Hindu text bookगीता गंगा
होम > भगवत्प्राप्ति सहज है > मुक्ति सहज है

॥ श्रीहरि:॥

मुक्ति सहज है

१६-४-८३ / भीनासर धोरा, बीकानेर

देखो, वस्तु, व्यक्ति और क्रिया—ये तीन चीजें दीखनेमें आती हैं। इनमें वस्तु और क्रिया—ये दोनों प्रकृति हैं और व्यक्तिरूपमें जो दीखता है, यह शरीर भी प्रकृति ही है; परन्तु इसके भीतरमें जो न बदलनेवाला है, यह परमात्माका अंश है। अब अगर ‘यह’ वस्तु, क्रिया और व्यक्तिमें नहीं उलझे, तो यह स्वाभाविक ही मुक्त है; क्योंकि ‘यह’ परमात्माका साक्षात् अंश है। इसके लिये कहा है—‘चेतन अमल सहज सुख रासी’—यह चेतन है, शुद्ध है, मलरहित है और सहज सुखराशि है, महान् आनन्दराशि है। यह महान् आनन्दराशि अपने स्वरूपकी तरफ ध्यान न दे करके संसारके सम्बन्धसे सुख चाहने लग गया। इससे यही भूल हुई है। यह संयोगजन्य सुखमें फँस गया। जैसे, धन मिले तो सुख हो, भोजन मिले तो सुख हो, भोग मिले तो सुख हो, कपड़ा, वस्तु, आदर, मान-सत्कार मिले तो सुख हो। यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि स्वयं नित्य-निरन्तर रहनेवाला है। ‘सहज सुख रासी’ स्वाभाविक ही सुखराशि है; परन्तु इसमें यह वहम पड़ गया है कि संसारके पदार्थ मिलनेसे सुख होगा। यह बिछुड़ेगा जरूर ही ‘संयोगा विप्रयोगान्ता:’ जितने संयोग होते हैं उनका अन्तमें वियोग होता है तो सम्बन्धसे होनेवाला सुख रहेगा कैसे? मनुष्य यह विचार नहीं करता है कि आज दिनतक संयोगसे जितने सुख लिये थे वे आज नहीं रहे। संयोगसे होनेवाले सुखका नमूना तो देख ही लिया; लेकिन अब भी चेत नहीं करते फिर और चाहते हैं कि संयोगसे सुख ले लें।

जबतक बाहरके संयोगसे संसारके सम्बन्धसे सुख लेगा,तबतक इसको वास्तविक सुख नहीं मिलेगा ‘बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा’ बाह्य सुख (संयोगजन्य सुख)-में आसक्त नहीं होगा तो ‘विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्’ उस विलक्षण सुखको आप-से-आप प्राप्त हो जायगा। संसारके सम्बन्धसे सुख लेनेसे इसका वास्तविक सुख गुम हो गया। वह सुख मिटा नहीं है; परन्तु यह उस सुखसे वियुक्त हो गया। जिनको वह सुख मिल गया वे आनन्दित हो गये। उनके कभी सांसारिक सुखकी इच्छा ही नहीं रहती; क्योंकि उनको जो वास्तविक सुख मिला, आनन्द मिला उसके समान कोई दूसरा सुख है नहीं। यह स्वयं सुखराशि होकर संयोगजन्य सुख चाहता है, सांसारिक सुखमें राजी होता है—यह बड़े भारी आश्चर्यकी बात है। मिलनेवाले व बिछुड़नेवाले सुखमें राजी होता है। आप ‘स्वयं’ रहनेवाले हैं और यह सुख आने-जानेवाला है तो इस सुखसे कैसे काम चलेगा?

आप रहनेवाले और आपके भीतर परमात्मा रहनेवाले हैं। रहनेवाले परमात्माके साथ रह जाओ तो सदाके लिये सुख मिल जाय। वह सुख कभी मिटेगा नहीं। उत्पन्न और नष्ट होनेवाले शरीरके साथ तथा संयोग और वियोग होनेवाले पदार्थोंसे सुख लेगा तो वह सुख कितना दिन रहेगा? संतोंने कहा कि ‘ऐसी मूढ़ता या मनकी’ ऐसी मूढ़ता है इस मनकी। ‘परिहरि राम-भगति सुर-सरिता’ भगवान‍्की भक्ति गंगाजी है उसको छोड़ करके ‘आस करत ओस कनकी’ रात्रिमें ओस पड़ती है, घासकी पत्तीपर जलकी बूँदे चमकती हैं उस ओस-कणसे तृप्ति करना चाहता है। तात्पर्य हुआ भगवान‍्की भक्तिरूपी गंगाजी बह रही है उसको छोड़ करके ओस-कणके समान—धनसे सुख मिल जाय, स्त्रीसे सुख मिल जाय, पुत्रसे सुख मिल जाय, मानसे सुख मिल जाय, बड़ाईसे सुख मिल जाय, नीरोगतासे सुख मिल जाय, आदि संयोगोंसे सुखको चाहता है। इन पदार्थोंमें सुख ढूँढ़ता है, इनके पीछे भटकता है—ये तो ओसकी बूँदें हैं भाई! तरह-तरहकी चमकती हैं। थोड़ा-सा सूर्य चढ़ा कि खत्म हो जायँगी, सूख जायँगी तो इनसे तृप्ति कैसे हो जायगी? ओसके कणोंसे प्यास कैसे बुझेगी? ‘ऐसी मूढ़ता या मनकी’ तो भाई! सच्चा सुख चाहते हो तो उन परमात्माकी तरफ चलो, उनके साथ सम्बन्ध मानो।

जैसे कोयला काला होता है तो वह काला कब हुआ? अग्निसे अलग हुआ तब काला हुआ। अग्निमें रहते हुए तो वह चमकता था परन्तु अलग हुआ तो काला हो गया। अब इसे कोई धोवे, साफ करे तो इसका कालापन साफ नहीं होता। इसके लिये आता है—‘कोयला हो नहीं उजला सौ मन साबुन लगाय।’ सौ मन साबुन लगानेपर भी उजला नहीं होता तो कैसे हो! कि यह जिसका अंश है, जिससे यह अलग हुआ है, उसी आगमें रख दिया जाय तो चमक उठेगा। पर आगका अंगार लेकर लाईन खींची जाय तो वह भी काली खींची जायगी; क्योंकि वह भी आगसे अलग हो गया। ऐसे यह जीव परमात्मासे अलग हुआ तब काला हुआ। अब उस कालेपनको धोनेके लिये साबुन लगाता है कि धन हो जाय, मान हो जाय, बड़ाई हो जाय, आदर हो जाय तो हम सुखी हो जायँगे। इससे सुख नहीं होगा तो किससे सुख होगा? यह अपने अंशी परमात्माको अपना मान लेगा तो सुखी हो जायगा, चमक उठेगा।

आप थोड़ा-सा विचार करो तो पता चले कि लाखों-अरबों मनुष्योंमेंसे दो-चार मनुष्य भी सुखी हो गये क्या? धनसे, मानसे, बड़ाईसे, बड़े-बड़े मिनिस्टरी जिनके पास हैं, वे सुखी हो गये हैं क्या? बड़े-बड़े धनियोंसे, बड़े-बड़े विद्वानोंसे आप एकान्तमें मिलो कि आप सुखी हो गये हैं क्या? आपको कोई दु:ख तो नहीं है। जो सच्चे हृदयसे परमात्मामें लगे हैं उनको भी पूछो। तब आपको वास्तविकताका पता लग जायगा। जो ‘बाह्यस्पर्श’ हैं वे तो दु:खोंके कारण हैं। असली सुखकी प्राप्तिके लिये क्या करें? भगवान‍्को पुकारो ‘हे नाथ! हे नाथ! हम तो भूल गये महाराज!’ भगवान‍्को याद दिला दो तो भगवान् कृपा कर देंगे फिर मौज हो जायगी।

‘सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥’
(गीता ५।२९)

प्राणिमात्रके सुहृद् परमात्माके रहते हुए हम दु:ख पावें बड़े आश्चर्यकी बात है। महान् आनन्दस्वरूप वे परमात्मा हमारे खुदके हैं कैसी मौजकी बात है। पर यह अपने परमात्माको छोड़कर परायोंसे प्रेम करता है। बच्चे आपसमें खेलते हुए जब कोई किसीको मार-पीट करता है, तब दौड़ करके माँके पास आता है तो माँकी गोदमें ही रहो ना! मौजसे, आनन्दसे! क्यों बाहर जावे? ऐसे ही यह जीव भगवान‍्से विमुख होकर दु:ख पाता है। इस वास्ते नाशवान‍्से विमुख हो जाय, क्योंकि भाई! यह तो ठहरनेवाला है नहीं। सन्तोंने कहा है—

चाख चाख सब छाड़िया माया रस खारा हो।
नाम सुधा रस पीजिये छिन बारम्बारा हो॥

हमने तो यह सब चख लिया, पर मायाका रस खारा है। मीठा तो भगवान‍्का नाम है। नाम लेकर पुकारो। हृदयसे पुकारो, ‘हे नाथ! हे नाथ! हे प्रभो!’ ऐसे प्रभुको पुकारो तो निहाल हो जाओगे। ‘शरणे आय बहुत सुख पायो’ इस प्रकार सन्तोंने कहा है। प्रभुके चरणोंके शरण होनेमें बड़ा सुख है। असली सुख है। असली सुखसे वंचित क्यों रहते हो? सबके लिये खुला पड़ा है यह नामका खजाना। कैसा ही मनुष्य क्यों न हो? ‘अपि चेत्सुदुराचार:’ पापी-से-पापी भी, दुष्ट-से-दुष्ट भी भगवान‍्के सन्मुख हो जाय।

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥

करोड़ों जन्मोंके पाप नष्ट हो जायँ, क्योंकि पाप सब आगन्तुक हैं और तुम परमात्माके हो। इस वास्ते परमात्माके हो जाओ। संसारकी सब चीजें मिट रही हैं अब उनको पकड़कर सुखी रहना चाहते हैं। तुम खुद रहनेवाले और यह सदा मिटनेवाला तो मिटनेवालेसे कबतक काम चलाओगे? सोचते नहीं, विचार नहीं करते कि ऐसा सुख ले-लेकर कबतक काम चलाओगे भाई! घरमें धान्य होता है तब तो रोजाना रोटी बनाओ मौजसे; परन्तु दूसरोंसे ले करके थोड़ा किसीसे लिया, थोड़ा किसीसे लिया, ऐसे काम कबतक चलेगा?

सुख लेते समय यह तो सोचो कि लेकर करोगे क्या? जिस शरीरके सुखके लिये तुम लेते हो वह शरीर तो प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है बेचारा! इसके लिये सुख पाना चाहते हो। बड़े आश्चर्यकी बात है! वहम यह हो रहा है कि हम जी रहे हैं। सच्ची बात है कि हम मर रहे हैं, पर ऐसा कह दें किसीको तो नाराज हो जाय कि हमें मरनेकी बात कह दी। अरे भाई! असली बात है कि हम हरदम मर रहे हैं। कल इस समय जितनी उम्र थी अब उतनी नहीं है। २४ घंटे उम्र कम हो गयी। मृत्युका दिन २४ घंटे नजदीक आ गया और यूँ आते-आते चट आ जायगा वह दिन। वह दिन पता नहीं है कब आ जाय।

‘मारहिं काल अचान चपेटकी होय घड़ीकमें राखकी ढेरी।’ वह दिन अचानक आ जायगा। कहाँ बैठे हो? आप और हम मृत्युलोकमें बैठे हैं। यहाँ सब मरनेवाले, मरनेवाले ही रहते हैं। मरनेवालोंकी जमात है। कोई रहनेवाला दीखता है क्या आपको? फिर आप अकेले कैसे रह जाओगे भाई! सन्तोंने कहा है—

कोई आज गया कोई काल गया
कोई जावनहार तैयार खड़ा।
नहीं कायम कोई मुकाम यहाँ चिरकालसे ये ही रिवाज रही॥

यहाँकी रिवाज यही रही है। अब रिवाज कैसे मिटा दोगे? अनादिकालसे ऐसी रीति चली आ रही है।

इस वास्ते सन्तोंने कहा—

घर घर लाग्यो लायणो घर घर दाह पुकार।
जन हरिया घर आपणों राखे सो हुशियार॥

क्या कृपा की है सन्तोंने! आग लग जाती है न, घरोंमें! उसे मारवाड़ी भाषामें ‘लायणो लाग्यो’ कहते हैं। आग लग गयी। घर-घर आग लगी हुई है। ये शरीर हैं, ये सब मौतरूपी ‘आग’ में जल रहे हैं। जैसे लकड़ी आगमें जलती है। ज्यों जलती है त्यों ही कम होती जाती है। ऐसे ही ये शरीर कालरूपी आगमें जल रहे हैं, उमर कम हो रही है। परन्तु दीखते हैं साबत। लकड़ी भी दीखती है साबत, पर जल रही है, कम हो रही है। ऐसे ही ये शरीर कालरूपी आगमें जल रहे हैं, भस्म हो रहे हैं तो ‘घर घर लाग्यो लायणो घर घर दाह पुकार’ दाह हो रही है, पुकार हो रही है। ‘जन हरिया घर आपणों राखे सो हुशियार’ कैसे रखे? कि भगवान‍्के सन्मुख हो जाय, प्रभुको पुकारें फिर मौज हो जाय, आनन्द हो जाय।

जिन सन्तोंके जीनेसे बहुत लोगोंका उद्धार हो जाय, जिनका नाम लेकर लोग सुखी हो जायँ, याद करके खुशी हो जायँ। ऐसे जितने सन्त हुए हैं उनकी वाणी याद करो। उसके अनुसार जीवन बनाओ तो निहाल हो जाओगे, कारण कि उन्होंने रास्ता सुलटा ले लिया। इस वास्ते वे ठेट पहुँच गये। आज दौड़ते तो सभी हैं, पर अन्धे होकर चलते हैं। नाशवान‍्की तरफ चलते हैं। अरे! अविनाशीकी तरफ चलो भाई! नाशवान‍्की तरफ चलनेसे अविनाशी तत्त्व कैसे मिलेगा? उत्पन्न-नष्ट होनेवाले पदार्थोंके पीछे पड़े हैं। इनसे निर्वाहमात्र कर लें। लेकिन भीतरसे यह ध्यान नहीं होना चाहिये कि पदार्थ ले लें, भोग ले लें, सुख ले लें। कुछ नहीं मिलेगा। उमर खत्म हो जायगी। समय बरबाद हो जायगा, पीछे पछताना होगा।

सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ॥

भाई! संसारकी तरफ न जा करके भगवान‍्की तरफ चलो। आजतक बहुत उमर चली गयी, बहुत समय चला गया, अब भी जा रहा है। प्रभुको पुकारो, ‘हे नाथ! हे नाथ!! हे नाथ!!!’ भगवान‍्के नामका जप करो रात-दिन। संसारमें उपकार करो, सेवा करो। तनसे, मनसे, वचनसे, धनसे जो शक्ति, सामर्थ्य एवं योग्यता है। ये संसारकी चीज संसारको दे दो। यही मुक्ति है। आनन्द हो गया, मौज हो गयी। शरीर मात्र संसारका और ये स्वयं मात्र परमात्माका। शरीर संसारको सौंप दें और अपने-आपको, स्वयंको परमात्माको सौंप दें तो सब ठीक हो जायगा। मुक्ति सहज ही हो जायगी।

नारायण! नारायण!! नारायण!!!

अगला लेख  > भगवान‍्से सम्बन्ध