कर्म अपने लिये नहीं
८-४-८३ / भीनासर धोरा, बीकानेर
राम राम राम ..............
भगवान्ने कृपा करके मानव-शरीर दिया है। इसका अर्थ यह हुआ कि केवल भगवत्प्राप्तिके लिये ही मनुष्य-शरीरकी रचना की गयी है। इस मनुष्य-शरीरमें आकर अपने लिये कर्म न करे, अपने लिये यह करता है तो उसका इसको पाप और पुण्य दोनों लगते हैं। ठीक काम करता है तो पुण्य लगता है और शास्त्र-निषिद्ध करता है तो पाप लगता है। इन दोनोंसे बचें कैसे? अपने लिये न करें तथा औरोंके लिये करें; क्योंकि यह मनुष्य-शरीर सम्पूर्ण संसारकी सेवा करनेके लिये है। भगवान्ने इसको बड़ा अधिकार दिया है कि मात्र जीव-जन्तुकी यह सेवा करे, मनुष्योंकी यह सेवा करे, ऋषि-मुनियोंकी यह सेवा करे, पितरोंकी यह सेवा करे, देवताओंकी यह सेवा करे और तो क्या भगवान्की भी सेवा करे। भगवान् भी इससे चाहते हैं।
आप थोड़ा ध्यान दें। भगवान्के इतनी भूख है जो अर्जुनको चुपके-से कहते हैं ‘सर्वगुह्यतमं भूय:’ बहुत गोपनीय बात कहता हूँ। जैसे, कोई कानमें बात कहे, ऐसे कहते हैं। मेरे ये परमवचन हैं। क्या हैं महाराज वो? कि ‘सर्वगुह्यतम’ है। सुन, तू प्रेम रखता है इस वास्ते कहता हूँ।’ ‘मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु’ (गीता १८। ६५) बस मेरे ही अर्पण कर, मेरी सेवा कर, सब धर्मोंको छोड़कर मेरे शरण आ जा। इस जीवकी गरज भगवान्को भी है कि ये सेवा करे, मेरी तरफ ही आ जाय। तो सबकी सेवा करनेलायक भगवान्ने इस मनुष्यको बनाया। अपनी खुदकी भी गरज पूरी करनेके लिये भगवान्ने मनुष्यको बनाया। तू मेरी ही सेवा कर, मेरी ही शरण आ जा। तू जो खुद चाहता है, गलती करता है, दरिद्रता करता है, महान् पतनकी तरफ जा रहा है। तू मेरी ही सेवा कर। तेरे जो चिन्ता-फिकर है, वह सब मैं दूर कर दूँगा। तेरी कमीकी चिन्ता तू क्यों करता है? सब चिन्ता मैं दूर कर दूँगा। सब पापोंसे मैं मुक्त कर दूँगा। तू केवल मेरी शरण आ जा। मनुष्यमात्र जीवकी सेवा कर सकता है और साक्षात् भगवान्की सेवा, जो भगवान्की कमी भी पूरी कर दे। जिनमें कमी कोई नहीं है, किंचिन्मात्र भी कमी नहीं है—ऐसे भगवान्की भी पूर्ति यह कर सकता है। ऐसा मनुष्य-शरीर दिया है। अब ये केवल अपने स्वार्थका त्याग करके अपने लिये न करके सब दुनियाके हितके लिये ही काम करने लग जाय। केवल अपना स्वार्थ त्याग कर दे तो इसका कल्याण हो जाय। इसके लिये कुछ नहीं करना है। केवल दूसरोंकी सेवाके लिये काम करें बस। अपने लिये कुछ नहीं करना है। तो कल्याण इसका स्वत: हो जाय, स्वाभाविक हो जाय। ऐसी बात दीखती है, गीताके देखनेसे पता लगता है—
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥
(९।२४)
सम्पूर्ण यज्ञोंका व तपोंका भोक्ता मैं हूँ, और सबका मालिक मैं हूँ, पर मेरेको नहीं जानते इस वास्ते पतन होता है। सब यज्ञों और तपोंका भोक्ता क्यों? कि खाना-पीना, बैठना-उठना, सोना-जगना, चलना-फिरना, यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, उपवास, होम, सत्संग, स्वाध्याय आदि जो करना, केवल दुनिया मात्रके हितके लिये करना है। पाप, अन्याय नहीं करना है, केवल सेवा करना है। जो काम करें, सेवाभावसे ही करें। भगवान्की आज्ञा मानकर करें। भगवान् सब जगह है सज्जनो! इतने मात्रसे सबका कल्याण हो जाय! इतनी बात बहुत विलक्षणतासे जँच रही है।
अभी गीता लिखानेका काम पड़ता है, उसमें मेरेको बहुत विचित्र अर्थ दीखता है। ये सीधी-सी बात, कुछ उद्योग नहीं करना है। भगवत्प्राप्तिके लिये उद्योगकी, कोई नये कामकी जरूरत नहीं है। निषिद्ध काम कोई न करें, विहित काम करें और मात्र दुनियाके हितके लिये करें। तो ‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:॥’—(गीता १२।४) प्राणिमात्रके हितमें केवल रत हो तो मेरेको प्राप्त हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं। किस रूपकी प्राप्ति होगी? तो कहते हैं ‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव’ सगुण रूपकी प्राप्ति कहते हैं और कोई निर्गुण-निराकार ब्रह्मकी प्राप्ति चाहते हो, तो कहते हैं—
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषय: क्षीणकल्मषा:।
छिन्नद्वैधा यतात्मान: सर्वभूतहिते रता:॥
(गीता ५।२५)
प्राणिमात्रके हितमें रति करनी है और कुछ नहीं करना है, केवल सेवा करनी है। केवल इतना ही कि जो काम करें, खाना-पीना, सोना-उठना, जप-तप-ध्यान, तीर्थ-समाधि आदि करना, केवल सबकी सेवा करनेके लिये। इस भावसे इतनी ही बात है।
ध्यान देकर आपलोग सुनें, बहुत मार्मिक बात है, आप खयाल कम करते हैं; क्योंकि मैंने खयाल कम किया है, इस वास्ते मैं जानता हूँ। खयाल कम करता है आदमी। यह मेरेपर ही लगाता है।
केवल अपने स्वार्थका त्याग और दूसरोंके हितके लिये काम करना है। अपने लिये कुछ भी काम हम करते हैं तो उस कामका आरम्भ होता है और उस कामकी समाप्ति होती है। आदि और अन्त होता है तो उससे मिलनेवाला फल है, वो निरन्तर रहनेवाला कैसे मिलेगा? आदि और अन्तवाला ही मिलेगा। हम अपने लिये कुछ करेंगे तो आदि और अन्तवाला ही फल मिलेगा। आदि-अन्तवाली क्रिया होगी और आदि-अन्तवाला ही फल मिलेगा।
और दूसरोंके हितके लिये ही काम करेंगे, तो ये आदि-अन्तवाला नहीं रहेगा, हमारे लिये आदि-अन्त है ही नहीं, क्योंकि हम तो निरन्तर करते हैं, दूसरोंके लिये ही करते हैं। उसमें भी करनेकी क्रियाका आदि और अन्त तो होगा। आदि और अन्त तो होगा ही, दूसरोंके लिये करनेमें भी; परन्तु ‘सर्वभूतहिते रता:’ प्राणिमात्रके हितमें जो रति है उसका आदि और अन्त नहीं होता है। क्रिया कुछ भी करो, उसका आदि और अन्त होगा, पर केवल दूसरोंके हितकी भावना है उसका क्या आदि और अन्त होगा, बताओ। अनन्त होगा इसका फल! कल्याण होगा। इतनी विलक्षण बात है!
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:॥
(गीता १८।४८)
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥
(गीता १८।६०)
यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव:॥
(गीता १८।४६)
केवल अपने कर्मोंसे पूजन करना है भगवान् का। सबकी सेवा करनी है, हमारे लिये कुछ नहीं करना है। तो इसके लिये कुछ भी करनेकी जरूरत नहीं है। इससे इसका कल्याण हो जायगा। इसमें एक मार्मिक बात है, आप ध्यान दें, गहरी बात है—यह स्वयं भगवान्का अंश है और भगवान् हैं सच्चिदानन्द, सत्-चित्-आनन्द स्वरूप। ‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥’ ध्यान देना उस चेतनका अंश है ये। यह चेतन है, शुद्ध है, सहज सुखराशि है। इसके लिये कुछ भी करनेकी जरूरत नहीं है। फिर सुनो—‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥’ तो करना क्या रहा इसके बाकी! सहज सुखराशि है। करनेमें जितना ये प्राप्त करना चाहेगा कि मैं प्राप्त कर लूँगा तो वह आदि और अन्तवाला होगा और जन्म-मरण देनेवाला होगा। शुभ हो चाहे अशुभ हो, कोई काम हो। यह चेतन अमल सहज सुख राशि है और सत् स्वरूप है, उसमें कोई क्रिया नहीं है। स्वत:सिद्ध है, शान्तस्वरूप। इसके लिये करना है ही नहीं। करनेकी उसपर जिम्मेवारी नहीं है। करनेकी जिम्मेवारी दोपर रहती है, एक तो वह जो कुछ कर सकता है तो करनेकी जिम्मवारी होती है। एक जिनके कुछ चाहिये तो जिम्मेवारी रहती है।
ध्यान देना मार्मिक बात है हमारी! बहुत विलक्षण बात है! मैं विशेष प्रशंसा करता हूँ। आप तमाशा-खेल नहीं समझें कि इसकी आदत है, यों ही कहता है! ऐसे ही नहीं कहता हूँ। ऐसी बात कहता हूँ कि मेरेको बहुत वर्ष सुनाते हुए हो गये। कितने वर्ष हो गये हैं। १९७९ विक्रम संवत् से अभी २०४० तक ६०-६१ वर्षोंसे सुनाता हूँ। ६१ वर्ष सुनाते हुए हो गये हैं मेरेको। यह इस वास्ते आपको कहता हूँ कि आप विशेष ध्यान दें। करना होता है दो आदमियोंके लिये, एक जो कर सकता है, उसपर करनेकी जिम्मेवारी होती है। मालपर जगात लगती है। इन्कमपर टेक्स लगता है। मुनाफा किया ही नहीं तो टेक्स किस बातका? तो ये जो स्वयं चेतन है, इसके लिये कहते हैं कि करना नहीं बनता है। यह खयाल करनेकी बात है, स्वयं चेतन है। इसके द्वारा कुछ हो ही नहीं सकता, अकर्ता है यह। यह जब कुछ करेगा तो संसारके सम्बन्धसे करेगा। मन है, बुद्धि है, अहंता है, इन्द्रियाँ हैं, शरीर है, प्राण है, प्रकृतिका कोई-न-कोई कार्य यह साथ लेगा तब इसमें कर्तापन आयेगा। प्रकृतिके सम्बन्ध बिना इसमें स्वयंमें कर्तापन नहीं है।
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश:।
य: पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति॥
(गीता १३।२९)
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥
(गीता ३।२७)
मूढ मानता है कि मैं कर्ता हूँ, पर कर्तृत्व स्वयं चेतनमें नहीं है। जब कर्तृत्व नहीं है तो करनेकी जिम्मेवारी नहीं है इसपर, क्या समझे? कर सकता है, तब करनेकी जिम्मेवारी होती है। जब स्वयं कुछ नहीं करता है तो खुदपर करनेकी जिम्मेवारी है ही नहीं। प्रकृतिको साथ लेता है तो कर्तापन साथ आता है और करनेकी जिम्मेवारी भी आती है तो वो किसको लेकर केवल प्रकृतिको लेकर करनेकी जिम्मेवारी हुई तो केवल प्रकृतिकी सिद्धिके लिये और प्राकृत संसारके लिये करना हुआ। अपने लिये करना हुआ ही नहीं। खयाल किया कि नहीं? भाई! यह बहुत मार्मिक बात है।
सब धर्मोंको छोड़कर तू मेरी शरण आ जा तेरेको कुछ नहीं करना होगा तो इसके करना कुछ नहीं है; क्योंकि स्वयंमें कर्तृत्व नहीं है। इस वास्ते करनेकी इसपर जिम्मेवारी है ही नहीं। जिम्मेवारी तब होती है, जब यह प्रकृतिकी वस्तुको स्वीकार करता है। शरीर है, प्राण है, मन है, बुद्धि है, इन्द्रियाँ हैं, मैं-मैंपन है—इनको स्वीकार करता है, तब करनेकी जिम्मेवारी आती है; क्योंकि करनेकी सामग्री इसने स्वीकार कर ली, इस वास्ते करना होता है। वो सामग्री प्रकृतिसे मिली तो प्रकृतिजन्य संसारके लिये ही करना है, अपने लिये करना है ही नहीं, क्योंकि अपने शुद्ध स्वरूपमें करना है नहीं। दो आदमियोंके लिये करना होता है किनके लिये? जो कर सकता है, उसके लिये करनेकी जिम्मेवारी होती है और जो स्वयं चाहता है, उसके लिये करना पड़ता है। यह चाहता है तो करो भाई, काम करो। इसमें खुदमें चाहना नहीं है, क्योंकि यह पूर्ण है।
‘नाभावो विद्यते सत:’ सत् वस्तुका अभाव नहीं होता। ये सत् स्वरूप है तो इसमें अभाव बिना कामना कैसे होगी? कामना कुछ-न-कुछ कमी होनेसे ही होती है न? उस कमीकी पूर्तिके लिये। पर यह चेतन है, शुद्ध है, सहज सुख-राशि है। चाहना तो उसमें सुखके लिये होती है न? सहज सुख-राशि, उसके सुखकी चाहना है ही नहीं। इसे कुछ करना है ही नहीं। स्वरूपमें करना नहीं है और चाहना नहीं है करना इसमें बन नहीं सकता। इस वास्ते खुदके लिये कुछ नहीं करना है, केवल दुनियाके हितके लिये करना है; क्योंकि दुनियासे शरीर मिला है। यह शरीर अपना नहीं है। यह जो दुनिया दीखती है, इस दुनियाका यह अंश है छोटा-सा।
‘छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम सरीरा॥’ ‘यह दुनियाका अंश है, दुनियासे पैदा हुआ है, दुनियासे ही पला है, दुनियामें ही रहता है, इस वास्ते इसको जो कुछ भी करना है, वह दुनियाके हितके लिये ही करना है और दुनियाके अहितके लिये करे तो बहुत बड़ी गलती की बात है। केवल सेवारूपसे दुनियाके लिये करना है। अपने लिये करना है ही नहीं, सबके हितके लिये करना है—क्योंकि सबसे चीज मिली है। सबसे मिली हुई चीजको, शरीरको अपना कह देते हो—यह गलती है। अगर शरीर मेरा है तो पांच भौतिकमात्र सृष्टि मेरी है और पांचभौतिक सृष्टि मेरी नहीं तो शरीर मेरा कैसे? शरीरकी और सृष्टिकी एक जाति है। आप अलग सिद्ध कर सकते हो क्या कि यह शरीर संसारसे अलग है? अलग है ही नहीं। स्थूल, सूक्ष्म, और कारण तीनों, शरीर स्थूल, सूक्ष्म और कारण संसारके साथ एक है इनमेंसे एक शरीरको अपना मानना गलती है! उनके लिये ही मानकर उनकी सेवा करनी है।
जैसे कोई ऑफिसमें जाता है, वहाँ बैठता है तो कुर्सी भी वहीं है, टेबल भी वहीं है, दवात भी वहीं, कलम भी वहीं, रजिस्टर भी वहीं है। वहाँ ही बैठकर वहाँका काम कर देता है। खाली हाथ ही जाता है और खाली हाथ ही उठकर आ जाता है। ऐसे ही यहाँ आये हो, यहाँ सामग्री मिली है। केवल यहाँके लिये काम कर देना है, उठकर फिर चल देना है। अपने लिये करना है ही नहीं। मात्र दुनियाके लिये करना है। भजन करो, जप करो, कीर्तन करो, ध्यान करो, समाधि करो। सब-की-सब ही करनी केवल दुनियाके हितके लिये ‘सर्वभूतहिते रता:’ प्राणिमात्रके हितमें प्रीति होनी चाहिये भीतरसे। इसलिये सब काम करना है। तो ये कर्मोंका प्रवाह सब-का-सब संसारकी तरफ हो जायगा। आपका चेतन आनन्दस्वरूप स्वत:सिद्ध रह जायगा; क्योंकि कर्मका सब प्रवाह संसारकी तरफ हुआ। अपनी तरफ कर्मोंका प्रवाह करता है तब बन्धन होता है।
मुक्ति स्वत:सिद्ध है। देखो! एक सिद्धान्त बताता हूँ। दो बात है उसमें मुक्ति ‘बद्ध’ की होती है और मुक्ति ‘मुक्त’ की होती है। ध्यान देना! जो स्वरूपसे बद्ध हो, उसकी मुक्ति नहीं हो सकती। समझे! स्वरूपसे बद्धकी कैसे मुक्ति हो जायगी? वह बन्धनसे अलग कैसे हो जायगा और जिसके बन्धन है ही नहीं तो मुक्ति कैसे होगी? तो दूसरी चीजको अपनी मानी, यही बन्धन हुआ और दूसरी चीजको अपनी नहीं मानी तो मुक्ति हो गयी। तो मुक्ति मुक्त पुरुषकी होती है और मुक्ति ‘बद्ध’ की होती है। ‘बद्ध’ वही होता है, जो दूजी चीजको ले लेता है। दूजी चीजको दे दी तो मुक्ति हो गयी। तो मुक्ति ‘मुक्त’ की भी नहीं होती है और ‘बद्ध’ की भी नहीं होती। वास्तवमें ‘बद्ध’ की होती है और ‘मुक्त’ की होती है। ठीक है न?
बन्धन क्या है? कि उस चीजको अपनी मान ली और अपने लिये मान ली—यही है बन्धन! और अपनी नहीं, अपने लिये नहीं—यही है मुक्ति! भक्ति क्या है? भगवान्के सम्मुख न होना अभक्त हुआ। भगवान्से विभक्त हुआ तो अभक्त हुआ और भगवान्के सम्मुख हुआ तो भक्ति हुई। तो भगवान्का हूँ और भगवान्का भजन करना है ऐसा भाव होते ही वह भक्त हो गया। भक्ति और मुक्तिके लिये करना कुछ नहीं है। संसार—शरीर मैं नहीं, संसार मेरा नहीं। मैं भगवान्का हूँ, भगवान् मेरे हैं। बेड़ा पार। संसार मैं नहीं, संसार मेरा नहीं यह हुई मुक्ति और भगवान् मेरे, मैं भगवान्का हूँ—यह है भक्ति। ‘कृतकृत्यश्च भारत’ कुछ करना बाकी नहीं रहा। सर्वथा पूर्ण-का-पूर्ण! कितनी श्रेष्ठ बात है! यह सार बात है।
नारायण! नारायण!! नारायण!!!