भाव बदलनेसे संसार परमात्माके रूपमें दिखने लग जाता है
प्रवचन दिनांक—२१-१२-१९४५, प्रात:काल, गोरखपुर
प्रश्न—कहा जाता है कि महापुरुषोंके सिद्धान्तके अनुसार करे। महापुरुषोंका सिद्धान्त क्या है?
उत्तर—जैसे भगवान् का सिद्धान्त गीतामें लिखा हुआ है, वैसे ही तुलसीदासजीका सिद्धान्त उनके ग्रन्थोंमें है। जितने महापुरुष हुए हैं, उनका सिद्धान्त उनकी रची हुई पुस्तकोंमें है। पुस्तकोंमें जो बात है, वही उनका सिद्धान्त है। जितने आचार्य हुए हैं, उनकी रची हुई, लिखी हुई पुस्तकोंसे ही उनके सिद्धान्तका निर्णय होता है। उनकी मान्यता बहुत-सी उनके लेखोंमें आ जाती है। उनकी जो मान्यता है, उसीके अनुसार करना चाहिये। वही उनका सिद्धान्त है।
महात्मा, ईश्वर, हीरा, पारस है—इन सभी चीजोंमें उसका रहस्य ज्ञात होनेसे, जाननेसे क्षणमें बुद्धि बदल जाती है।
यह संसार हमें दूसरी तरहका दिखता है, महात्माको यह साक्षात् परमात्माका स्वरूप दिखता है। इस संसारका तत्त्व जान लें तो वासुदेवका स्वरूप दिखने लग जाय। भगवान् श्रीराम धनुषयज्ञमें खड़े हैं, वहाँ सबको अपने-अपने भावके अनुसार दिखते हैं। एक कथावाचक है, उसको भी श्रोता अपने-अपने भावके अनुसार देखते हैं। इसी तरह इस संसारमें सबकी अलग-अलग बुद्धि है। जो इसे परमात्माका स्वरूप समझता है, वह महात्मा है।
पारस और पत्थर एक-सी चीज है, किन्तु जो उनके तत्त्वको जाननेवाले होते हैं, वे पारसको पारस समझते हैं। हीरा, काँच, माणिक, झूठा मोती, सच्चा मोती—हमारे लिये सब एक-से हैं। जौहरी ही परीक्षा कर सकते हैं।
एक साधुने एक गृहस्थके यहाँ ‘नारायण, हरि’ की आवाज लगायी। गृहस्थ बड़ा गरीब था, बाहर आया, रोने लगा। रोता देखकर साधुने कहा—तुम रोते क्यों हो?
उसने कहा—महाराज! घरमें सब लोग भूखे बैठे हैं। आप आये, आपको क्या भिक्षा दें, इसलिये रोते हैं। भगवान् ने मुझे ऐसा बना दिया कि आपको अन्न भी नहीं दे सकते।
साधुने घरमें घुसकर दृष्टि डाली, कहा—तुम्हारेसे बढ़कर भाग्यवान् और कोई नहीं है। तुम चाहो तो सारी दुनियाको धनी बना सकते हो। तुम चाहो तो दुनियाकी गरीबी दूर कर सकते हो। साधुने पूछा—यह क्या है?
उसने कहा—पत्थर है।
साधुने कहा—नहीं, यह पारस है।
उसने कहा—इससे तो रोज चटनी पीसते हैं।
साधुने कहा—मुझे यह प्रत्यक्ष पारस दीखता है, मैं तुम्हारी बात कैसे मानूँ? तुमने पारसका नाम सुना है? घरमें लोहा हो तो लाओ।
लोहेकी सँडासी आदि लाये, छुआते ही सोना बन गये।
साधुने कहा—अब बता, तेरे समान कोई धनी है क्या?
उसने कहा—नहीं।
साधुने पूछा—अब इससे चटनी पीसोगे क्या?
उसने कहा—इसको तिजोरीमें रखेंगे।
जैसे उसके घरमें पारस पड़ा था, ऐसे ही हमारे हृदयमें भगवान् बैठे हैं, हम भटकते फिरते हैं।
यह संसार परमात्माका स्वरूप है, हमें संसार दिखता है। जब उस गृहस्थकी तरह हमारा भाव भी बदल जाय तो हमें भी संसार परमात्माका स्वरूप दिखने लगे। हरे रंगका चश्मा चढ़ानेसे सारे पदार्थ हरे-ही-हरे दिखने लगते हैं, ऐसे ही हरिका चश्मा चढ़ा लेनेसे सारा संसार हरिका स्वरूप दिखने लग जाय।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता ६। ३०)
जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
भगवान् कहते हैं—जो मुझे सर्वत्र देखता है, उसके लिये मैं कभी अलग नहीं होता।
उस गृहस्थने साधुकी बात मान ली तो वह मालामाल हो गया, ऐसे ही हम गीताकी बात मान लें तो आनन्द-ही-आनन्द है। वही चीज भाव बदलनेसे दूसरी ही दिखने लग जाती है।
मुकुन्दलालजी पाण्डेयकी बात है उन्हें ज्ञात हो गया कि जिसके पास आये हैं, वे ये ही हैं तो उनकी दशा ही बदल गयी।
इसी प्रकार हम जिन भगवान् को खोजते हैं, वे हमारे पास ही हैं, सब संसारमें व्याप्त हैं। शास्त्र कहते हैं—यह संसार ब्रह्मका स्वरूप है।
शास्त्र और महात्मा इस बातको समझानेके लिये बहुत प्रयत्न करते हैं। जो समझ जाता है, वह दूसरोंको बता सकता है।
भावका चश्मा है, उसे चढ़ा लें तो फिर दिखने लग जायँ। जितनी बात समझमें आ गयी, वह भूली नहीं जा सकती। जितना तत्त्व परमात्माका समझा गया, वह हृदयमें जम गया। वही उसकी असली जानकारी है और असली श्रद्धा है।
हमें यही प्रयास करना चाहिये, उसके लिये प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये। फिर परमात्माका ज्ञान—परमात्माका जानना एक साधारण-सी बात है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...