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मनुष्यकी मूर्खता

८-३-८३ / गोविन्द-भवन कलकत्ता

जैसे, हम अपने मकानके दरवाजेपर खड़े हैं और बाहर सड़कपर बहुत-सी मोटरें, बग्गियाँ, आदमी आदि निकलें तो हम खुशी मनावें कि बहुत अच्छा हुआ। दूसरे दिन कोई मोटर नहीं आयी, बग्गी नहीं आयी, एक आदमी भी नहीं आया, सड़क खाली पड़ी है तो हम रोने लग जायँ कि आज बड़ा भारी घाटा लग गया, हमारे बहुत नुकसान हो गया। बोलो, वह आदमी बुद्धिमान् है क्या? इसी तरहसे आपकी अवस्था अच्छी आ गयी, आपके धन आ गया, बेटा-पोता हो गया, मकान हो गया, मोटर हो गयी तो आप राजी हो गये और ये चले गये तो आप नाराज हो गये—यह महान् नुकसान है, महान् मूर्खता है। आप परमात्माके साक्षात् अंश हो और उन तुच्छ चीजोंके अधीन हो गये। ये आने-जानेवाली हैं, इनको लेकर हम यह समझें कि हम विद्वान् हो गये, हम पण्डित हो गये, हम धनी हो गये। हमारे सुननेवाले आदमी बहुत ज्यादा आ जायँ तो राजी हो जायँ तो यह महान् मूर्खता है। सुननेवाले आ गये ज्यादा तो क्या फर्क पड़ा? कोई नहीं आवे सुननेके लिये तो क्या हो गया?

आपका मूल्य आगन्तुक वस्तुओंके आने और जानेसे बिलकुल नहीं है। जो नित्य-निरन्तर रहनेवाले परमात्मा हैं, उनकी प्राप्तिसे ही आपका मूल्य है। आपका आगन्तुक चीजोंसे कोई मूल्य नहीं है। अगर आप चाहो तो आज इस बातको हटा दो। भगवान‍्ने गीताजीके आरम्भमें कहा है—‘आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।’ (गीता २। १४) ये आने-जानेवाले हैं, इनकी क्या परवाह करते हो! कितना ही मान हो जाय, चाहे कितना ही अपमान हो जाय, कितनी ही निन्दा हो जाय, चाहे कितनी ही प्रशंसा हो जाय! कितना ही धन आ जाय, चाहे कितना चला जाय! आने-जानेवालोंसे क्या फर्क पड़ेगा? आदमी ज्यादा आ गये तो क्या हो गया? और कम आ गये क्या हो गया? आपके साथ इनका सम्बन्ध है ही नहीं। ऐसे शरीर रोगी हो गया तो क्या हो गया? नीरोग हो गया तो क्या हो गया? आपके क्या हो गया? क्या आप शरीर हो? क्या शरीर आपके साथ है? यह आपके साथ रहेगा? धनके रहने-न-रहनेसे आप अपनी इज्जत-बेइज्जत मानते हो, इसके सिवा मूर्खता और क्या होती है? महान् मूर्खता है यही। इन चीजोंके आनेसे आप अपनेमें बड़प्पन और चली जानेसे छोटापन मानते हो। कितनी बड़ी गलती है! बड़ी भारी गलती है। इसमें शंका हो तो खूब कसकर शंका करो।

आने-जानेवाली चीजोंसे अपनेमें फर्क पड़ जाय—यह महान् मूर्खता है। ये चीजें तो आने-जानेवाली हैं। कुटुम्ब भी आने-जानेवाला है, धन भी आने-जानेवाला है। अधिकार, पद आदि भी आने-जानेवाले हैं। मिनिस्टर बन गये तो फूँक भर गयी कि हम बड़े हो गये। क्या हो गये तुम? मूर्खता है सांगोपांग, एक केश-जितनी भी इसमें सत्यता नहीं है। आप बताओ, क्या हुआ? आज हम हिन्दुस्तानके बादशाह बन जायँ और कल तिरस्कारपूर्वक उतार दे तो क्या इज्जत है इसकी? और मरना पड़ेगा ही, सब छूटेगा ही उस दिन क्या साथमें रहेगा? इन नाशवान् चीजोंको लेकर आप अपनेमें बड़ापन और ऊँचापन देखते हैं, यह वास्तवमें कोई इज्जत है? यह कोई मनुष्यता है? परमात्माके आप साक्षात् अंश हो, उसकी प्राप्ति करो तब तो अपनी जगह आ गये, ठिकानेपर आ गये। नहीं तो ठिकानेसे चूक गये और आने-जानेवाली चीजोंमें बँध गये। खयालमें आता है कि नहीं? शंका हो तो खूब खुलकर करो। हो नहीं सकती शंका! ठहर नहीं सकती! टिक नहीं सकती!

अविनाशीके सामने विनाशी चीज क्या मूल्य रखती है? उन चीजोंसे राजी और नाराज होते हो। महान् दुष्टता है यह। यह बड़ी भारी दुष्टता है। इस वास्ते इन आने-जानेवाली चीजोंसे अपनी इज्जत-बेइज्जत मत मानो। निन्दासे, प्रशंसासे दु:खी और सुखी मत होवो। आपकी इज्जत है नहीं यह। निन्दासे नाराज होना भी बेइज्जती है और प्रशंसासे राजी होना भी बेइज्जती है। महान् फजीती है आपकी। इसके समान फजीती और कोई है ही नहीं। कौन हो आप? परमात्माके साक्षात् अंश हो। दो-चार आदमियोंने ठीक कह दिया तो क्या हो गया और दुनियामात्र बुरा कह दे तो क्या हो गया? क्या है यह? यह कोई मूल्य है क्या? यह कोई स्थायी चीज है? आपके साथ रहनेवाली है? ऐसे जानेवालीको लेकर राजी और नाराज होते हो, सुखी-दु:खी होते हो। यह महान् मूर्खता है। छोटी-मोटी मूर्खता नहीं है, बड़ी भारी मूर्खता है।

‘समदु:खसुख: स्वस्थ:’—जो निरन्तर आत्मभावमें स्थित दु:ख-सुखको समान समझनेवाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्णमें समान भाववाला ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रियको एक-सा माननेवाला और अपनी निन्दा-स्तुतिमें भी समान भाववाला है। जो मान और अपमानमें सम है, मित्र और वैरीके पक्षमें भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भोंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है। (गीता १४। २४-२५) वह गुणातीत आप हो! गुणातीत बनते नहीं हो! बनी हुई गुणातीत अवस्था टिकेगी नहीं। अगर अभ्यासके द्वारा गुणातीत बनोगे तो वह गुणातीत होना कोई कामका नहीं है। आप स्वयं गुणातीत हो! साक्षात् परमात्माके अंश हो! आप अपनेको भूल गये। कितनी अवस्थाएँ बदली हैं! बालक, जवान, वृद्ध-अवस्था, जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति-अवस्था, मान-अपमानकी अवस्था, निन्दा-स्तुतिकी अवस्था, घाटे-नफेकी अवस्था सब बीती है, पर आप वे-के-वे ही रहे। फिर भी आने-जानेवाली चीजोंके साथ हाँ-में-हाँ मिलाकर हँसने और रोने लग जाते हो।

होश आया कि नहीं? आप जरा सोचो। क्या कर रहे हो? अगर ऐसा ही करोगे तो दु:ख पाओगे! दु:ख! दु:ख! दु:ख! याद कर लो। और आज अगर इससे ऊँचे उठ जाओगे तो महान् आनन्द होगा। जो किसी जन्ममें कभी नहीं हुआ, वह आनन्द होगा और सबको हो जायगा। जो ऊँचा उठ जायगा, उसको महान् आनन्द होगा। जिन लोगोंने ऐसा किया है, उनके आनन्द हुआ है, होता है और होगा। होनेकी रीति है। यह बिलकुल हमारे हाथकी बात है, कठिन बात नहीं है। इसमें किसीकी सहायताकी जरूरत नहीं है। सहायता करनेवाले भगवान्, सन्त, महात्मा, धर्म और शास्त्र सब हमारे साथमें हैं, पर सुखी-दु:खीके साथ कोई नहीं है। घरवाले भी नहीं हैं। खास माँ-बाप नहीं हैं। बेटा-बेटी नहीं है, लुगाई (स्त्री) आपके साथमें नहीं है, कोई आपके साथ नहीं है। ऐसी बेइज्जती कराते हो, मनुष्य होकर ऐसी फजीती कराते हो अपनी! राम! राम! राम!

भगवान‍्ने अपनी प्राप्तिका अधिकार दिया। उस अधिकारको लेकर इतना अनर्थ करते हो? क्या दशा होगी। आज सुधर जाय अभी-अभी सुधर सकते हैं। हम इन आने-जानेवाली चीजोंमें सुखी-दु:खी नहीं होंगे, बस। केवल इतनी बात है, लम्बी-चौड़ी है ही नहीं। सुख-दु:ख हो जाता है तो होने दो, कोई पुरानी आदतसे हुआ है, हम नहीं मानेंगे। उठाकर फेंक देंगे हम। आपमें वह ताकत है। आपमें वह सामर्थ्य है। भगवान् भी सहायता देनेके लिये तैयार हैं। साधु, सन्त, महात्मा जितने हैं, सब हमारे पक्षमें हैं। सुखी-दु:खी होते रहेंगे तो कोई हमारे पक्षमें नहीं होगा और तो कौन होगा? आपका शरीर भी साथमें नहीं रहेगा। कोई आपके साथ नहीं। इसमें कोई सन्देह हो तो बोलो। काम, क्रोध, लोभ तभी आते हैं, जब आने-जानेवाली चीजसे आप अपनी उन्नति और अवनति मानते हो। आने-जानेवाली चीजसे अगर सुखी-दु:खी नहीं होते तो काम और क्रोध कैसे आते, बताओ! होशमें आकर बोलो! सिवा आने-जानेवाली चीजके और क्या है ये काम, क्रोध और लोभ!

सच्ची बातके सामने कच्ची बात कैसे टिकेगी? और दु:ख ही पाना है तो, अंगारोंमें हाथ दो। आने और जानेवाली चीजोंसे राजी और नाराज न हो तो कौन-सा दोष रहेगा! है ही नहीं कोई दोष। होशमें आकर बोलो! खास मूल एक ही बात है कि आने-जानेवालोंसे राजी-नाराज न होना। कहते हैं, हमारे मिटता नहीं। बालकके भी मनकी बात नहीं होती तो बालक रो पड़ता है। आपको रोना आता है कि नहीं? आप जैसा चाहते हो, वैसा नहीं होता तो नींद आती है कि नहीं? भूख लगती है कि नहीं? बात सुहाती है कि नहीं? मौजसे जीते हो, खाते-पीते हो, सो जाते हो, तब तो नहीं मिटेगा। और बेचैनी हो जाय तो अभी मिट जायगी। टिक नहीं सकती। बेचैनी वशकी बात नहीं तो रोना तो आपके वशकी बात है कि नहीं! दु:खी होना वशकी बात है कि नहीं? जहाँ वशकी बात नहीं होती तो वहाँ रोता है आदमी। सच्ची है कि झूठी?

अपना वश नहीं चलता, वहाँ रोता है कि नहीं रोता है? आप तो कहते हैं कि रोना वशकी बात नहीं है, पर वास्तवमें रोना बन्द होना वशकी बात नहीं है। बातें बनायी हैं बातें, गहरे उतरे नहीं हो! हमारे वशकी बात न हो और करना चाहते हैं तो सुखी रह सकते हैं क्या? कोई काट नहीं सकता इस बातको। किसीकी ताकत नहीं, जो काट दे! इतनी पक्‍की बात है एकदम सिद्धान्तकी! आप विचार करो, शान्तिसे विचारो। आने-जानेवाली चीजोंसे सुखी-दु:खी मत होवो। आप रहते हो, चीजें आती-जाती हैं, परिस्थितियाँ आती-जाती हैं। आप अलग हो, आने-जानेवाली चीजें अलग हैं और वे एक रूप नहीं रह सकतीं तो राजी-नाराज कैसे रह सकते हो?

नारायण! नारायण!! नारायण!!!

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