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छूटनेवालेको ही छोड़ना है

१९-२-८१ / गोविन्द-भवन, कलकत्ता

ऐसी बढ़िया बात बताता हूँ, अगर मेरी बातपर ध्यान दें और थोड़ी-सी हिम्मत रखें तो बड़ा भारी लाभ होगा। इसमें किंचिन्मात्र सन्देह नहीं है। ऐसी बात है। आपलोगोंके सामने बहुत बार ऐसी बातें कही हैं कि भाई! परमात्मतत्त्व हमारे साथ नित्य-निरन्तर है और संसारका सम्बन्ध निरन्तर ही छूट रहा है। जो आपको छोड़ रहा है और छूट रहा है, उस सम्बन्धको छोड़ना है और जिसका नित्य-निरन्तर सम्बन्ध बना ही रहता है, उसको पकड़ना है। इस बातको मैंने कई तरहसे कहा है। यह सार बात है एकदम। फिर सुन लें, जो चेतनतत्त्व परमात्मा परिपूर्ण है सामान्यरूपसे, वह सदा है ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है। सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटनामें है ज्यों-का-त्यों रहता है। उसका संग कोई छोड़ सकता नहीं। किसीमें ताकत नहीं कि उसका संग छोड़ दे। वह सदैव सबके साथमें नित्य-निरन्तर रहता है। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, प्रलय, सर्ग आदि सब अवस्थाओंमें वह सबके साथ है ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। उसकी प्राप्तिमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है और उसकी प्राप्तिमें समयका, कालका भी काम नहीं है। वह नित्य प्राप्त है और संसार जिसको आप अपना मानते हैं। शरीर, संसार, पदार्थ—ये कभी किसीके साथमें एक क्षण रहे नहीं, रहेंगे नहीं और रह सकते भी नहीं। जो नहीं रह रहा है, जा रहा है, बड़ी तेजीसे वियुक्त हो रहा है, उस वियुक्त होते हुएको छोड़ देना क्या बड़ी बात है?

छोड़ना क्या है? अपना न मानना, अपना सम्बन्ध न मानना। ‘केवल सम्बन्ध न मानना’—इस बातको करना है और कुछ नहीं करना है। इनका मेरे साथ सम्बन्ध नहीं है और परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध अटल है ही। केवल इतनी बातको मान लेना है तो अभी प्राप्त हो जाय, अभी सम्बन्ध छूट जाय, अभी दु:ख मिट जाय, इसमें सन्देह नहीं है। परमात्मतत्त्व प्राप्त है और संसार सदा ही अप्राप्त है। एक क्षण भी आपके साथ नहीं है। निरन्तर बह रहा है। इसपर आप डटे रहें। आपका एक यही काम है। अब मैं जो बात बताना चाहता हूँ, वह अब बताता हूँ। वह बात यह है कि यह जो आपके आज निश्चयमें बात आ गयी, इसको छोड़ें नहीं, इसपर डटे रहें, लक्षण न देखें कि हमारेमें ये लक्षण नहीं घटे, हमारेमें यह नहीं आये। ‘अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च’ आदि-आदि सिद्धोंके लक्षण हैं, वे हमारेमें नहीं आये। इस तरफ आप न देखें। अपने निर्णयपर डटे रहें। केवल यह बात ही आज आपको कहनी है। इसमें बेड़ा पार है। किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है।

अब इसमें थोड़ी-सी बात समझें। जैसे अग्निका ढेर हो, उसमें एकदम पानी डाल दिया जाय। तो पानी डालनेसे अग्नि तो बुझ जायगी; परन्तु उस समय उसके भीतर कोई हाथ रख दे तो हाथ जल जायगा, फफोले हो जायँगे। अग्नि तो बिलकुल नहीं है उसमें; परन्तु हाथ रख दें तो हाथ जल जायगा। सिद्ध क्या हुआ? अग्नि तो बुझ गयी, पर अग्निका प्रभाव नष्ट नहीं हुआ।

उसके नष्ट होनेमें देरी लगेगी। अग्निके बुझनेमें देरी नहीं लगी, ऐसे ही वृक्ष काट दिया जाय, जड़से काटकर अलग कर दिया जाय। वह तो कट ही गया, अब पीछा हरा हो नहीं सकता; परन्तु उसकी जो पत्तियाँ हैं, वह कई दिनोंतक गीली रहेंगी, पतली टहनीकी पत्तियाँ जल्दी सूख जायँगी; परन्तु हरी टहनीकी पत्तियाँ जल्दी नहीं सूखेंगी। पेड़के पास अगर पाँच, दस पत्तियाँ हों, वह कई दिनोंतक नहीं सूखेंगी। तो इनके न सूखनेपर भी वृक्ष हरा नहीं होगा। एक बार कट गया तो कट ही गया। इसी तरहसे ही असत् के साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है उसको काट दो।

परमात्माके साथ हमारा नित्य-सम्बन्ध है उसको मान लो। न मानो तो एक ही कर लो। परमात्माके साथ सम्बन्धको अभी रहने दो। संसारके साथ सम्बन्ध हमारा है ही नहीं। इसको काट दो, बिलकुल नहीं है। कितना ही आपको दीखे। कितना ही आपपर असर हो जाय। कितनी ही वृत्तियाँ खराब हो जायँ तो भी इस निर्णयको मत छोड़ो। इसके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है। जैसे पेड़ कटनेपर भी पत्ती हरी रहती है, ऐसे पुराने प्रभावसे असर पड़ जाय, वृत्तियाँ भी खराब हो जायँ तो भी इनसे घबराओ नहीं। उसमें समय लगेगा। जैसे आग पानी डालते ही बुझ गयी बुझनेमें समय नहीं लगा; परन्तु ठण्डी होनेमें समय लगेगा। इसी तरहसे परमात्मतत्त्व है और संसार नहीं है। इसका सम्बन्ध नहीं है। संसार कैसा है? कैसा नहीं है? इसकी कोई जरूरत नहीं है, हमारे साथ इसका सम्बन्ध नहीं है।

जैसे बाल्यावस्थाके साथ आपका सम्बन्ध नहीं रहा। बूढ़े हो गये तो जवानीके साथ सम्बन्ध नहीं रहा तो अब वृद्धावस्थाके साथ सम्बन्ध कैसे रहेगा? शरीरके साथमें सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है। गर्भमें आये तबसे लेकर सौ वर्षकी उम्रतक निरन्तर वियोग हो रहा है आपका वियोग तो है ही। अब इस बातको आप मान लें तो वियोग आपका हो गया, हो गया, हो ही गया। अब उसका प्रभाव आपके देखनेमें न आवे तो उसकी आप चिन्ता मत करो। इतनी बात मेरी मान लो। चाहे बोध होनेमें कई वर्ष लग जायँ तो भी परवाह नहीं; परन्तु कट गया, इसमें किंचिन्मात्र सन्देह नहीं। जितनी यह दृढ़ता होगी आपकी, उतना जल्दी प्रभाव नष्ट हो जायगा। और इसमें ढिलाई करते रहोगे जहाँ प्रभाव नहीं दीखा, पीछा इस बातको ढीला करते रहोगे, तो भाई! उम्रभर भी शान्ति नहीं होगी। आपको दीखेगा नहीं, अनुभव नहीं होगा, इस बातको ढीला करते रहे तो।

एक ही बातपर आप कृपा करके आज दृढ़ता कर लो। ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेका’ भगवान् कहते हैं उसकी निश्चयवाली बुद्धि एक ही होती है। ‘भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्। व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते॥’(गीता २।४४) भोग और ऐश्वर्यमें आसक्त है, उनकी बुद्धि निश्चय नहीं करती। तो बुद्धिके निश्चय न करनेमें एक तो रुपयोंके संग्रहका आग्रह है और एक सुख-भोगका आग्रह है। ये दो महान् आग्रह हैं। इसके सिवाय कोई बाधा नहीं है। ‘मेरे रुपये रह जायँ’, ज्यादा संग्रह कर लूँ और सुख भोग लूँ—ये दो महान् बाधाएँ हैं। इनकी परवाह मत करो। सच्ची बात यही है। कितना ही रुपया प्यारा लगे, कितना ही भोग प्यारा लगे; परन्तु ये छूटेगा जरूर। क्या पता? खयाल करके सुनना, बहुत दामी बात है।

भोग कितना ही प्यारा लगे, उससे ग्लानि होती है, उससे उपरति होती है, उससे आप स्वयं सम्बन्ध-विच्छेद करते हो, उसका तो आप आदर करते नहीं और संयोगका आदर करते हो—यह बड़ी भारी गलती होती है। लाखों रुपये आपके पासमें पड़े हैं और अभी इन्क्वायरी आ जाय तो मनसे चाहते हैं कि अभी रुपये पासमें नहीं रहते तो अच्छा था। उस समयमें उनका नहीं होना चाहते हैं, पर उस बातको आप आदर नहीं देते हो। ऐसे ही परमात्माके सम्बन्धको और संसारके वियोगको आप आदर नहीं देते हो, महत्त्व नहीं देते हो। यही बड़ी भारी गलती है और कोई गलती नहीं है।

संसारके संयोगको आदर देते हो और परमात्माके वियोगको आदर देते हो—ये दो बहुत बड़ी गलतियाँ हैं। इन दोनों गलतियोंको आज मिटा दो अपने मनसे। फिर दीखे तो कोई परवाह नहीं। संयोगका प्रभाव दीखे, न दीखे। संसारके वियोगका प्रभाव दीखे, न दीखे। प्रभावकी तरफ आप मत देखो। प्रभाव न दीखे तो अपने निर्णयमें ढिलाई मत लाओ। बिलकुल सच्ची बात यही है। उसके सच्चेपनमें कोई सन्देह हो तो तर्क करो, विचार करो, पूछो, पुस्तकें पढ़ो, सन्देह आने मत दो। वह सन्देह जितना हो, तर्कसे दूर कर दो। परमात्माका नित्य-निरन्तर हमारा सम्बन्ध है और संसारका सम्बन्ध नित्य-निरन्तर हमारेसे मिट रहा है। इसमें कोई सन्देह हो तो तर्कसे दूर कर दो। परमात्माका नित्य-निरन्तर हमारा सम्बन्ध है और संसारका सम्बन्ध नित्य-निरन्तर हमारेसे मिट रहा है। इसमें कोई सन्देह हो तो तर्कसे चाहे जितनी करो। चाहे जितनी आप शंका करो; परन्तु उस निर्णयमें आप शंका मत करो। निर्णय कर लेनेके बाद अब सन्देह मत करो।

लड़का-लड़कीके सम्बन्धके लिये सगाई नहीं हुई, तबतक कई लड़के कई लड़कियाँ देखते हैं। सम्बन्ध होनेके बाद देखते ही नहीं। अब तो हो गयी, हो गयी, हो ही गयी सगाई। इसमें सन्देह मत करो। इसी तरहसे हमारा भगवान‍्के साथ सम्बन्ध था और है और रहेगा। कभी दूर हो नहीं सकता, सच्ची बात है और संसारका सम्बन्ध हमारा नहीं था, नहीं है, नहीं होगा और नहीं रहेगा। ये चारों बातें याद कर लो। पहले संसारसे सम्बन्ध नहीं था और अगाड़ी संसारका सम्बन्ध नहीं रहेगा। अभी भी संसारका सम्बन्ध वियुक्त हो रहा है और संसारका सम्बन्ध रह सकता नहीं—ये चार बातें हैं। पहले था नहीं, पीछे रहेगा नहीं और अभी भी है नहीं। और इसका सम्बन्ध रह सकता नहीं, रहता ही नहीं, असम्भव बात है।

परमात्माका वियोग पहले हुआ नहीं, अभी है नहीं, अगाड़ी वियोग होगा नहीं और वियोग हो सकता नहीं। भगवान‍्की ताकत नहीं कि आपसे अलग हो जायँ। इतना अकाट्य सम्बन्ध है इसमें जितनी शंका करनी हो, करो। यह आपका पक्‍का निर्णय है तो इस निर्णयके ऊपर आप दृढ़ रहो। चाहे कितना ही वियोग हो जाय, चाहे कितनी ही वृत्तियाँ खराब हो जायँ, कितना ही पतन हो जाय, इस निर्णयके ऊपर पक्‍के दृढ़ रहो। वह जितना पक्‍का रहेगा, उतनी बहुत जल्दी सिद्धि हो जायगी इसमें किंचिन्मात्र सन्देह नहीं है। इस निर्णयपर दृढ़ रहना है। नहीं तो भाई! दिन लगेगा। आप लक्षण देख करके निर्णयमें ढिलाई लाते हो, यह गलती होती है। हमारे देखनेमें नहीं आता। आचरणमें नहीं आता। यह भाव हमारे बर्तावमें नहीं आता, यह बिलकुल गलत बात है और आ जाय तो कोई बात नहीं। यह बात तो सही है, इसमें आप कच्चे मत पड़ो। इतनी बात मेरी मान लो, बात सही तो सही ही है। दो और दो चार ही होते हैं, तीन और पाँच हो ही नहीं सकते। इसमें क्या सन्देह बताओ?

नारायण! नारायण!! नारायण!!!

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