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दूसरोंके हितका भाव

२३-३-८३ / भीनासर धोरा, बीकानेर

मेरे मनमें एक बात विशेषतासे आती है कि हम यह जानते हैं कि शरीर, कुटुम्ब, धन, जमीन, मकान आदि ये सब उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं। सदा हमारे साथ रहते नहीं, रहेंगे नहीं और रहना सम्भव नहीं है फिर भी ‘ये हमारे साथ रहेंगे’ ऐसी धारणा बना रखी है, जो बिलकुल गलती है। ये सब एकदम नष्ट हो रहे हैं, प्रतिक्षण अभावमें जा रहे हैं। जितना दृश्य जगत् है, वह सब अदृश्य हो रहा है। दीखनेवाले सब न दीखनेमें जा रहे हैं। भावरूपसे दीखनेवाला संसार अभावमें जा रहा है। ‘है’ रूपसे दीखनेवाले सब ‘नहीं’ में जा रहे हैं, फिर भी इनको साथ रखना चाहते हैं। इनके साथ रहना चाहते हैं। ये हमारे साथ रहें। जो मिला हुआ है, वह बना रहे तथा नया और मिल जाय—ये दो प्रकारकी इच्छा है। यह कहाँतक उचित है बताओ? जो रहनेवाली नहीं है, उसकी इच्छा करना, उसकी प्राप्तिके लिये समय लगाना, उसके लिये ही सोचना कि धन मिल जाय, कुटुम्ब मिल जाय, मान मिल जाय, बड़ाई हो जाय आदि-आदि पता नहीं, कितनी लाइन लगा रखी है? यह ठीक है क्या? यह सुधार कब करेंगे? किस दिनके लिये बाकी छोड़ा है, कब करोगे यह विचार?

आप जो काम करते हैं, वही काम करते रहें, पर उसे स्थायी न मानें और जो कुछ मिला हुआ है, यह स्थायी बना रहे—यह इच्छा न करें। बस, इतना सुधार करना है। काम-धन्धा आप जो करते हैं, वही करें। शास्त्रोंके अनुसार उत्साहपूर्वक काम करें; परन्तु उसका भरोसा न करें, स्थायी न मानें। यह हमारे पास रह जाय और अमुक-अमुक परिस्थिति बन जाय, इस इच्छाका त्याग करें। जैसी परिस्थिति बननेवाली है, वैसी बन जायगी। प्रतिकूल बननेवाली है तो प्रतिकूल बन जायगी। अनुकूल बननेवाली होगी तो अनुकूल बन जायगी। जो नहीं है उसकी आशा और उसका भरोसा—ये दो चीज छोड़ दें, बस। इनको छोड़नेमें हम पराधीन नहीं हैं; क्योंकि यह बात समझमें आ गयी कि ये चीजें रहनेवाली नहीं हैं। प्रत्यक्ष बात है कि ये सब नष्ट हो रही हैं। इस वास्ते इनका मोह, आशा, भरोसा न रखें, इनका त्याग कर दें।

बड़ी विचित्र बात है! हम यह सुनते हैं, समझते हैं, जानते हैं, मानते हैं कि ये रहनेवाले नहीं हैं फिर भी इनमें ही आकृष्ट होते हैं। तो केवल इनका जो आकर्षण है, उसको मिटाना है और कुछ नहीं करना है, फिर सब ठीक हो जायगा। आकर्षणमें फायदा कोई-सा भी नहीं है और नुकसान सब तरहका है। आकर्षण रखनेसे पराधीन हो जाते हैं। ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’ आकर्षण कैसे मिटे? इनको दूसरोंकी सेवामें लगावें, दूसरोंको सुख पहुँचावें। यह भाव बना लें कि सबको सुख कैसे हो? सबको आराम कैसे मिले? सबके लाभ कैसे हो? सबका हित कैसे हो? यह सोचते रहें—‘सर्वभूतहिते रता:’ हमारी रति, प्रीति सबके हितमें हो जाय। अगर प्रीति ऐसी है कि हमारे लाभ हो जाय, हमारे संग्रह हो जाय, हमारा मान हो जाय तो यहाँ ही घाटा है। यह भाव बदल दें यह खास चीज है।

हमारेसे जो वैर-विरोध रखें, उनका भी भला कैसे हो? उनको शान्ति कैसे मिले? उनको लाभ कैसे हो? उनका हित कैसे हो? उनका कल्याण कैसे हो? यह सोचो। हमारा भाव ऐसा होना चाहिये। बड़ा भारी लाभ है इसमें। अन्त:करण बहुत जल्दी निर्मल होता है। किसीका भी अहित सोचनेसे अपना अन्त:करण मैला होगा और कर कुछ नहीं सकोगे। हमारे करनेसे कुछ हो जाय यह बात है नहीं। आप किसीका अहित सोचकर अहित नहीं कर सकते और हित सोचकर हित नहीं कर सकते; क्योंकि उनका सांसारिक हित-अहित उनके भाग्यके अनुसार होगा। हमारा भाव अगर दूसरोंका हित करनेका होगा तो हमारा कल्याण जरूर हो जायगा। हमारा भाव यदि दूसरोंके अहितका होगा तो हमारा पतन जरूर हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं है। कुछ नहीं कर सकेंगे, सिवाय इसके कि हम अपना कल्याण कर सकते हैं और अपना पतन कर सकते हैं।

सर्पाणां च खलानां च परद्रव्यापहारिणाम्।
अभिप्राया न सिद‍्ध्यन्ति तेनेदं वर्तते जगत्॥

सर्पोंका, दुष्टोंका, चोरोंका, डाकुओंका अभिप्राय सिद्ध नहीं होता। इसीसे यह संसार बरत रहा है। नहीं तो संसारको चौपट कर दें। चोर और डाकू किसीके पास धन रहने देंगे क्या? पर उनका मनोरथ सिद्ध नहीं होता। आप कितना हित कर लोगे! कितना अहित कर लोगे! कुछ नहीं कर सकोगे। हित करके दुनियाको निहाल कर दो यह बात नहीं है। आपका भाव हित करनेका होगा तो आप निहाल हो जाओगे और आपका भाव अहित करनेका होगा तो आपका नुकसान हो जायगा। किसीके पास आपसे ज्यादा धन है तो आप उसे मिटा तो सकते नहीं तो क्यों जलन होने दो मनमें? यह मुफ्तमें आग क्यों लगाओ?

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत्॥

ऐसा भाव रखो तो आपके क्या नुकसान है? अन्त:करण निर्मल हो जाय मुफ्तमें, बड़ा भारी फायदा होगा। बड़े-बड़े यज्ञ, दान, तीर्थ, तप आदि करनेकी अपेक्षा ऐसे भावसे अन्त:करण निर्मल जल्दी होगा। भीतरका मैलापन जल्दी दूर होगा। बड़े-बड़े शुभ कर्मोंसे इतनी जल्दी नहीं होगा, पर आपको तो क्या है कि जब किसी सुखीको दु:खी देखते हैं, तब आपको चैन पड़ता है। बोलो कितना नुकसान है! यह कितनी खराब बात है! आप मुफ्तमें पापके भागी होते हैं और मिलना कुछ नहीं है। कोरा अन्त:करण मैला कर लो भले ही। भाव गिराकर अपना पतन करना है। बाजारमें भाव गिर जाते हैं तो घाटा लग जाता है और भाव तेज होनेसे मुनाफा हो जाता है।

हमने एक बात सुनी कि एक बार एसेम्बली (विधानसभा) में बात हुई कि ये जितने धनी हैं, ये सब निर्धन कैसे हों? तो कहा गया कि इनपर टेक्स लगाओ। टेक्स-पर-टेक्स लगाओ, जिससे किसी तरह ये धनी लोग निर्धन हो जायँ। यह बात जब बीकानेर दरबारने सुनी तो वे बोले कि तुम भावना करते हो कि सब धनी निर्धन कैसे हो जायँ? भावना ही करो तो अच्छी करो, ‘सभी निर्धन धनी कैसे हो जायँ—यह भावना करो। ऊन्धी (उलटी) भावना क्यों करते हो! अरे, मनके लड्डू बनाये जायँ तो उनमें मीठा कम क्यों डालो? इसमें कौन-सा खर्चा लगता है! भगवान‍्से भी यही कहो कि महाराज! सब सुखी हो जायँ, कोई दु:खी न रहे। अब भगवान् करें या न करें, भार उनपर है। आपका काम तो हो ही गया। किसीका भी अहित न हो। अहित तो हमारे वैरीका भी न हो। वह चाहे हमारे साथ वैर रखे, पर उसका भी हम अहित नहीं चाहेंगे—‘सर्वभूतहिते रता:’ आप और हम ऐसा कर सकते हैं कि नहीं? बोलो भाई! भाव कर सकते हैं। मैं भावका ही कहता हूँ। चीज वस्तु तो इतनी कहाँसे दोगे? और दोगे भी तो कितनी दोगे? लाखों, करोड़ों और अरबों रुपये हों तो भी सीमित ही होंगे, पर भाव असीम है। भावसे कल्याण होता है, वस्तुसे नहीं।

नफा वस्तुमें नहीं, नफा भावमें होय।
भाव बिहूणा परसराम बैठा पूँजी खोय॥

भावमें स्वतन्त्रता है तो अपने भावमें कमी क्यों रखो भाई?

उमा संत की इहइ बड़ाई।
मंद करत जो करहि भलाई॥

अपने तो भलाई करनेका भाव रखो। होना-करना हाथकी बात नहीं है। पर भाव गिराकर, किसीके अहितका भाव करके अपना अन्त:करण क्यों मैला करें? प्राणिमात्रके हितमें रति होनी चाहिये। अहित करनेवालोंको नरक और चौरासी लाख योनि होगी मुफ्तमें। वहाँ न तो हित कर सकोगे और न अहित कर सकोगे तो मुफ्तमें क्यों नरकोंमें जाओ। हमें जो कुछ शरीर, वस्तु, पदार्थ आदि मिले हैं, उनके द्वारा सबकी सेवा करो, सबको सुख पहुँचाओ, ऐसा भाव होगा तो ये स्वाभाविक दूसरोंकी सेवामें खर्च होंगे।

प्रश्न—महाराजजी! जानते हैं कि भलाई करे, अच्छी है लेकिन पता नहीं, यह बुराई किस चोर दरवाजेसे आ जाती है?

उत्तर—यह तो सुखकी इच्छा है, इससे मनुष्य बुरा काम कर बैठता है। उसीसे अशान्ति होती है। जो अशान्त होता है, वही अशान्ति पैदा करता है। दु:खी होता है, वही दु:ख देता है। सुखी होता है, वह किसीको दु:ख नहीं दे सकता। इनके कारण ही दु:ख देनेकी भावना होती है। कोई भी मनुष्य दूसरेका अनर्थ कर ही नहीं सकता, जबतक अपना अनर्थ पूरा न कर ले। अपना अनर्थ करके ही दूसरेका अनर्थ करता है; परन्तु सुखकी इच्छाके कारण मनुष्यका अपने अनर्थकी तरफ खयाल ही नहीं जाता। वह समझता है कि मैं दूसरेका अनर्थ नहीं करता हूँ। आप स्वयंतक तो न सांसारिक हित पहुँचता है, न अहित पहुँचता है। आप दूसरेका हित करें तो भी वह उसके स्वयं वहाँतक हित पहुँचता ही नहीं। केवल आपको लाभ और हानि होती है।

प्रश्न—सुख-दु:ख किसे कहते हैं और इनकी निवृत्ति कैसे हो?

उत्तर—देखो, एक मार्मिक बात है कि वास्तवमें सुख-दु:ख हैं नहीं। हमारे मनके अनुकूल हो जाय तो सुख हो गया और मनके विरुद्ध हो गया तो दु:ख हो गया। बाकी कुछ है नहीं सुख-दु:ख! ये हमारे बनाये हुए हैं। एक कुम्हार था, उसके दो लड़कियाँ थीं। उन दोनोंका पासके गाँवमें विवाह कर दिया था। एक लड़कीके खेतीका काम था और दूसरीके मिट्टीके बर्तनका काम था। एक दिन कुम्हार लड़कियोंसे मिलनेके लिये गया। पूछा, ‘बेटी, क्या ढंग है?’ पिताजी, खेती सूख रही है। अगर पाँच-दस दिनोंमें वर्षा नहीं हुई तो फिर कुछ नहीं होगा।’ दूसरी लड़कीके यहाँ गया और पूछा तो वह कहने लगी ‘पिताजी! बर्तन बनाकर सूखनेके लिये रखे हैं, अगर दस-पन्द्रह दिनमें वर्षा हो गयी तो सब मिट्टी हो जायगी।’ अब रामजी क्या करें बताओ? एकके वर्षा होनेसे सुख है और एकके वर्षा होनेसे दु:ख है। जिसके वर्षा होनेसे सुख है उसके वर्षा न होनेसे दु:ख है तो यह सुख-दु:ख अपने बनाये हुए हैं। वर्षा हो जाय अथवा वर्षा न हो—यह हमारे हाथकी बात तो है नहीं। फिर क्यों सुखी-दु:खी होते हो? जो हो जाय, उसमें प्रसन्न रहो। जो होना होगा, वह होकर रहेगा।

नारायण! नारायण!! नारायण!!!

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