भावके अनुसार स्थिति
प्रवचन दिनांक—१८-१२-१९४५, गोरखपुर
ऐसा कोई भी नियम नहीं है कि किस समय कैसी बात हो। यदि मनुष्य सभी बातोंको उत्तम समझे तो उसकी यह दृष्टि ऊँची ही है। उसकी तो परीक्षा हो गयी। गोपियोंके कभी नीचे दर्जेकी बातें पल्ले नहीं पड़ती थी। जिसकी जैसी स्थिति होती है उसको उसी स्तरकी बातें पल्ले पड़ती है।
आपलोग कहते हैं हमलोगोंकी आपसमें श्रद्धा किस तरह हो? इसके दो उपाय हैं—(१) आप योग्य बनें। (२) श्रद्धाका उपाय पूछें कि श्रद्धाका उपाय बतायें? क्या करनेसे श्रद्धा उत्पन्न हो?
आपमें कमी समझकर भी यह बात कही जा सकती है। आगेवालेमें भी कमी समझकर यह बात कही जा सकती है। आगेवालेका मान रखकर कहना है।
स्वामीजी—‘इसका भाव अच्छी तरहसे नहीं खुला?’
सेठजी—आपलोगोंसे डरता हूँ—
बिप्रबंस कै असि प्रभुताई।
अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥
(रा०च०मा०, बालकाण्ड, २८४। ५)
परमात्माके साथ उदाहरण या दृष्टान्त देना हो तो महात्माका ही देना चाहिये। दूसरा नहीं मिलता। महात्माका उदाहरण देना हो तो परमात्माका ही देना चाहिये; जैसे—गौ, ब्राह्मण एक हैं। गौको तो ज्ञान नहीं, अन्यथा गौकी दृष्टिमें ब्राह्मण श्रेष्ठ होते और ब्राह्मणकी दृष्टिमें गौ श्रेष्ठ होती, पर अब यही कहा जाता है कि दोनों बराबर हैं।
च्यवन ऋषिके प्रसंगमें राजाने अपना सारा राज्य रख दिया, पर उनका मूल्य नहीं आया। ऋषि अपनी बड़ाई स्वयं ही करते हैं कि मेरा मूल्य नहीं आया। राज्यको उन्होंने क्या महत्त्व दिया? तब वहाँ जो दूसरे ऋषि उपस्थित थे, उनसे पूछा गया कि इनका मूल्य क्या है? उन्होंने कहा—एक गौ रख दो। तब च्यवन ऋषिने कहा—अब हमारा मूल्य आ गया। उस राज्यसे लाख गायें खरीदी जा सकती थीं, पर उससे उनका मूल्य नहीं आया। गौ रख दी, तब मूल्य आ गया। गौ और ब्राह्मण अमोलक वस्तु हैं। जो उनका मूल्य करे वह मूर्ख है, इसलिये गौको बेचना पाप है।
साधुओंका, ईश्वरका एक मत है। अभीतक साधुओंका संसारमें मान है। असलीका तो है ही, नकलीका भी है। वेषका भी मान है। गेरुआ कपड़ा पहनकर कोई आ जाय, अभीतक तो मान है। जबकि अच्छे साधु सौमेंसे दस ही मिलेंगे। अच्छेसे तात्पर्य साधारण अच्छे—साधक साधु-अपना साधन करने-वाला। महात्मा नहीं, साधककी बात है, पर दिन-दिन यह काम छूट रहा है। जैसे-जैसे साधुओंमें साधुपना घटता जा रहा है, वैसे-वैसे भक्तोंमें भी श्रद्धा घटती जा रही है।
संसारमें जो झूठे साधु बने हैं—चाहे वेषसे हों, या गृहस्थ होकर भी झूठे ही साधु कहलाते हैं, वे नास्तिकताका प्रचार करते हैं। संसारमें जो धर्मध्वजी हैं, वे पक्के नास्तिक हैं, उनसे ही नास्तिकताका प्रचार होता है। उनका नाश करनेके लिये भगवान् अवतार लेते हैं।
क्या बतायें? संसारमें सुधार हो या उद्धार हो? नीति तो यह है कि सुधार होनेसे ही उद्धार होता है। पहले उद्धार लायें कहाँसे? पहले उद्धार होता तो अपनी दाल गलती, अर्थात् अपना भी काम बन जाता।
भगवान् का नाम दीनबन्धु आया है, समदर्शी, प्रेमी, पतितपावन आया है, पर कहीं भी अकर्मण्य-पावन, अकर्मण्य-सखा नहीं आया है।
निकम्मापन छोड़ो। निकम्मापन छोड़ना मामूली बात है। परिश्रम किया कि निकम्मापन गया।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...