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गंगा-किनारे जप-ध्यान, सत्संग करना चाहिये

प्रवचन दिनांक—२-५-१९४५, प्रात:काल, स्वर्गाश्रम

भगवान् ने गीतामें कहा है—

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन:।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्॥
(गीता ६। ११)

शुद्ध भूमिमें, जिसके ऊपर क्रमश: कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसनको स्थिर स्थापन करके ध्यानके लिये बैठना चाहिये।

यहाँपर गंगाजीकी रेणुका उससे भी बढ़कर है। गंगाके पास काम और क्रोध आ ही नहीं सकते। यहाँपर स्वाभाविक ही सात्त्विकता व्याप्त हो रही है। यहाँकी हवा भी लाभदायक है। यहाँपर सब जगह भगवान् निराकार रूपसे विराजमान हो रहे हैं। यहाँ स्वाभाविक ही वैराग्य उत्पन्न होता है। यहाँ तीर्थस्थानमें हरेक कार्यका अनन्तगुणा फल होता है, इसलिये यहाँपर जप-ध्यान और सत्संग करना चाहिये। गंगा किनारे जैसी शान्ति मिलती है, वैसी कहीं नहीं मिल सकती है। इसलिये यदि यहाँपर रहकर साधन नहीं होगा तो ऐसा स्थान और कहाँ मिलेगा? यहाँ परमात्मा प्रत्यक्ष विराजमान हैं। संसार तिरविरेकी तरह अथवा स्वप्नवत् है। एक परमात्माके सिवाय और कोई वस्तु है ही नहीं। बस, परमात्माका स्वरूप आत्मा ही इस देहमें स्थित है। ध्यान करनेसे मालूम होता है कि परमात्मा सब जगह ज्ञान, आनन्दरूपमें विराजमान हैं। शान्ति और प्रसन्न्ता भी हमारे शरीरमें भगवान् के स्वरूपमें ही विराजमान हो रही है। सर्वत्र भगवान् ही व्यापक हो रहे हैं। भगवान् आनन्दमय हैं। जिस प्रकार सूर्य प्रकाशका केन्द्र है, इसी प्रकार भगवान् आनन्दके केन्द्र हैं। यह परमात्मविषयक आनन्द मनुष्यको ही प्राप्त हो सकता है, कुत्तों, गधोंको नहीं। संसारमें जो शास्त्रोंको नहीं जानते हैं, वे इसीलिये गधोंके समान कहे जाते हैं। ईश्वरने मनुष्यका शरीर देकर ज्ञान, बुद्धि भी दी है, इसलिये इनको पाकर परमात्माका ध्यान करना चाहिये। भगवान् ने गीतामें कहा है—

मत्त: परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥
(गीता ७। ७)

हे धनंजय! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्रमें सूत्रके मनियोंके सदृश मुझमें गुँथा हुआ है।

परमात्माके सिवाय न तो कोई वस्तु है और न होगी। मात्र परमात्मा ही हैं। गीता कहती है—

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:॥
(गीता २। १६)

असत् वस्तुकी तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनोंका ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी पुरुषोंद्वारा देखा गया है।

जो चीजें दिखलायी पड़ती हैं, वे नाशवान् हैं। आकाशमें बिजली चमकती हैं, बादल दीखते हैं, अन्तमें सबका नाश होकर आकाश रह जाता है, इसी प्रकार यह संसार नाश होकर परमात्मा ही रहेगा। इसलिये साधकको परमात्माका ही ध्यान करना चाहिये। देखो, प्रत्यक्षमें कैसी शान्ति मिलती है! वासुदेव नारायण—ये सभी भगवान् के नाम हैं। इनको सुनकर ध्यानमें मस्त हो जाय। वाणीसे उच्चारण करे तो नारायण! मनसे ध्यान भी करे तो नारायणका। इस प्रकार अन्तमें नारायण ही रह जाता है। गीतामें कहा है—

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता ७। १९)

बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है—इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।

मनुष्यका शरीर इसीलिये सर्वोत्तम है कि यही परमात्माकी प्राप्तिका साधन है, इसीसे दु:खोंका नाश होकर चौरासी लाख योनियोंका नाश हो सकता है। जो सबको वासुदेव समझता है, वही महात्मा है। नारायणका ध्यान करे। संसारको एकदम भुला दे। महात्माओंके चित्तमें हर समय आनन्द और प्रसन्नता रहती है। दूसरे जीवोंके आनन्द नहीं है, वे दु:खी हैं। जिसमें सुख-शान्ति नहीं, वह महात्मा नहीं। इसलिये मनुष्यको परमात्माकी प्राप्तिका साधन करना चाहिये। गीतामें कहा है—

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा
गुणप्रवृद्धा विषयप्रवाला:।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि
कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥
(गीता १५। २)

उस संसारवृक्षकी तीनों गुणोंरूप जलके द्वारा बढ़ी हुई एवं विषयभोगरूप कोपलोंवाली देव, मनुष्य और तिर्यक् आदि योनिरूप शाखाएँ नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्यलोकमें कर्मोंके अनुसार बाँधनेवाली अहंता, ममता और वासनारूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकोंमें व्याप्त हो रही हैं।

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-
मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥
(गीता १५। ३)

इस संसारवृक्षका स्वरूप जैसा कहा है वैसा यहाँ विचार-कालमें नहीं पाया जाता। क्योंकि न तो इसका आदि है, न अन्त है तथा न इसकी अच्छी प्रकारसे स्थिति ही है। इसलिये इस अहंता, ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलोंवाले संसाररूप पीपलके वृक्षको दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्रद्वारा काट डालना चाहिये।

संसार पीपलका वृक्ष है। इस संसार-वृक्षको वैराग्यरूपी शस्त्रसे काटकर परमात्माकी खोज करनी चाहिये, जहाँ जाकर मनुष्य लौटकर नहीं आता। जिस परमात्मासे संसारका विस्तार हुआ है, उस परमात्माका ध्यान करो। वैराग्य होनेसे संसारका ध्यान छूट सकता है। जिस समय तीव्र वैराग्य होता है, उस समय याद करनेपर भी संसारकी स्मृति नहीं हो सकती। परमात्माका ध्यान करनेपर वह तन्मय होकर जाग जाता है और परमात्माको ही देखता है। सात्त्विक सुख और आनन्दकी वृद्धि होनेके बाद हमको आगे बढ़ना चाहिये। आखिरमें परमात्माकी प्राप्ति होनेपर आनन्द-ही-आनन्द और शान्ति-ही-शान्ति है। परमात्माकी प्राप्ति होनेपर और सुखकी इच्छा नहीं रहती।

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन् स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥
(गीता ६।२२)

परमात्माकी प्राप्तिरूप जिस लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मप्राप्तिरूप जिस अवस्थामें स्थित योगी बड़े भारी दु:खसे भी चलायमान नहीं होता।

सात्त्विक सुख राजसी और तामसीसे बहुत ऊँचा है। किन्तु वहाँ भी ठहरे नहीं, उसको लाँघनेपर ही परमात्माकी प्राप्ति होती है। भगवत्-प्राप्तिके अनन्तर सारी दुनियाके आनन्द स्वप्नवत् हो जाते हैं। जागनेके बाद स्वप्नका कोई मूल्य नहीं। इसलिये तुमको साधन करना चाहिये। साधन भी निष्काम भावसे करे, उसमें आसक्ति नहीं रखे। परमात्मा आनन्दरूप हैं। आनन्दका ध्यान करके आनन्दमें समा जाय। परमात्मा पूर्ण हैं। उनकी प्राप्तिके बाद जन्म सफल हो जाता है। परमात्माका स्वरूप आनन्दमय है। वह आनन्द अनन्त और अपार है, वहाँ और आनन्दकी गुंजाइश नहीं रहती। वह इस आनन्दसे अत्यन्त विलक्षण है, उस आनन्दका नाम ही नारायण है। वह पूर्ण ब्रह्म है—

ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
(ईशावास्योपनिषद्-शान्तिपाठ)

वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म पुरुषोत्तम सब प्रकारसे सदा-सर्वदा परिपूर्ण है। यह जगत् भी उस परब्रह्मसे ही पूर्ण है; क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तमसे ही उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार परब्रह्मकी पूर्णतासे जगत् पूर्ण है, इसलिये भी वह परिपूर्ण है। उस पूर्ण ब्रह्ममेंसे पूर्णको निकाल लेनेपर भी वह पूर्ण ही बच रहता है।

परमात्मा विज्ञान, आनन्दसे परिपूर्ण हैं। जो कुछ प्रतीत होता है, वह भी आनन्द ही है। यह संसार भी परमात्माका स्वरूप है। वह आनन्द सम, अनन्त, पूर्ण और नित्य है। वह अनन्त सत् है, इसलिये संसारको छोड़कर परमात्माका ध्यान करना चाहिये।

एक चींटी एक मिश्रीके पहाड़पर बैठकर भी, यदि उसके मुखमें नमक है तो वह उस मिश्रीके पहाड़का आनन्द नहीं ले सकती है। इसी प्रकार यह जीव आनन्दमय परमात्मामें स्थित होकर भी बुद्धिरूपी मुखसे विषयोंको पकड़े हुए है। उस संसारके ध्यानको छोड़नेपर ही मिश्रीके पहाड़ रूपी नित्य चेतनका आनन्द मालूम पड़ सकता है, इसलिये संसारको छोड़कर परमात्माका ध्यान करना चाहिये। संसारके चिन्तनको छोड़ दें। ध्यान करते-करते प्राणी भगवान् में स्थित हो जाता है। सांसारिक ज्ञानको छोड़कर परमात्मामें विचरे। परमात्मामें ध्यान लगानेपर प्राणी सदाके लिये मुक्त हो जाता है और उसका संसारसे सम्बन्ध नहीं रहता। ध्यानमें मस्त होकर, परमात्मामें मिलकर किसीका भी चिन्तन न करे।

शनै: शनैरुपरमेद्‍बुद्‍ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥
(गीता ६। २५)

क्रम-क्रमसे अभ्यास करता हुआ उपरतिको प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा मनको परमात्मामें स्थित करके परमात्माके सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे।

स्थिर बुद्धिद्वारा मनको परमात्मामें लगावे। परमात्मामें मन लगाकर तन्मय हो जाय। परमात्माके सिवाय किसीका चिन्तन ही न करे। यदि हो जाय तो उसी समय भुला दे। आनन्दमय बन जाय और तन्मय होकर रहे। वह आनन्द असीम और अनन्त है। उसकी प्राप्तिके बिना उसको कोई जान नहीं सकता, इसलिये संसारको भुलाकर आनन्दका ध्यान करे। आनन्दमें गोता लगावे। शरीरका ज्ञान होनेपर भी रोम-रोममें आनन्द-ही-आनन्द है। जैसे आकाश सर्वव्यापी है, उसी प्रकार परमात्मा भी सर्वव्यापी है। उसका नाम नारायण है। उसका नाम जपते-जपते नारायण ही बन जाय। नारायणके सिवाय और कुछ है ही नहीं। सर्वत्र नारायणको समझकर नारायणका ही नाम उच्चारण करे। आनन्दमें तन्मय होकर अपने आपको भुला दे। परमात्माके ध्यानमें भूलना ही असली आनन्द है। इस प्रकार ध्यान करनेसे तुरन्त ही परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। ज्ञान ही आनन्द है। सत् , चित् , आनन्द—ये तीन चीजें नहीं हैं, यह तो एक ही परमात्माके नाम हैं। वह सदा और नित्य है। वह चेतन वस्तु है। चेतन स्वयं ही आनन्द है। वहाँ चेतनके सिवाय और कोई भी वस्तु नहीं है। वहाँ संसारका अत्यन्त अभाव है। केवल परमात्मा है, परमात्माके सिवाय और कुछ नहीं है। बस, सब कुछ भुलाकर चिन्मय वस्तु परमात्माका अनुभव करे।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...

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