गृहस्थमें लोक-परलोक-सुधार
१७-२-८३ / गोविन्द-भवन कलकत्ता
प्रश्न—हम गृहस्थाश्रममें रहते हैं, उसमें बहुत उलझनें रहती हैं। उसमें रहते हुए हम लोक और परलोक कैसे सुधार लें?
आप ध्यान दें मेरी बातोंपर। हमलोगोंकी यह धारणा है कि गृहस्थमें बाहरके बहुत काम रहनेसे, बहुत झंझट रहनेसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती। बाहरके सब झंझट मिट जायँ तो हम परमात्माकी प्राप्ति कर सकते हैं। इस विषयमें विचार करनेसे यह बात मालूम देती है कि बाहरके काम-धन्धोंसे बन्धन नहीं है। भीतर जो संसारको अपना मान लिया और अपनेको संसारका मान लिया, यही बन्धन है। जहाँसे बन्धन होता है, वहाँसे ही मुक्ति होती है। संसारके साथ तो हमारा सम्बन्ध है और परमात्मासे तो परमात्माका भजन करके सम्बन्ध जोड़ेंगे, यह धारणा गलत है। भगवान्से हमारा सम्बन्ध वास्तविक है और संसारसे हमारा सम्बन्ध जोड़ा हुआ है। इसको अपना न मानें और भगवान्को अपना मानें। भगवान् अपने हैं—ऐसा अगर हम मान लें और जान लें तब तो फिर कहना ही क्या है? पर अभी मान भी लें तो फिर गृहस्थाश्रममें रहते हुए यह काम-धन्धा झंझट नहीं लगेगा। गृहस्थके कामको आप बन्धन मानते हैं, जब कि यह बन्धन नहीं है।
सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥
(गीता २।३८)
भगवान्ने युद्धके आरम्भमें अर्जुनको गीता सुनायी, उसमें बताया कि जय-पराजय, हानि-लाभ और सुख-दु:ख इनको समान समझ करके फिर तुम युद्ध करो, तुमको पाप नहीं लगेगा। आपके गृहस्थका कर्म युद्ध-जैसा क्रूर नहीं है। युद्धमें तो दिनभर लोगोंका गला काटना पड़ता है। मनुष्योंको मारना पड़ता है। ऐसे कामसे भी तुम्हें पाप नहीं लगेगा। कब? जब जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:खको समान समझकर युद्ध करोगे तब हम संसारकी उन्नतिको उन्नति और संसारकी अवनतिको अवनति मानेंगे, तब तो यह समता नहीं होगी। संसारके लाभको हम लाभ मानेंगे और संसारकी हानिको हम हानि मानेंगे, तबतक समता नहीं आयेगी। गृहस्थमें ही क्या? अगर साधुमें भी ऐसी इच्छा हो कि अपने सम्प्रदायका प्रचार अच्छा हो जाय, लोग हमारेको आदर दें, लोग हमारेको अच्छा मानें, हम आरामसे रहें, तब तो वह साधु गृहस्थसे किसी दर्जेमें कम नहीं है।
गृहस्थाश्रममें रहते हुए भीतरसे यह भाव रहे कि मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं। भगवान्का ही यह कुटुम्ब है और इसके पालनकी जिम्मेवारी मेरेपर है, पर ये मेरे नहीं हैं और मैं इनका नहीं हूँ। इनके पालन-पोषणकी जिम्मेवारी मेरी है और यह काम मेरेको करना है, ऐसे समझकर जो गृहस्थमें काम करता है तो वह काम करता हुआ भी बँधता नहीं; क्योंकि बन्धन काम-धन्धेमें नहीं है, व्यक्तियोंमें नहीं है, वस्तुओंमें नहीं है। अपने-आपके भीतर बन्धन है, जो कि इनमें आपने अहंता और ममता की है। संसारमात्रका छोटा-सा अंग शरीरको मैं मान लिया अर्थात् अपनेको शरीर मानने लग गया ‘छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम सरीरा॥’ पाँच भूतोंसे रचा हुआ यह संसार है। इसका छोटा-सा टुकड़ा यह शरीर, इसको आपने मैं मान लिया और इस संसारके कुछ व्यक्तियोंमें, वस्तुओंमें कर लिया मेरापन। यह मैं और मेरापन है बन्धन!
मैं मेरेकी जेवड़ी गल बन्ध्यो संसार।
दास कबीरा क्यों बन्धे जाके राम आधार॥
मेरा मानना ही है तो मात्र संसारको मेरा मान लो। फिर मात्र संसारकी सेवा करो तो मुक्ति हो जाय और इन सबमें मैं हूँ ऐसा मान लो तो मुक्ति हो जाय।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:॥
(गीता ६।२९)
अपनेको रख लिया संसारमें, मानो शरीरमें और शरीरको रख लिया अपनेमें। अपनेमें शरीरको रख लिया, यह हो गयी अहंता और अपनेको संसारमें रख लिया यह हो गयी ममता और ‘निर्ममो निरहंकार: स शान्तिमधिगच्छति॥’ (गीता २। ७१) यह अहंता और ममता छोड़नी पड़ेगी। कोई गृहस्थमें रहे, चाहे साधु आश्रममें रहे। काम-धन्धा थोड़ा रहे चाहे ज्यादा रहे। छोटे-से अंशको अपना मान लिया न अब चाहे साधु बनो, चाहे गृहस्थ बनो, बन्धन हो गया, इसमें गृहस्थ और साधुका भेद नहीं है। इस विभागसे विशेष लाभ हो जाय, यह बात नहीं। साधुको थोड़ा समय अधिक मिल सकता है, अगर वह चाहे तो और यदि साधु भी इसी काम-धन्धेमें लगा हुआ है तो उसको भी वक्त नहीं मिलता।
आप विचार कर देखो, आपके एक गाँवमें, एक घरमें,काम-धन्धा रहता है तो उसका बन्धन रहता है। मेरे बहुत-से गाँव हैं, बहुत-से घर हैं और बहुत-से मनुष्य मेरे परिचित हैं तथा वे सब मेरेसे आशा रखते हैं, आपके गृहस्थमें इतना बन्धन नहीं है। अगर घर-गृहस्थमें बन्धन हो तो मेरे बहुत बड़ा बन्धन होना चाहिये और होगा ही हमारे बन्धन, अगर उनको अपने लिये मानें तब तो। हम अपने लिये न मानें और उनके लिये ही सम्बन्ध रखें तो हम नहीं बँधेंगे। हमारे लिये उनसे सम्बन्ध रखेंगे तो इतना बड़ा बन्धन होगा कि गृहस्थसे भी कभी नहीं होता।
हमारे लिये उनको मानेंगे तब वहाँ मान मिलेगा, बड़ाई मिलेगी, आराम मिलेगा, भोजन मिलेगा, कपड़ा मिलेगा, सवारी मिलेगी, पुस्तकें मिलेंगी, सुविधा मिलेगी, मान-बड़ाई, आराम आदि मिलेगा। अगर ऐसा सम्बन्ध रखते हैं तो गृहस्थकी अपेक्षा साधुके ज्यादा बन्धन होगा; क्योंकि उसका बहुतों-से सम्बन्ध है। अगर हम अपने लिये न करके केवल उनके लिये ही सम्बन्ध रखें कि उनका हित कैसे हो? उनका उद्धार कैसे हो? उनका भला कैसे हो? मेरा शरीर है, मन है, वाणी है, इन्द्रियाँ हैं, भाव है, ये उनकी सेवामें ही लग जायँ। जितना लग गया, उतना हमारे लाभ हो गया। हमारा बड़ा भारी कल्याण होगा और हमने उनसे जितना ले लिया, उतना हमारा नुकसान हो गया, हानि हो गयी। ऐसा विचार रखकर लोगोंके साथ सम्बन्ध रखा जाय तो अपना बन्धन नहीं होगा। ऐसे मुक्ति आपके गृहस्थमें रहते हुए हो सकती है।
माँ मेरा कहना करे, पिताजी मेरा कहना करें, स्त्री मेरे हुकुममें चले, बाल-बच्चे भी मेरा कहना करें, भाई, भौजाई, भतीजा आदि भी मेरा कहना मानें, मेरा आदर करें, मेरे कहे अनुसार चलें जबतक यह भाव रहेगा तबतक कभी कल्याण नहीं होगा। इसकी जगह यह भाव हो जाय कि इनकी सेवा मेरेसे बन जाय, किसी तरहसे सुख पहुँच जाय, इनको आराम पहुँच जाय तो मुक्तिमें कोई बाधक नहीं होगा। मनुष्यकी एक बड़ी भारी कमी है कि वह अपना आधिपत्य चाहता है, मेरा आधिपत्य रहे, मेरी बात चले, मैं कहूँ ज्यों दूसरा करे—ऐसा जो अपना अधिकार चाहता है न, तो यह तो कुत्ता भी चाहता है। कोई दूजा कुत्ता आ जाता है तो यहाँका कुत्ता दौड़ता है काटनेके लिये, वह काटे तो दूजे काटते हैं, वह नीचे गिर जाता है और जीभसे ‘उं उं’ करने लग जाता है तो दूजा कुत्ता उसपर चढ़कर सवार हो जाता है, अब आधिपत्य हो गया उसपर, इस वास्ते वह काटेगा नहीं। उसने उसका मालिक अपनेको मान लिया।
आपलोग मेरी बात मान लें। इस अधिकारका अभिमान रखेंगे तो बन्धन होगा ही। साधु हो जाओ, चाहे गृहस्थी हो जाओ। भाई हो, चाहे बहिन हो। कोई क्यों न हो! गृहस्थके झंझट बाँधनेवाले नहीं हैं, पदार्थ बाँधनेवाले नहीं हैं, ‘ये मेरे हैं’ इस वास्ते इनका पालन करूँ, इनका पोषण करूँ। ये मेरेको अपना मानें और मैं इनके साथ रहूँ—यह बन्धन है। केवल उनके पालनके लिये सम्बन्ध रखें। संसारमें अपने लिये नहीं रहना है, संसारके लिये रहना है। गृहस्थमें रहना है तो गृहस्थ अपने लिये नहीं है। अगर ऐसे भाव बदल दिया जाय तो बन्धन स्वप्नमें भी नहीं हो सकता। अगर यह सावधानी रहेगी तो स्वप्नमें भी बन्धन नहीं होगा। जाग्रत् में भी बन्धन नहीं होगा, हो ही नहीं सकता बन्धन! मेरा कुछ मतलब सिद्ध हो जाय इस भावनामें बन्धन है। गृहस्थमें रहता हूँ, इनसे मैं सुख ले लूँ, इस वास्ते गृहस्थका पालन करूँ—यह सम्बन्ध कुत्तेकी तरह ही है, कोई फर्क नहीं है।
मेरे द्वारा सबका हित हो जाय, उसमें सबसे पहले, अगर गृहस्थमें है तो अपने कुटुम्बका पालन करो, उसके बाद दूसरोंका भी भरण-पोषण करो। इनका काम करनेके लिये मैं रहता हूँ, अपने लिये नहीं। तो वह जीवेगा भी सुखसे और मरेगा भी सुखसे। अगर मेरे लिये ये हैं और मैं इनसे सुख ले लूँ—ऐसा भाव रखेगा तो वह जीवेगा भी दु:खसे और मरेगा भी बड़े भयंकर दु:खसे। बन्धन और मुक्ति कहाँ है? मेरा आधिपत्य हो, समाजमें मेरी बात चले, मैं करूँ ज्यों हो जाय, मेरे हुकुमके अनुसार सब चलें—यह भाव बाँधनेवाला है और मैं इनका कहना करूँ, इनका हुकुम पालन करूँ, इनकी आज्ञा पालन करूँ, इनका भला हो जाय, मैं किस तरहसे इन सबके अनुकूल चल सकूँ—ऐसा भाव हो जाय तो यह भाव मुक्ति देनेवाला है। तो मुक्ति और बन्धन यहाँ हैं। गृहस्थमें रहते हुए झंझट ज्यादा रहता है, समय नहीं मिलता—यह बात ठीक है; परन्तु बन्धन यह नहीं है।
अभी बड़ा सुन्दर मौका है, मनुष्योंकी सेवा करनेके लिये अवसर मिला है, सेवा कर दो। घरमें कोई रहे तो उसकी सेवा करो, मर जाय तो जला दो। उसके पीछे विधिपूर्वक पिण्डदान आदि कर दो। जैसे, हम अध्याय पढ़ते हैं तो पढ़ते-पढ़ते अध्याय पूरा हो जाता है, अध्याय पूरा होनेपर रोते हैं क्या? कि अब अध्याय पूरा हो गया। ऐसे ही एक व्यक्तिकी सेवा करते-करते वह मर गया, उसकी सेवा कर दी। मरनेके बाद जो करना है, वह कर दिया तो एक अध्याय पूरा हो गया; अब दूजा अध्याय शुरू करो। रोना क्यों होता है? यह हमारे अनुकूल चलता था, खूब सेवा करता था, मेरा था, वह चला गया। मेरा था और सेवा करता था इस बातका रोना है, मनुष्यका रोना नहीं है। यह अगर पहलेसे छोड़ दे तो आपका गृहस्थ बिलकुल बाधक नहीं होगा।
प्रश्न—श्रेष्ठ सेवा क्या है?
उत्तर—सबका कल्याण चाहना, उनका कल्याण हो यह चाहना श्रेष्ठ सेवा है।
प्रश्न—घरमें या कार्यालयमें अनुशासनहीनता दिखायी पड़ती है तो उसमें क्या करें? सोचते हैं कि यह छोड़ दें, इससे मुक्ति पा लें।
उत्तर—उनको रोकनेके लिये शासन करो। अर्जुनने तलवार बजायी है, उससे बढ़कर आपका शासन क्या क्रूर होगा? मनुष्योंका गला काट देना, इससे बढ़कर कोई क्रूर होता है क्या आपका शासन? इसमें यह भाव न हो कि यह मेरा कहना करे, मेरी बात माने; क्योंकि इसमें है बन्धन। यह सुचारुरूपसे करे, संचालन अच्छी तरहसे हो, संस्था ठीक चले। गृहस्थ ठीक चले, उनका हित हो, इसके लिये खूब ताड़ना करो, खूब करो शासन, आपके बाधा होगी ही नहीं। बाधा तो स्वार्थमें है, अभिमानमें है। मेरी बात रहे, यह अहंकार है—
अहंकार राक्षस महा दु:खदायी सब भाँति।
जो छूटे इस दुष्टसे, सोई पावे शांति॥
शासन करो, पर करो उनके हितके लिये, अपने लिये नहीं। दूसरे कितना भी उलटा समझें, आप अगर ठीक करते हो तो आपके बन्धन नहीं होगा। किसी अधिकार, पदसे मुक्ति पानेका मैं कहता ही नहीं। ऐसी मुक्ति पाना गलती है इसमें तो आरामतलबी है, भोग-सुखसे रहूँ, मेरे झंझट मिट जाय, यह बात है। झंझटसे सब बचना चाहते हैं। आराम चाहता है, एकान्तमें रहेंगे, भजन-साधन करेंगे, कोई झंझट नहीं होगी। एकान्त रहनेसे नींद खुली आयेगी अच्छी तरहसे। संसारके संकल्प होंगे, मौजसे सोयेंगे, आरामसे रहेंगे। वह भोगी है भोगी, वह योगी है ही नहीं! इससे मुक्ति कैसे हो जायगी! उसका कैसे कल्याण हो जायगा! संसारसे वैराग्य होता है तो भोगोंसे होता है कि झंझटसे वैराग्य होता है? भोगोंसे वैराग्य होना चाहिये। झंझट समझकर वैराग्य होता है तो वह वैराग्य थोड़े ही है। ऐसा वैराग्य तो कुत्तेको भी होता है। लाठी लेकर उसके पीछे दौड़ो तो वह भाग जायगा; क्योंकि उसको लाठीकी मार खानेसे वैराग्य है। यह भी कोई वैराग्य होता है क्या? सुख-भोगसे, आरामसे, मान-बड़ाईसे जब रागरहित होता है तब वैराग्य होता है।
प्रश्न—दो-चार सज्जन मिलकर काम करते हैं, आपसके विचारोंमें मतभेद हो तो क्या करें?
उत्तर—अपना मत उनके सामने रख दें। दोनोंमेंसे जो न्याययुक्त हो उसको मानें और अगला व्यक्ति कह दे कि नहीं, ऐसा ही करें तो उस समय अपना मत उसके मतमें मिला दें। विपरीत हो तो मत मिलाओ। देखो! एक बात याद आ गयी। मैं आसाम गया था। देवर गाँवकी बात है। उस गाँवको चारानी भी कहते हैं। वहाँ मैंने कहा कि ‘बड़ोंको नमस्कार करो।’ तो वे लोग बोले कि अभी थोड़े दिन पहले यहाँ श्रीनेहरूजी आये थे। उनको किसीने नमस्कार कर लिया तो उन्होंने उसके थप्पड़ मारी और कहा कि इसी रिवाजने ही भारतको गुलाम बनाया है। आप कह रहे हो कि बड़ोंको नमस्कार करना चाहिये। तो अब हम किसका कहना करें? मेरे सामने ऐसा प्रश्न आया कि तुम्हारा कहना मानें कि नेहरूजीका? इसपर मैंने उत्तर दिया—‘जहाँ मेरा और नेहरूजीका कहना हो और दोनोंमें मतभेद हो तो नेहरूजीका कहना करो, मेरा कहना मत करो और शास्त्रोंकी बात आती है तो वहाँ न मेरा कहना करो, न नेहरूजीका कहना करो, शास्त्रोंका कहना करो।
शास्त्रोंमें आता है जब महाभारतका युद्ध हुआ, उस समय युधिष्ठिरजी महाराजने भीष्मजी, द्रोणाचार्यजी, कृपाचार्यजी, शल्यजीको जाकर नमस्कार किया और आज्ञा माँगी। फिर युद्ध किया, तो अन्तमें विजय उनकी हुई। दुर्योधनने नमस्कार नहीं किया, तो उसकी पराजय हुई। नमस्कार करना पराजय है क्या? नमस्कार करना तो बड़प्पन है। उसकी तो उन्नति ही होगी। छोटा होता है, वह बड़ेसे लेता है। बड़ेको तो देना पड़ता है। हमारे सामने मतभेद हो तो उनकी बात मानो, हमारी मत मानो और शास्त्रोंकी बात है तो मेरी, उनकी दोनोंकी बात मत मानो, शास्त्रकी बात मानो। जो दुनियाके ज्यादा लाभदायक हो, वह बात चाहे किसीकी हो, उसकी मानो।
अपने स्वार्थका त्याग और दूसरोंका हित हो—ये दो बातें देखनी चाहिये। उनकी बात ऐसी है तो उनकी मान लो। हमारी बात ठीक है तो हमारी मान लो। यह कसौटी लगा लेना चाहिये। नियत और ठीक होगी और कभी भूल हो जायगी तो दोष नहीं लगेगा।
नारायण! नारायण!! नारायण!!!