भगवान् हमारे सम्मुख खड़े हैं
प्रवचन दिनांक—१-५-१९४५, स्वर्गाश्रम
भगवान् साक्षात् सामने विराजमान हो रहे हैं। मेरे ऊपर उनकी छत्रछाया है। वे आश्वासन दे रहे हैं कि तुम चिन्ता मत करो। वास्तवमें चिन्ता भी क्या है? अर्जुनको भगवान् आश्वासन दे रहे हैं—
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
(गीता १८। ६६)
सम्पूर्ण धर्मोंको अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंको मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार परमेश्वरकी ही शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।
पूर्वके आधे श्लोकमें भगवान् उपदेश दे रहे हैं कि सारे धर्मोंको मेरेमें त्याग दे। मैं जिस प्रकार तुमसे कराऊँ, वैसे कर; जिस प्रकार नचाऊँ, वैसे नाच। दूसरी बात कहते हैं कि मेरी शरण आ जा। जो बात गीता १८। ५७ में कही गयी है, वही बात यहाँ कही है। वहाँ मत्पर: कहा, यहाँ मामेकं शरणं व्रज कहा। ‘मेरे परायण हो’—ऐसा कहना और ‘मेरी शरण हो’—यह कहना एक ही बात है। हमें इस प्रकारका भाव करना चाहिये कि भगवान् आकाशमें खड़े हैं। वे कह रहे हैं—
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
मैं तुझे सब पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर। जो बात अर्जुनके लिये कही, वही सबके लिये है। हमारे मनमें यह भाव पैदा होता है कि हम बड़े पापी हैं, नीच हैं। भगवान् कहते हैं—मैं सारे पापोंसे मुक्त कर दूँगा। भगवान् की कृपाके सम्मुख पाप कोई बड़ी चीज नहीं है। हम बराबर इस प्रकारकी भावना करते रहें कि भगवान् हमारे सम्मुख खड़े हैं और कह रहे हैं—शोक मत कर। मैं तुमको सब पापोंसे मुक्त कर दूँगा। वे कृपा दृष्टिसे देख रहे हैं और हमारे ऊपर प्रेम, आनन्द, शान्ति और समताकी वर्षा कर रहे हैं। उनके गुण हमारे रोम-रोममें प्रवेश कर रहे हैं, जिससे हमें रोमांच हो रहा है और रोमांच होते समय प्रत्येक रोम-रोमसे राम, रामकी ध्वनि निकल रही है—
रग रग बोले रामजी, रोम रोम रंकार।
सहज ही ध्वनि होत है, कहे कबीर बिचार॥
जिस प्रकार हनुमान् जी के प्रत्येक रोम-रोममें राम, राम रम रहा था, उसी प्रकार हम भावना करें कि हमारे शरीरमें जो साढ़े तीन करोड़ रोम हैं, उन सबसे राम, रामका जप हो रहा है। यह बड़े ऊँचे दर्जेका भजन है। हमारा लक्ष्य इस प्रकारका होना ही भजन है। हमें इस प्रकारकी साधना करनी चाहिये। अहा! देखो कैसा आनन्द और कैसी शान्ति है! भगवान् की दयाका स्रोत बह रहा है, मानो हमें प्रेमके सागरमें ही डुबा दिया हो! कैसी ज्ञानकी दीप्ति हो रही है!
यह कैसा ज्ञान है?—चिन्मय है। इस प्रकार सगुण-निराकार परमात्माके गुणोंको बारम्बार याद करके मुग्ध होता रहे—
कविं पुराणमनुशासितार-
मणोरणीयांसमनुस्मरेद्य:।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-
मादित्यवर्णं तमस: परस्तात्॥ ९॥
(गीता ८। ९)
जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियन्ता, सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करनेवाले अचिन्त्यस्वरूप, सूर्यके सदृश नित्य चेतन प्रकाशरूप और अविद्यासे अति परे, शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमेश्वरका स्मरण करता है।
इस प्रकारके गुणोंकी स्मृति भी भगवान् की कृपासे ही होती है। जिसपर परमात्माकी कृपा होती है, उसपर सबकी कृपा होती है—
जा पर कृपा राम की होई।
ता पर कृपा करै सब कोई॥
हम सबपर भगवान् की बड़ी कृपा है। मेरे ऊपर भी भगवान् की कृपा है, जो आपलोग यहाँ आये हैं, इससे मेरा समय भी भगवान् की चर्चामें बीतता है। वास्तवमें वक्ताओंको श्रोताओंकी कृपा माननी चाहिये। हरेक भाईको अपने ऊपर भगवान् की दया पद-पदपर देखनी चाहिये। राजा साहबसे जो संयोग है, वह भी भगवान् की कृपा ही है, नहीं तो राजा, महाराजासे संयोग होना बड़ा ही कठिन है (ये सीतामऊके राजा थे, जो सेठजीके सत्संगी थे), कारण कि अच्छे पुरुषोंको तो राजा, महाराजासे कुछ काम नहीं, वे तो वहाँ जाते ही नहीं, और राजा, महाराजा इस तरह आनेमें अपनी मान-हानि समझते हैं। इस प्रकारका संयोग भगवान् की कृपासे ही होता है। हरेक बातमें भगवान् की दयाका दिग्दर्शन करके प्रसन्न होना चाहिये और ईश्वरका अपने ऊपर हाथ समझना चाहिये। जब ईश्वरका हाथ है, तब ईश्वर भी यहाँ हैं ही। उनके स्वरूपकी ओर देखकर तथा उनके मुखकी ओर देख-देखकर मुग्ध होता रहे। फिर चिन्ता, भय, शोक पासमें नहीं आ सकते। यदि आते हैं तो वह बात आपके ध्यानमें नहीं है कि भगवान् आश्वासन दे रहे हैं?
भगवान् के नेत्र और मुख खिले हुए हैं। उनके नेत्र गुलाबके फूलकी तरह खिले हुए हैं। भगवान् के हृदयके भाव समता, शान्ति और आनन्द हैं, वे नेत्रोंके द्वारा प्रकट हो रहे हैं, क्योंकि नेत्र उनके प्रकट होनेका स्थान है। दया-दृष्टि कही जाती है, दया-कान या दया-मुख नहीं कहा जाता है। यद्यपि गुणोंका स्थान हृदय है, परन्तु उनके प्रकट होनेका स्थान नेत्र है। किसी आदमीको क्रोध आता है तो लाली नेत्रोंमें ही आती है, कानोंमें नहीं। अधिक क्रोध आता है तो होठ भी फड़कने लगते हैं, इसलिये मुख भी भावोंके प्रकट होनेका एक स्थान है।
भगवान् का मुखारविन्द खिला हुआ है, वे प्रसन्न हो रहे हैं, उनके नेत्रोंसे दयाका विकास हो रहा है, हम सबके ऊपर उसकी वृष्टि हो रही है, हम सब उसमें मग्न हो रहे हैं। प्रेमकी परीक्षा भी नेत्रोंसे ही होती है। तुलसीदासजी कहते हैं—
आवत ही हरषे नहीं, नयनन नहीं सनेह।
तुलसी तहाँ न जाइये, कंचन बरसे मेह॥
दया, समता और प्रेम—सबकी परीक्षा नेत्रोंसे ही होती है। गीतामें भी ‘समदर्शन:’; ‘समं पश्यति’ आदि शब्द आये हैं। नेत्रोंमें गुणोंका दिग्दर्शन होता है। नेत्रोंसे इन सब गुणोंको देखना चाहिये, समझना चाहिये। भगवान् से इन सब बातोंका विकास हो रहा है। सारे गुण हमारेमें प्रविष्ट हो रहे हैं। भगवान् प्रेमकी मूर्ति ही ठहरे। उनका स्रोत बहता ही रहता है। प्रेम ही आनन्द है। प्रत्यक्षमें आनन्द और प्रसन्नताकी वर्षा भगवान् के नेत्रों द्वारा हो रही है। भगवान् स्वयं चिन्मय हैं। उसमें भी विशेष चेतनता नेत्रोंमें है। महान् ज्ञानका सागर, ज्ञानकी दीप्ति, जिसमें हम डूबे हुए हैं—यह सब प्रभुकी कृपा ही है। प्रभु ज्ञानका प्रभाव डाल रहे हैं, इससे हमारे रोम-रोममें ज्ञानकी दीप्ति हो रही है। सारे शरीरमें, इन्द्रियोंमें और मनमें ज्ञान परिपूर्ण हो रहा है। रात-दिन हममें गुण प्रविष्ट हो रहे हैं। ऐसी परिस्थितिमें क्या विक्षेप, आलस्य आ सकता है?
भगवान् आकाशमें खड़े-खड़े मन्द-मन्द मुस्कुरा रहे हैं—हमें हर समय इसी तरह समझते रहना चाहिये, फिर आपकी अवस्था और आपका जीवन बदल जायगा। जो कुछ उच्चारण होता है, कहा जाता है, व्याख्यान हो रहा है, यह भी ईश्वरकी दया ही है। यदि उनकी दया न हो तो ऐसी स्फुरणा ही नहीं हो। यदि अपने हाथकी बात हो तो खूब बढ़िया-बढ़िया बातें कहें, किन्तु सब पराधीनता है। यदि कोई वक्ता ऐसा मान लेता है कि सब गुण मेरेमें हैं तो वह निरा मूर्ख है; उसको ईश्वरके तत्त्वका ज्ञान ही नहीं है। भगवान् उसके ऐसी थप्पड़ मारते हैं कि वह सब भूल जाता है।
देवताओंको अभिमान हुआ, तब भगवान् यक्ष रूपसे प्रकट हुए। अग्नि और वायु देवता परीक्षा लेने आये, तब भगवान् ने अग्नि और वायुकी शक्तिका आकर्षण कर लिया। अब उनमें क्या रखा है? भगवान् ने दिखला दिया कि तुममें जो बल है, वह मेरा ही बल है।
भगवान् गीतामें क्या सिखा रहे हैं? वे कहते हैं कि तेजस्वियोंका तेज और बलवानोंका बल मेरा ही है (गीता ७। १०-११)। आपमें जैसा प्रेम और श्रद्धा होती है, उसी तरहका वातावरण हो जाता है, उसी तरहके शब्द वक्ताके मुखसे निकलने लग जाते हैं। आपलोगोंकी तीव्र इच्छा होगी एवं साक्षात् महात्मा यदि नहीं मिलेंगे तो भगवान् महात्माका रूप धारण करके हमें शिक्षा देने आयेंगे अथवा किसी साधारण-से-साधारण व्यक्तिको भी ऐसी योग्यता देकर हमें शिक्षा दिला सकते हैं। भगवान् की इच्छाके बिना कोई तिनका भी नहीं तोड़ सकता। अर्जुन जैसे वीरको भगवान् बता रहे हैं कि ये सब मेरे मारे हुए हैं। तू केवल निमित्तमात्र बन जा। तू युद्ध नहीं भी करेगा तो भी ये सब मारे जायँगे। तू कहता है—मैं युद्ध नहीं करूँगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या है।
भगवान् की शक्ति ही सब काम कर रही है। जब भगवान् ने धराधाम छोड़ दिया, तब वही अर्जुन था और वही गाण्डीव धनुष था। डाकुओंने उनको लूट लिया। अर्जुन चुपचाप लौट आये। भगवान् ने दिखला दिया कि तुममें जो शक्ति थी, वह मेरी ही थी।
जहाँ कहीं अहंकार आ जाता है, भगवान् वहीं थप्पड़ मारते हैं, यह भी भगवान् की कृपा है। हमारे हितके लिये भगवान् हमको चेताते हैं, यह भी भगवान् की कृपा है। हमें भगवान् की कृपासे ही कुछ लाभ होता है। वक्ताको समझना चाहिये कि मेरे द्वारा जो कुछ कहा जा रहा है, वह प्रभुकी कृपासे ही कहा जा रहा है, मेरा पुरुषार्थ बिल्कुल नहीं है। श्रोताओंको भी भगवान् की कृपा समझनी चाहिये। यह नहीं समझना चाहिये कि हमारी श्रद्धा और प्रेमका फल है। प्रेम और श्रद्धा होना आपके हाथकी बात नहीं है। हाँ, प्रेम और श्रद्धाके लिये भगवान् से गद्गद भावसे, रोकर प्रार्थना करनी चाहिये तो सफलता हमें मिल सकेगी। सफलता नहीं मिलेगी तो भी वह सफलता ही है।
प्रभुके आगे की हुई प्रार्थना नष्ट नहीं होती है। बीज डालकर उसकी प्रतीक्षा करनी चाहिये। जब जड़ पृथ्वी भी बीजको अपने पेटमें नहीं रखती है तो क्या भगवान् रख सकते हैं? हमारे हृदयमें जो भाव पैदा होते हैं, वह भी भगवान् की कृपा है, हमें प्रभुपर निर्भर रहना चाहिये। भगवान् जो कुछ करते हैं, वह ठीक है। यदि आपकी दृष्टि उनकी दयाकी ओर रहेगी तो आपको उत्तरोत्तर प्रसन्नता होगी। आप अपने साधनको उत्तरोत्तर उन्नत देखेंगे। प्रभुकी दयाका सागर यहाँ ओत-प्रोत रहता है। वह दया निराकार है, क्योंकि जितने गुण होते हैं, वे बिना आकारके होते हैं। परन्तु उस निराकारको भी प्रत्यक्षवत् अनुभव करना चाहिये। प्रत्यक्षमें आपको कैसा आनन्द मिल रहा है। भगवान् कहते हैं—
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति। (गीता ५। २९)
-जो कोई मेरी सुहृदताकी ओर दृष्टि डालता है, उसको शान्ति मिलती है। हमको भगवान् के दया, प्रेम और शान्तिकी ओर दृष्टि डालनी चाहिये। हमलोग उनकी दयाके पात्र हो गये, तभी तो मनुष्य-शरीर मिला है। मनुष्य-शरीर मिलनेपर ऐसे स्थानपर (स्वर्गाश्रम) आ गये हैं, जो साक्षात् मुक्तिका द्वार है, फिर भगवच्चर्चा! इससे बढ़कर प्रभुकी और क्या दया होगी! ऐसी परिस्थिति पाकर भी हम यदि भगवत्कृपासे वंचित रह जायँगे तो तुलसीदासजी कहते हैं—
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥
(रा०च०मा०,उत्तरकाण्ड, दोहा ४४)
ऐसे संयोगको पाकर भी जो भवसागरसे पार नहीं उतरता है, वह निन्दाका पात्र है और आत्म-हत्यारा है। ऐसा संयोग प्राप्त हो जाय तो उसे भगवत्प्राप्ति हो ही जाती है। अत: हमें भगवत्-प्राप्तिके मार्गमें जोशके साथ लग जाना चाहिये।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...