Hindu text bookगीता गंगा
होम > भगवत्प्राप्ति सहज है > साधन विषयक दो दृष्टियाँ

साधन विषयक दो दृष्टियाँ

१९-३-८३ / भीनासर धोरा, बीकानेर

साधकको चाहिये कि वह अपनी अवस्थाकी तरफ देखे ही नहीं, केवल साधनमें तत्परतासे लगा रहे। एक तो यह दृष्टि है और दूसरी दृष्टि यह है कि हमारा कितना सुधार हुआ और कितना बाकी रहा? ऐसा विचार करके चलता रहे। इन दोनोंमें विरोध मालूम देता है, विरोध है भी। जब अपनेको सन्देह हो, तब कितना सुधार हुआ और कितना नहीं हुआ, यह देखना आवश्यक है। जहाँ सुधार नहीं हुआ है, उधर ही दृष्टि डालनी चाहिये। इतना हो गया, ऐसा करके सन्तोष नहीं करना चाहिये और जो बाकी रह गया है, उसके लिये घबराना नहीं चाहिये। उत्साहपूर्वक काम करना चाहिये। अपनेको तत्परतासे कर्तव्यकर्म-साधनमें लगाये रखे। जैसे गीताने कहा है—‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ कर्तव्यकर्म करनेमें ही अधिकार है फलमें कभी नहीं। इस वास्ते कर्मके फलका हेतु भी मत बन और अकर्मण्यतामें भी आसक्ति न हो। यह बहुत श्रेष्ठ और ऊँची बात है।

मेरा साधन इतना ही बना, ऐसी ऊँची स्थिति मेरी नहीं हुई है। इस प्रकार देखनेसे एक बड़ी भारी गलती होती है। वह यह होती है कि अपने शरीर, इन्द्रियाँ, अन्त:करणपर ममता हो जाती है। अहंता और ममता जिनका त्याग करना है, उनका त्याग न होकर अहंता-ममता दृढ़ हो जाती है। नहीं तो अपने अन्त:करण और शरीर, इन्द्रियोंमें ही क्यों खोज करता है? खोज करनी है तो सब जगह करे। सब जगह नहीं करे तो एक जगह क्यों करता है? एक जगह खोज करनेसे इनकी ममता बनी रहती है और ममता जबतक बनी रहती है, तबतक साधन बढ़िया नहीं होता। ममता और अहंता ही बाधक हैं। इस वास्ते साधन कितना हुआ और कितना नहीं हुआ? यह खयाल ही नहीं करे। अपने तो एक परमात्म-तत्त्वमें ही लगा रहे। अपनी स्थिति देखते रहनेसे अहंता, ममता, परिच्छिन्नता, एकदेशीयपना यह मिटेगा नहीं। जबतक यह नहीं मिटेगा, तबतक वास्तविक स्थिति होगी नहीं। इस वास्ते अपने तो बस देखे ही नहीं कि कितना बना, कितना नहीं बना! अपने द्वारा कोई गलती तो नहीं हो रही है न? शास्त्रसे, मर्यादासे विरुद्ध तो नहीं कर रहा हूँ। इतना खयाल रखते हुए ठीक तरहसे करता रहे।

मनुष्य प्राय: करके अपनी वृत्तियोंकी तरफ देखता है कि हमारी वृत्तियाँ शुद्ध नहीं हुईं। अभी तो फुरणा नहीं मिटी, हमारे तो राग-द्वेष नहीं मिटे, मनकी चंचलता नहीं मिटी। ऐसा देखनेसे एक बड़ी गलती होती है कि वह अन्त:करणकी स्थितिको अपनी स्थिति मानता है। वास्तवमें अन्त:करणकी स्थिति अपनी स्थिति नहीं है। अपनेको तो अन्त:करणसे सम्बन्ध-विच्छेद करना है। अन्त:करणकी वृत्तियाँ ठीक हों, तब तो ठीक हुआ और वृत्तियाँ ठीक नहीं हैं तो बेठीक हुआ—यह मानना गलती है। कारण कि अन्त:करणकी वृत्तियाँ तो बदलती रहती हैं। बहुत ऊँची अवस्था होनेपर भी बदलती हैं और ऊँची अवस्था होनेपर ही नहीं, सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर अर्थात् तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त हो जानेपर भी पुरुषके अन्त:करणकी वृत्तियाँ तो बदलती रहेंगी। हाँ, उनकी वृत्तिमें निषिद्ध फुरणा नहीं होगी। शास्त्र-विपरीत कोई चेष्टा नहीं होगी; परन्तु अन्त:करणकी वृत्तियाँ तो बदलेंगी ही। बदलना तो इनका स्वभाव है। बदलनेवालेसे अपनेको सम्बन्ध-विच्छेद करना है। इस तरफ ही खयाल करें कि इससे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। यह अच्छी हो, मन्दी हो, अपनेको वृत्तियोंसे कोई मतलब नहीं। हमें इससे कोई लेना-देना नहीं। वृत्तियाँ होती हैं तो अन्त:करणमें होती हैं, ठीक-बेठीक होती हैं तो अन्त:करणमें होती हैं, अन्त:करण मैं नहीं हूँ।

‘समदु:खसुख: स्वस्थ:’ ‘स्व’ में स्थित रहे। अपनेमें कोई विकार नहीं है। एक सच्चिदानन्दघन है ज्यों-का-त्यों है। आप तो वही रहते हो, ऊपरसे भाव बदलता है, क्रिया बदलती है, अवस्था बदलती है, दशा बदलती है, परिस्थिति बदलती है, घटना बदलती है; परन्तु इन सम्पूर्ण बदलनेको देखनेवाले आप तो नहीं बदलते हो। अपनेमें परिवर्तन कहाँ होता है? अपनेमें अगर परिवर्तन होता तो अवस्थाओंका भेद कैसे मालूम होता है? अवस्थाओंमें भेद तो उसको मालूम होगा, जो अवस्थाओंमें स्थित नहीं है, अवस्थाओंसे अलग है, उसीको भेद मालूम देगा। जो अलग है, उसमें कोई भेद नहीं मालूम होता। परिवर्तन प्रकृति और प्रकृतिके कार्यमें होता है, वह परिवर्तन हरदम होता ही रहता है। वह परिवर्तन मिटेगा नहीं। अपने साथ इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसा अनुभव करनेसे ही वास्तवमें अपना काम होगा।

इसीको गीतामें कहा है—‘गुणविभाग और कर्मविभागके तत्त्वको जाननेवाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता’ (गीता ३।२८) और ‘जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मोंको सब प्रकारसे प्रकृतिके द्वारा ही किये जाते हुए देखता है वही यथार्थ देखता है’ (गीता १३।२९)। ‘जिस समय द्रष्टा तीनों गुणोंके अतिरिक्त किसीको कर्ता नहीं देखता’ (गीता १४।१९)। ‘तत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी निस्सन्देह ऐसा माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’ (गीता५।८)। सम्पूर्ण क्रियाएँ होते हुए भी अपना कोई सम्बन्ध नहीं है, इनके साथ। ‘गुणोंका संग ही ऊँच-नीच योनियोंमें जन्मका कारण है’ (गीता १३।२१)। वह अपना किया हुआ है और अपने मिटानेसे ही मिटेगा, मिटानेका दायित्व अपनेपर ही है। जबतक इसके साथ सम्बन्ध मानता रहेगा, ठीक और बेठीक मानता रहेगा, तबतक सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होगा।

प्रश्न—अन्त:करणकी निर्मलता लक्ष्य नहीं है क्या?

उत्तर—अन्त:करणकी निर्मलता वास्तवमें स्वयंकी कसौटी नहीं है। अन्त:करणकी निर्मलता और अन्त:करणकी मलिनता—ये दोनों दृश्य हैं। मलिनता भी दृश्य है और निर्मलता भी दृश्य है। स्वयं द्रष्टा है, इस वास्ते इन्हें दृश्य समझकर अपनेको अलग मानेगा तो इनकी बहुत जल्दी शुद्धि हो जायगी। इनकी शुद्धिपर ज्यादा ध्यान देगा तो जल्दी शुद्धि नहीं होगी। ममता मिटेगी नहीं। ममता ही मल है ‘ममता मल जरि जाय।’ साधक इस बातको ठीक समझता है, यह सिद्धान्त भी अच्छा समझता है; परन्तु ऐसे खयाल नहीं होता है कि ऐसे देखनेसे ममता दृढ़ होती है। इस कारण विशेष ध्यान देता है कि देखो, मेरी वृत्तियाँ ठीक नहीं हुईं। वृत्तियाँ तो एक-सी रहती ही नहीं कभी। बदलनेका आपको ज्ञान होता है, बदलना आपसे अलग होता है, वह दृश्य है और आप दृष्टि हो। बदलनेवाली चीज आपके जाननेमें आती है, फिर उसको अपना क्यों मानते हो?

थोड़ी बारीक बात है, पर बढ़िया बात है कि जीवन्मुक्ति स्वत: ही है। जो स्वाभाविक मुक्त होता है, वही मुक्त हो सकता है, बद्ध मुक्त नहीं हो सकता। बद्ध होता है, वही मुक्त होगा, मुक्त है वह क्या मुक्त होगा? समझ गये न! अपनेको बद्ध मानता है, तब वह मुक्त होता है। इस वास्ते बद्ध ही मुक्त होता है और यदि वास्तवमें बद्ध ही है तो वह मुक्त कैसे होगा? सत् का अभाव नहीं होता। सत्यका अभाव होगा ही नहीं। तो बात क्या है? कि बद्धपनेकी मान्यता है, उसे मिटानी है। अब मिटानी चाहो तो अभी मिटा दो, चाहे वर्षोंके बाद मिटा दो और चाहे जन्मोंके बाद मिटा दो, ये सब दृश्य है। मनुष्य स्वाभाविक ही मुक्त है, यह मुक्तिका अधिकारी है पूरा, एकदम। जिस किसी हालतमें है, जिस किसी परिस्थितिमें है, जैसी कैसी दशामें है, उस दशाके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़ें, क्योंकि दशा बदलती रहती है और आप नहीं बदलते हैं। सम्बन्ध है तो नहीं, जोड़े नहीं बस, मुक्त स्वत: है ही! सम्बन्ध जोड़ता है, तब बद्ध होता है। सम्बन्ध जोड़ने और न जोड़नेमें पराधीन नहीं है, अयोग्य नहीं है, निर्बल नहीं है, अनधिकारी नहीं है। मनुष्य अगर अनधिकारी है तो मुक्तिका अधिकारी कौन होगा? इस वास्ते यह सम्बन्ध न जोड़े बस। अब इसमें शंका हो तो बोलो!

प्रश्न—स्वामीजी! आचरण कैसा ही हो, द्रष्टा बना देखता रहे?

उत्तर—देखो! कैसे ही आचरण हो, यह नहीं कह सकते। उस अवस्थामें यह कहा जा सकता है कि आचरणोंको लेकर आप राजी और नाराज क्यों होते हो? यहाँ दृढ़ रहो आचरण कैसा ही हो, यह नहीं। अपने राजी और नाराज कैसे होते हो?

प्रश्न—आचरण ठीक नहीं है, तब तो नाराजी होनी ही चाहिये न?

उत्तर—होनी चाहिये, तब तो फँसे ही रहोगे। आप राजी और नाराज क्यों होवो? दोनोंको ही छोड़ो, अच्छेको भी और मन्देको भी छोड़ो। वास्तवमें तो किसीके साथ आपका सम्बन्ध नहीं है। दोनोंको छोड़ दोगे तो मन्दा होगा ही नहीं। स्वत: अच्छा ही होगा। जो बुरा है, उसको अच्छा मानोगे तो अच्छा कभी नहीं होगा, क्योंकि ममता उसके साथ बनी रहेगी। यह ममता ही तो बुराई है। यह थोड़ी बारीक बात है, लेकिन साधकके लिये खास बात है। साधकको द्रष्टा नहीं रहना चाहिये, उपेक्षा करनी चाहिये। द्रष्टा बना रहेगा तो गलती है, बिलकुल उपेक्षा करे, उधरसे आँख मीच ले। अपने तो एक परमात्म-तत्त्व है, उसपर दृष्टि रखे। अच्छे और मन्देपर दृष्टि क्यों रखे?

‘निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥’
(गीता ५।३)

जो निर्द्वन्द्व हो जाता है, वह सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है और जो द्वन्द्वोंमें फँसा रहता है, वह मुक्त नहीं होता। द्रष्टा रहना मैं नहीं कहता हूँ। दोनोंकी उपेक्षा करना कहता हूँ। दोनोंसे अलायदे हो आप! वह दृश्य रहेगा, आप द्रष्टा रहोगे और देखना-दर्शन होगा तो त्रिपुटी कैसे मिटेगी? और त्रिपुटी मिटे बिना कल्याण कैसे होगा? इस वास्ते देखना ही नहीं है। देखना है तो कुत्तेमें क्यों नहीं देखते हो? दूसरे मनुष्यमें क्यों नहीं देखते? उनमें नहीं देखते तो इसमें क्यों देखते हो? इसमें देखते हो तो सिद्ध हुआ कि इसके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध आपने माना है, कुत्तेके साथ आपने माना नहीं। अगर आप चेतन-तत्त्व हैं तो तत्त्व जैसे कुत्तेमें है, वैसे ही इसमें है और जैसा इसमें है, वैसा ही कुत्तेमें है। निर्लिप्तता जब उसके साथ है तो इसके साथ भी होनी चाहिये। उसके साथ तो निर्लिप्तता है और इसके साथ नहीं है तो यही बन्धन है और क्या? विचार करो और बोलो!

प्रश्न—इसका मतलब हुआ स्वामीजी! यह सब परिवर्तनशील है। इसको देखते रहें?

उत्तर—परिवर्तनको देखो मत, परिवर्तनशीलकी उपेक्षा कर दो। ‘आत्मसंस्थं मन: कृत्वा’ एक सच्चिदानन्दघनमें मन लगाकर ‘न किंचिदपि चिन्तयेत् ’ अच्छा-मन्दा कुछ चिन्तन मत करो। तब ठीक होगा और अच्छे-मन्देके साक्षी बने रहोगे, द्रष्टा बने रहोगे तो अच्छे और मन्दे दोनोंके साथ सम्बन्ध रहेगा और दोनोंके साथ सम्बन्ध रहेगा तो द्वन्द्व रहेगा। द्वन्द्व ही बन्धन है। ‘सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वोंसे विमुक्त ज्ञानी पुरुष उस अविनाशी परमपदको प्राप्त होते हैं। भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि ‘तूँ हर्ष-शोकादि द्वन्द्वोंसे रहित, नित्यवस्तु परमात्मामें स्थित, योग और क्षेमको न चाहनेवाला और स्वाधीन अन्त:करणवाला हो’ ‘हे अर्जुन! संसारमें इच्छा और द्वेषसे उत्पन्न सुख-दु:खादि द्वन्द्वरूप मोहसे सम्पूर्ण प्राणी अत्यन्त अज्ञताको प्राप्त हो रहे हैं; परन्तु निष्कामभावसे श्रेष्ठ कर्मोंका आचरण करनेवाले जिन पुरुषोंका पाप नष्ट हो गया है, वे राग-द्वेषजनित द्वन्द्वरूप मोहसे मुक्त दृढ़निश्चयी भक्त मुझको सब प्रकारसे भजते हैं।’ इस वास्ते परिवर्तनशीलको देखना नहीं, पर उससे विमुख होना है। देखोगे तो उसके सम्मुख हो जाओगे। सम्मुख होनेसे चिपक जाओगे।

‘सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।
गुन यह उभय न देखिअ देखिअ सो अबिबेक॥’

दोनोंको देखनेवाले द्रष्टाको अविवेकी बताया। यह बात साधकके कब्जेमें आ जाय, अधिकारमें आ जाय तो बहुत बढ़िया चीज है।

प्रश्न—कब्जेमें आ जानेका प्रभाव तो फिर इन वृत्तियोंके द्वारा ही देखा जायगा?

उत्तर—ना, वृत्तियोंके द्वारा नहीं देखना है, वृत्तियोंकी उपेक्षा करनी है। वृत्तियोंके द्वारा देखोगे, तबतक तो कब्जेमें नहीं आयी है। जबतक वृत्तियोंके द्वारा देखकर कसौटी लगाते हैं तबतक मैं कहता हूँ वह बात अधिकारमें नहीं आयी है। वह स्थिति नहीं हुई है। वृत्तियोंको लेकर कसौटी नहीं लगानी चाहिये। वृत्तियाँ सब-की-सब प्रकृतिमें हैं, पर आप प्रकृतिके अंश नहीं हो, आप परमात्माके अंश हो। इस वास्ते आपको परमात्माकी तरफ देखना है, वृत्तियोंकी तरफ नहीं देखना है। ‘भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ यह प्रकृति है। असली बात समझमें आ जाय तो वहाँ कोई कसौटी नहीं लगेगी। कसौटी यही है कि इनसे कोई मतलब नहीं है, न राग है, न द्वेष है, न हर्ष है, न शोक है; न ठीक है, न बेठीक है; न अनुकूलता है, न प्रतिकूलता है। एक वही है—‘समदु:खसुख: स्वस्थ:’।

नारायण! नारायण!! नारायण!!!

अगला लेख  > दूसरोंके हितका भाव