां सुरत लगाई।
ता मूरत पर राम दास बार बार बलि जाय काल डरे अणघड़ सूं भाई॥
वह परमात्मा अनघड़ है। ‘अजातु न मातु न तातु निराकारं’ वह पैदा किया हुआ नहीं है, जाति नहीं है उसके, न माँ है, न बाप है—ऐसा है। वह रहेगा एक और तो सब चले जायँगे इस वास्ते उसका आश्रय लो। उसके आश्रयका सुगम-से-सुगम उपाय ठाकुरजी अवतार लेकर कर देते हैं।
अब तुम जो कुछ करो तो हमारे साथ करो। राग करो, चाहे द्वेष करो। वैर करो, विरोध करो, लोभ करो, चाहे चिन्ता करो। मैया यशोदाके बड़ी चिन्ता लगी कि ‘लालाके क्या हो गया?’ दाऊ भैयाको कहती है—‘तू निगाह रखा कर।’ यह खेलनेको जाता है तो चंचल बहुत है यह।’ वह दाऊ आकर कहता है—‘मैया! क्या करूँ?’ यह यमुनामें चला जातत है। पानीमें कहीं डूब जायगा। खेलता-खेलता कहीं जाकर बिलमें हाथ दे देता है। साँप काट जाय तो! दाऊ दादा निगाह बहुत रखते हैं फिर भी वह तो चंचल बहुत है। अब दाऊ दादा, रोहिणी और यशोदा मैया, सब मिलकर भी रक्षा नहीं कर पाते। इतना चंचल है। बालमुकुन्द है यह मन है आपके पास। यह चंचल हो तो देखो—ये बालमुकुन्द खेल कर रहे हैं। ‘अरे! लाला! क्या करता है?’ ‘खेल करता है, बालमुकुन्द है।’ ऐसा मान लो तो फिर मनको जावे तो जाने दो। ‘अरे लाला!’ ऐसे मत करो।’ वो तो कहे—‘खेलेंगे।’ ‘अच्छी बात है, खेलो।’ जहाँ भगवान्को समझा, कि मनकी सब उछल-कूद मिट जायगी असली तत्त्वको समझ गये न!
भगवान् ही तो हैं उसके भीतर भी। ऊपरसे कहते हैं मन है, इन्द्रियाँ हैं, पदार्थ हैं, भोग हैं, विषय हैं। अरे भैया! भीतर वह एक ही हैं। वह है, उसे मान लो। चाहे तो भगवान्का मानकर भजन कर लो। चाहे संसारमें भगवान्को मानकर भजन कर लो। आपकी मर्जी आवे सो करो। दोनोंका टोटल एक ही निकलेगा। हमारे प्रभु ही तो हैं। ‘अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे॥’ इस वास्ते ‘तस्मिन्नेव करणीयम्।’ केवल आनन्द-ही-आनन्द!
नारायण! नारायण!! नारायण!!!